Yearly Archives: 2009

दर्दनाक अंत


इतिहास साक्षी है कि धन और सत्ता के लिए मनुष्य ने मनुष्य का इतना खून बहाया है कि वह अगर इकट्ठा हो तो रक्त का दरिया उमड़ पड़े । धन, राज्य, अधिकार की लिप्सा में अनेक राजाओं ने जिस प्रकार दुनिया को तबाह किया उसे पढ़-सुनकर दिल दहल जाता है, किंतु ऐसे सभी आक्रमणकारियों या विजेताओं का अंत अत्यंत दर्दनाक, दुःख और पश्चाताप से पूर्ण था ।

दिग्विजयी सिकंदर अनेक देशों को जीत लेने के पश्चात् अपनी युवावस्था में ही मृत्यु शय्या पर आ पड़ा और अंतिम वेला में उसने अपने साथियों से कहाः “मेरी मृत्यु के पश्चात मेरे दोनों हाथ अर्थी से बाहर निकाल देना ताकि दुनिया के लोग यह जान सकें कि सिकंदर, जिसके अधिकार में अपार खजाने थे, वह भी आज खाली हाथ जा रहा है ।”

याद रख सिकंदर के, हौसले तो आली थे ।

जब गया था दुनिया से, दोनों हाथ खाली थे ।।

महमूद गजनवी ने ग्यारहवीं शताब्दी में नगरकोट तथा सोमनाथ के मंदिर को लूटा । इस लूट में उसे अपार सम्पदा मिली । कहते हैं गजनवी ने अपनी मृत्युवेला में अपने सिपाहियों से कहाः “मेरी शय्या उन तिजोरियों के बीच में डाल दो, जिनमें लाल, हीरे, पन्ने आदि मणिरत्न मौजूद हैं ।”

जब उसे उन तिजोरियों के बीच में ले जाया गया तो वह छटपटाकर उठा, तिजोरियों को पकड़कर सीने से चिपटाते हुए फूट-फूटकर रो पड़ा और कराहते हुए बोलाः “हाय ! मैंने इन लाल, भूरे, नीले, पीले, सफेद पत्थरों को इकट्ठा करने में ही जीवन गँवा दिया । लूटपाट, खून-खराबा और धन की हवस में सारी जिंदगी बर्बाद कर दी ।”

वह रोता, हाथ मलता, पश्चाताप की आग में छटपटाता हुआ मरा ।

सन् 1398 में तैमूर लंग बानवे हजार सवार लेकर लूटमार करता हुआ जब दिल्ली पहुँचा तब एक लाख हिन्दुओं के सिर कटवाकर उसने वहाँ ईद की नमाज पढ़ी । वह दिल्ली की किसी सड़क पर अपने सिपाहियों के साथ जा रहा था । उसे रास्ते में एक अंधी बुढ़िया मिली । तैमूर ने बुढ़िया से उसका नाम पूछा । बुढ़िया ने यह जानकर कि मेरा नाम पूछने वाला खूँखार और बेरहम तैमूर है, कड़कते स्वर में अपना नाम दौलत बताया । नाम सुनते ही तैमूर हँसा और बोलाः “दौलत भी अंधी होती है !” बुढ़िया ने कहाः “हाँ ! दौलत भी अंधी होती है तभी तो वह लूटमार और खून-खराबे के जरिये लूले और लँगड़े के पास पहुँच जाती है ।”

तैमूर बुढ़िया के हृदय विदारक वाक्यों को सुनकर बहुत लज्जित हुआ, उसके चेहरे पर उदासी छा गयी । वह आगे बढ़ा, उसे लगा कि अंधी दौलत के पीछे मैं लँगड़ा ही नहीं अंधा भी हूँ ।

सिकंदर हो या करूँ, गजनवी हो या औरंगजेब, तुगलक हो या सिकंदर लोदी, चंगेज, मुसोलिनी, नेपोलियन, हिटलर या जापान के नागासाकी एवं हिरोशिमा पर बम गिराकर वहाँ की निरपराध जनता और सम्पत्ति को नष्ट करने वाले अमेरिकी शासक, सद्दाम हो या अन्य कोई भी मानवीय अधिकारों, सुख-सुविधाओं को नष्ट करने वाले अधिपति, इतिहास के पन्ने ऐसे अनेक अत्याचारियों द्वारा खून-खराबों एवं धन, राज्य, भोगों की लिप्सा के कुकृत्यों से रँगे पड़े हैं । किन्तु इन सब युद्धों और लड़ाइयों का परिणाम अत्यंत दुःखजनक ही सिद्ध होता है । अंततः धन-सत्ता का पिपासु विनाश के गर्त में चला जाता है और सम्पूर्ण वैभव यहीं छूट जाता है, फिर भी मनुष्य सावधान नहीं होता !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 196

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मन को वश करने के उपाय


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ।

‘मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है ।’ (मैत्रायण्युपनिषद् 4.4)

श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘जिसका मन वश में नहीं है उसके लिए योग करना अत्यंत कठिन है, यह मेरा मत है ।’ (गीताः 6.36)

मन को वश करने के, स्थिर करने के उपाय हैं, जैसे-

1 प्रेमपूर्वक भगवन्नाम का कीर्तन करनाः हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।’ – वाणी से यह बोलते गये और मन में ‘ॐॐ’ बोलते गये । ऐसा करने से मन एकाग्र होगा, रस आने लगेगा और वासनाएँ भी मिटने लगेंगी ।

मन-ही-मन भगवान के नाम का कीर्तन करो, वाणी से नहीं, कंठ से भी नहीं, केवल मन में कीर्तन करो तो भी मन एकाग्र होने लगेगा ।

2 श्वासोच्छवास की गिनती द्वारा जपः जीभ तालू में लगाकर श्वासोच्छवास की गिनती करें । होंठ बंद हो, जीभ ऊपर नहीं नीचे नहीं बीच में ही रहे और श्वास अंदर जाये तो ‘ॐ’ बाहर आय तो एक, श्वास अंदर जाय तो ‘शांति’ बाहर आये तो दो… – इस प्रकार गिनती करने से थोड़े ही समय में मन लगेगा और भगवद् रस आने लगेगा, मन का छल, छिद्र, कपट, अशांति और फरियाद कम होने लगेगी । वासना क्षीण होने लगेगी । पूर्ण गुरु की कृपा हजम हो जाय, पूर्ण गुरु का ज्ञान अगर पा लें, पचा लें तो फिर तो ‘सदा दीवाली संत की, आठों पहर आनंद । अकलमता कोई ऊपजा, गिने इन्द्र को रंक ।।’

ऐसी आपकी ऊँची अवस्था हो जायेगी ।

3 चित्त को सम रखनाः शरीर मर जायेगा, यहीं पड़ा रह जायेगा, सुविधा-असुविधा सब सपना हो जायेगा । बचपन के मिले हुए सब सुख और दुःख सपना हो गये, जवानी की सुविधा-असुविधा सपना हो गयी और कल की सुविधा-असुविधा भी सपना हो गयी । तो सुविधा में आकर्षित न होना और असुविधा में विह्वल न होना, समचित होना – इससे भी मन शांत और सबल होगा । यह ईश्वरीय तत्त्व को जागृत करने की विधि है ।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है ।’ (भगवद्गीताः 6.32)

4 प्राणायाम करनाः खुली हवा में, शुद्ध हवा में दस प्राणायाम रोज करें । इससे मन के दोष, शरीर के रोग मिटने लगते हैं । प्राणायाम में मन की मलिनता दूर करने की आंशिक योग्यताएँ हैं । भगवान श्रीकृष्ण सुबह ध्यानस्थ होते थे, संध्या-प्राणायाम औदि करते थे । भगवान श्री राम भी ध्यान और प्राणायाम आदि करते थे । इऩ्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है । प्राण तालबद्ध होने से मन की दुष्टता और चंचलता नियंत्रित होती है ।

दस-ग्यारह प्राणायाम करके फिर दोनों नथुनों से श्वास खींचे और योनि को सिकोड़ कर रखें, शौच जाने की जगह (गुदा) का संकोचन करें, इसे ‘मूलबंध’ बोलते हैं । वासनाओं का पुंज मूलाधार चक्र में छुपा रहता है । योनि संकोचन करें और श्वास को रोक दें, फिर भगवन्नाम जप करें, इससे वासनाएँ दग्ध होती जायेंगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 9 अंक 196

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दिव्य दृष्टि


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्रीरामचन्द्रजी अरण्य में विश्राम कर रहे थे और लखन भैया तीर-कमान लेकर चौकी कर रहे थे । निषादराज ने श्रीरामजी की यह स्थिति देखकर कैकेयी को कोसना शुरु कियाः “यह कैकेयी, इसे जरा भी ख्याल नहीं आया ! सुख के दिवस थे प्रभु जी के और धरती पर शयन कर रहे हैं ! राजाधिराज महाराज दशरथनंदन राजदरबार में बैठते । पूर्ण यौवन, पूर्ण सौंदर्य, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण प्रेम, पूर्ण प्रकाश, पूर्ण जीवन के धनी श्रीराम जी को धकेल दिया जंगल में, कैकेयी की कैसी कुमति हो गयी !”

लखन भैया के सामने कैकेयी को उसने कोसा । निषादराज ने सोचा कि ‘लक्ष्मणजी मेरी व्यथा को समझेंगे और वे भी कैकेयी को कोसेंगे’ लेकिन लखन लाला ऐन्द्रिक जीवन में बहने वाले पाशवी जीवन से ऊँचे थे । वे मानवीय जीवन के सुख-दुःखों के थपेड़ों से भी कुछ ऊँचे उठे हुए थे । उन्होंने कहाः “तुम कैकेयी मैया को क्यों कोसते हो ?

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता ।

कोई किसी को सुख-दुःख देने वाला नहीं है ।”

जो बोलता है फलाने ने दुःख दिया, फलाने ने दुःख दिया, वह कुछ नहीं जानता है, अक्ल मारी हुई है उसकी । कुछ लोगों ने करोड़ों रूपये खर्च करके बापू का कुप्रचार कराया और यदि मैं बोलता कि ‘इन्होंने कुप्रचार करके मुझे दुःखी किया, हाय ! दुःखी किया’ तो मैं सचमुच ‘दुःख मेकर’ (दुःख बनाने वाला) हो जाता । वे कुप्रचार वाले कुप्रचार करते रहे और हम अपनी मस्ती में रहे तो मेरे पास तो सत्संगियों की भीड़ और बढ़ गयी । यह नियति होगी ।

निषादराज बोलता हैः “यह अच्छा नहीं हुआ ।” और लखन भैया कहते हैं कि “कोई किसी के सुख-दुःख का दाता नहीं होता है, सबका अपना-अपना प्रारब्ध होता है, अपना-अपना सोच-विचार होता है, इसी से लोग सुखी-दुःखी होते हैं । तुम कैकेयी अम्बा को मत कोसो ।”

निषादराज कहता है “क्या श्रीरामचन्द्रजी अपना कोई प्रारब्ध, अपने किसी पाप का फल भोग रहे हैं ? आपका क्या कहना है ?”

लक्ष्मण जी कहते हैं- “श्रीराम जी दुःख नहीं भोग रहे हैं, दुःखी तो आप हो रहे हैं । श्रीराम जी तो जानते हैं कि यह नियति है, यह लीला है । सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण ये सब खिलवाड़ हैं, मैं शाश्वत तत्त्व हूँ और रोम-रोम में रम रहा हूँ, अनंत ब्रह्माण्डों में रम रहा हूँ । यह तो नरलीला करने के लिए यहाँ राम रूप से प्रकट हुआ हूँ । श्रीराम जी प्रारब्ध का फल नहीं भोग रहे हैं । श्रीराम जी तो गुणातीत हैं, देशातीत हैं, कालातीत हैं और प्रारब्ध से भी अतीत हैं । महापुरुष प्रारब्ध का फल नहीं भोगते, वे प्रारब्ध को बाधित कर देते हैं । प्रारब्ध होता है शरीर का, मुझे क्या प्रारब्ध ! यश-अपयश शरीर का होता है, बीमारी-तन्दुरुस्ती शरीर को होती है, मेरा क्या ! हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति को जानने वाले उसके बाप ! ऐसा तो सब ज्ञानवान जानते हैं फिर श्रीरामचन्द्र जी तो ज्ञानियों में शिरोमणि हैं । वे कहाँ दुःख भोग रहे हैं ! दुःख तो निषादराज आप बना रहे हैं ।”

अब ध्यान देना, इस कथा से आप कौनसा नजरिया (दृष्टि) लेंगे ? कैकेयी कुटिल रही, स्वार्थी रही और अपने बेटे के पक्ष में वरदान लिया, यह अनुचित किया – ऐसा समझकर आप अगर अनुचित किया – ऐसा समझकर आप अगर अनुचित से बचना चाहते हैं तो इस पक्ष को स्वीकार करके अपने अंतःकरण को गलतियों से, कुटिलता से बचा लें तो अच्छी बात है । अगर, कैकेयी में प्रेम था और राम जी के दैवी कार्य में कैकेयी ने त्याग और बलिदान का परिचय दिया है, इतनी निंदा सुनने के बाद भी, लोग क्या-क्या बोलेंगे, यह समझने के बाद भी कैकेयी ने यह किया है ऐसा आप मानते हैं तो कैकेयी के इस त्याग, प्रेम को याद करके अंतःकरण में सद्भाव को स्वीकार करिये । कैकेयी को कोसकर आप अपना दिल मत बिगाड़िये अथवा कैकेयी ने श्रीराम जी को वनवास दिया, अच्छा किया और हम भी ऐसा ही आचरण करें – ऐसा सोचकर अपने दिल में कुटिलता को मत लाइये । जिससे आपका दिल, दिलबर के ज्ञान से, दिलबर के प्रेम से, दिलबर की समता से, परम मधुरता से भरे, वही नजरिया आपके लिए ठीक रहेगा, सही रहेगा, बढ़िया रहेगा ।

कोई भाभी, कोई देवरानी, कोई जेठानी, कोई सास या बहू अऩुचित करती है तो आप यह अनुचित है ऐसा समझकर अपने जीवन में उस अनुचित को न आने दें, तब तक तो ठीक है लेकिन ‘यह अनुचित करती है, यह निगुरी ऐसी है, वैसी है…’ – ऐसा करके आप उन पर दोषारोपण करके अपने दिल को बिगाड़ने की गलती करते हैं तो आप पशुता में चले जायेंगे । यदि सामने वाली सास-बहू, देवरानी-जेठानी सहनशक्तिवाली है तो उसका सद्गुण लेकर आप समता लाइये । किसी में कोई सद्गुण है तो वह स्वीकारिये और किसी में दुर्गुण है तो उससे अपने को बचाइये । ऐसा करके आप अपने अंतःकरण का विकास कीजिये । न किसी का दोष देखिये और न किसी को दोषी मानकर आरोप करिये और न किसी की आदत के गुलाम बनिये ।

किसी के दोष देखकर आप मन में खटाई लायेंगे तो आपका अंतःकरण खराब होगा लेकिन दोष दिखने पर आप उन दोषों से बचेंगे और उसको भी निर्दोष बनाने हेतु सद्भावना करेंगे तो आप अपने अंतःकरण का निर्माण कर रहे हैं । संसार तो गुण-दोषों से भरा है, अच्छाई-बुराई से भरा है । आप किसी की अच्छाई देखकर उत्साहित हो जाइये, आनंदित होइये और बुराई दिखने पर अपने को उन बुराइयों से बचाकर अपने अंतःकरण का निर्माण करिये और गहराई में देखिये कि यही अच्छाई-बुराई के ताने-बाने संसार को चलाते हैं, वास्तव में तत्त्वस्वरूप भगवान सच्चिदानंद हैं, मैं उन्हीं में शांत हो रहा हूँ । जहाँ-जहाँ मन जाय, उसे घुमा-फिराकर छल, छिद्र, कपट से रहित, गुण-दोष के आकर्षण से रहित अपने भगवत्स्वभाव में विश्रांति दिलाइये, विवेक जगाइये कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने को ऐसा पूछकर शांत होते जाइये ।

आप पुरुषार्थ करके अपनी मति को ऐसा बनाइये कि आपको लगे कि भगवान पूर्णरूप से मेरे ही हैं ।  के दस बेटे होते हैं, हर बेटे को माँ पूर्णरूप से अपनी लगती है, ऐसे ही भगवान हमको पूरे-के-पूरे अपने लगने चाहिए । ऐसा नहीं कि भगवान बापू जी के हैं, आपके नहीं हैं । जितने बापू जी के हैं उतने-के-उतने आपके हैं ।

‘ऋग्वेद’ कहता हैः मन्दा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वम् । तुम अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण बनाओ और कर्म करो ।’ (10,101,2) और कर्म में ऐसी कुशलता लाओ कि कर्म तो हो लेकिन कर्म के फल की लोलुपता नहीं हो और कर्म में कर्तृत्व अभिमान भी नहीं हो । कर्म प्रारब्ध-प्रवाह से होता रहे और आप कर्म को कर्मयोग बनाकर नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त करके भगवान में विश्राम पाओ, भगवान में प्रीति बढ़ाओ, ब्रह्मस्वभाव में जगो, ब्राह्मी स्थिति बनाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 196

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ