Yearly Archives: 2009

तेरी मर्जी पूरण हो


पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से

आत्मा अचल है, परमात्मा अचल है । तुम अचल से मिलो । तुम तिनके की नाईं अपने को कितना बहा रहे हो – जरा सा मनचाहा नहीं हुआ तो अशांति…. जरा विकार को पोषण नहीं मिला तो अशांति…. जरा सा अहं को पोषण नहीं मिला तो अशांति, दुःख…. जरा सा किसी नौकर ने सलाम नहीं मारा तो अशांति… जरा किसी ने तुम्हारी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ नहीं भरी तो अशांति…. छोटी-छोटी बात में तुम कितने छोटे हो जाते हो !

तुम जैसा चिंतन करते हो वैसा तुम्हारा चित्त हो जाता है ।  इसलिए कृपा करके तुम भगवद्चिंतन करो । सुबह उठो और स्मरण करो कि ‘मेरे हृदय में भगवान है । बाहर घूमूँगा लेकिन उसी की सत्ता से । बार-बार उसी में आऊँगा ।’ श्वासोच्छवास में अजपा गायत्री को जपो । नामदान के वक्त जो युक्तियाँ बतायी थीं, उनका अभ्यास करो । व्यवहार के हरेक घंटे में 2-5 मिनट आत्मविश्रांति का अभ्यास करो ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (8.8) में कहा हैः

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।

‘हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी और न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।’

अभ्यास को योग में बदल दो । तुम्हारा चित्त अन्यगामी मत होने दो, चित्तवृत्ति अन्य-अन्य व्यक्तियों में जायेगी, अन्य-अन्य व्यवहार में जायेगी लेकिन अन्य-अन्य की गहराई में जो भगवान छुपा है वह अनन्य है, बार-बार उसी का स्मरण करो ।

टयूबलाइट अलग है, पंखा अलग है, मोटर पंप अलग है, फ्रिज अलग है लेकिन है तो सबसे बिजली की सत्ता, ऐसे ही सबमें मेरा प्रभु है । मित्र के रूप में भी तू है, पिता के रूप में भी तू है, माता के रूप में भी तू है । बोलेः ‘पिता के रूप में भी भगवान है तो वह भगवान बोलता है सत्संग में मत जाओ तो फिर हम सत्संग में जायें कि नहीं जायें ? उसकी मर्जी पूर्ण करें कि नहीं करें ?’

एक महिला ने रामसुखदासजी महाराज से पूछा कि ‘हमारे ससुर में भी तो ब्रह्म है, भगवान है । ससुर जी कहते हैं कि कथा में मत जाओ तो हम कथा में आयें कि नहीं आयें ? अगर कथा में नहीं आते तो सत्संग नहीं मिलता, मन पवित्र नहीं रहता, संसार में जाता है । अगर कथा में आते हैं तो ससुररूपी भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होता है ।

ससुररूपी भगवान नहीं रोकता है, ससुररूपी मोह रोकता है, ससुररूपी अहंकार रोकता है । पितारूपी भगवान नहीं रोकता है, पितारूपी अहंकार रोकता है । पिरता के रूप में जो अहं है वह ‘ना’ बोलता है । ईश्वर सत्संग में जाने को ‘ना’ कभी नहीं बोलता । तो सास की, ससुर की, माँ की, बाप की इस प्रकार की आज्ञा कैसी है ? मोहयुक्त है ।

तुमने सुना है कि सबमें भगवान है और भगवान की मर्जी पूर्ण हो तो पत्नी कहेगीः ‘चलो पिक्चर में, मेरे में भी तो भगवान है, मेरी बात मान लो ।’ शराबी कहेगाः ‘मेरे में भी भगवान है, पी लो प्याली ।’ जुआरी कहेगाः ‘मेरे में भी भगवान है, जरा खेल लो मेरे साथ चौसर, ताश ।’

नहीं ! सबमें भगवान है अर्थात् मेरा (अंतर्यामी) भगवान है । हजारों जुआरी खेल रहे हैं, खेलने दो उनको । चलो, हम उसी अंतर्यामी के साथ खेलते हैं । ऐसा करके हमको अंतर्मुख होना है । निगुरो लोगों की हाँ में हाँ करके अपनी साधना नहीं बिगाड़नी है । मोह में आये हुए कुटुम्बियों की हाँ में हाँ करके अपने को खपा नहीं देना है । उस ईश्वर की हाँ में हाँ का अर्थ है – आप जो नहीं चाहते वह हो रहा है …. समझो आप अपमान नहीं चाहते और हो रहा है तो उसकी हाँ में हाँ करो तो अपमान की समस्या खत्म हो जायेगी । आप चाहते हैं कि ऐसा खाने को मिले, ऐसा रहने को मिले और वह नहीं हो रहा है तो चलो, जैसी उसकी मर्जी ! – ऐसा करके आत्मसंतोष कर आत्मसुख में जाना है । ऐसा नहीं कि जुआरियों के साथ चल दिये, गँजेड़ियों के साथ चल दिये, फिल्म में चल दिये ।

विकारों की मर्जी पूर्ण न हो, ईश्वर की मर्जी पूर्ण हो, बस । अहंकार की मर्जी पूरी न हो, वासना वाले दोस्तों की मर्जी पूरी न हो लेकिन उनकी गहराई में जो मेरा परमात्मा है उसकी मर्जी पूर्ण हो । बस, इतना ही तो करना है ! दिखता इतना है लेकिन इसमें सब कुछ आ जाता है । श्वासोच्छवास की साधना शुरु करो, उससे अंतरात्मा का सुख शुरु हो जायेगा । आत्मविश्रांति…. ॐ आनंद…

कई लोग ध्यान करते हैं न, तो अपेक्षा रखते हैं कि ध्यान ऐसा लगना  चाहिए… अरे, ऐसा लगना चाहिए, वैसा दिखना चाहिए…. – इससे तो फिर  नहीं होगा । ध्यान में बैठो तो तेरी मर्जी पूरण हो प्रभु तेरी जय हो ।….’ शुरु हो गया बस, चिंतन हो गया, आराम हो गया ! निःसंकल्प होते जाओ…. ‘श्री नारायण स्तुति (आश्रम से प्रकाशित एक पुस्तक) पढ़ते जाओ, निःसंकल्प होते जाओ… श्री नारायण स्तुति पढ़ी और गोता मारा… इससे जल्दी भगवत्सुख, दिव्य सुख शुरु हो जायेगा ।

शरीर से जो कुछ कर्म करते हो उस अंतर्यामी की प्रसन्नता के लिए करो । विकार को पोसने के लिए नहीं, अहंकार को पोसने के लिए नहीं, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए काम करो तो वह तुम्हारी सच्ची सेवा हो जायेगी । ‘फलाना भाई, फलाना भाई’ – ऐसा करके लोग तुम्हारे से काम लेना चाहते हैं तो तुम अंदर सावधान रहो कि इस शरीर का नाम करने के लिए हम सेवा कर रहे हैं या शरीर में छुपे हुए परमात्मा अथवा गुरु को साक्षी रखकर हम सेवा कर रहे हैं ? केवल सावधानी बरतो तो तुम्हारी सेवा में चार चाँद लग जायेंगे !

जो वाहवाही के लिए सेवा करते हैं उनका स्वभाव उद्धत हो जाता है, गंदा हो जाता है । वे कुत्तों की नाईं आपस में लड़त-झगड़ते रहते हैं लेकिन भगवान की प्रसन्नता के लिए, गुरु की प्रसन्नता के लिए जो सेवा करते हैं उनका स्वभाव बड़ा मधुर हो जाता है ।

शास्त्र, ईश्वर तथा गुरु को स्वीकृति दे दो और अहं को अस्वीकृति दे दो, कल्याण हो जायेगा । तुम स्वीकृति दे दोः ‘वाह ! तेरी मर्जी ! तेरी मर्जी पूरण हो !’ भगवान की मर्जी अगर पूर्ण करने लग गये तो भगवान पूर्ण हैं, पूर्ण तो पूर्ण ही चाहेगा । ऐसे ही भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, आनंदस्वरूप हैं, मुक्तस्वरूप हैं तो उनकी मर्जी पूर्ण होने दो, तुम्हारे बाप का जाता क्या है ! हम स्वीकृति नहीं देते हैं, अपनी मर्जी अड़ाते हैं तभी परेशान होते हैं । तेरी मर्जी पूरण हो ! अपना नया कोई संकल्प न करो, अपनी नयी कोई पकड़ न रखो, ईश्वर की मर्जी पूर्ण होगी तो ईश्वर तुमको ईश्वर बना देगा, ब्रह्म तुमको ब्रह्म बना देगा क्योंकि तुम उसके सनातन अंश हो ।

बेवकूफी यह होती है कि हम ईश्वर को भी बोलते हैं कि मेरी मर्जी से करः ‘हे भगवान ! बेटा हो जाय । इतने साल के अंदर हो जाय और ऐसा हो जाय….।’ मानो उसको कोई अक्ल ही नहीं है । तू भगवान के पास गया कि नौकर के पास गया रे ! यह असावधानी है । ‘हे भगवान ! जरा ऐसा हो जाय, मौसम अच्छा हो जाय ।’ अरे ! वह जो करता है ठीक है, उसकी मौज है ! ‘मौसम ऐसा है वैसा है…. तू ऐसा कर दे, वैसा कर दे….।’ नहीं, तेरी मर्जी पूर्ण हो !’ तो मौसम आपको परेशान नहीं करेगा । आप स्वीकृति दे दो, बस । कोई दो गालियाँ देता है तो ‘आहा ! गालियाँ दिलाकर अपमान कराके तू मेरा अहंकार मिटाता है । ॐॐ… तेरी मर्जी पूरण हो !’ – ऐसा मन ही मन कहो तुम्हारी साधना हो जायेगी यार ! ‘बहुत गर्मी हो रही है… हाय रे ! गर्मी हो रही है….’ ऐसा करोगे तो गर्मी सतायेगी । जिसको बारिश का मजा लेना है उसको गर्मी भी सहनी पड़ती है । बारिश के लिए गर्मी भी जरूरी है । सर्दी पचाने के लिए भी गर्मी जरूरी है और गर्मी पचाने के लिए सर्दी जरूरी है । मान पचाने के लिए अपमान जरूरी है । जीवन को पचाने के लिए मृत्यु जरूरी है । वाह ! जो जरूरी है सब तूने किया । तेरी मर्जी पूरण हो ! बस इतना ही तो मंत्र है ! और कोई बड़ा नहीं है और गुप्त भी नहीं है बाबा ! आनंद ही आनंद है !

हर रोज खुशी, हम दम खुशी, हर हाल खुशी ।

जब आशिक मस्त प्रभु का हुआ, तो फिर क्या दिलगीरी बाबा ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 12-14 अंक 194

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

उद्देश्य और आश्रय


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन  से

संसार को अनित्य, बदलने वाला जानो और भगवान को नित्य, सदा रहने वाला मानो ।

संसार दुःखालय है । संसार शत्रु देकर तपाता है और मित्र देकर भी दुःख देता है । मित्र मिला और वह बीमार हो तो दुःख देगा । मित्र चिढ़ गया तो दुःख देगा । वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो दुःख देगा । उसको कोई दुःख आया, मुसीबत आयी तो अपने को दुःख होगा । मित्र शत्रु बन गया तो दुःख देगा । मित्र मर गया तो दुःख देगा । मर जाने के बाद उसकी याद दुःख देगी ।

संसार मित्र बनकर दुःख देता है और संसारी चीज़ें अपनी बनकर मजदूरी करवाती हैं । सँभालो, सँभालो, सँभालो…. गहने सँभालो, गाड़ी सँभालो । सँभाल-सँभाल के वे चीज़ें तो यहीं रह जाती हैं, आखिर सँभालने वाला ही मर जाता है । संसार को सँभाल-सँभाल के छोड़ना है लेकिन अपने स्वार्थ के लिए सँभालते हैं तो बंधन होता है और भगवान की प्रीति के लिए, परोपकार के लिए सँभालते हैं तो मोक्षदायी हो जाता है क्योंकि उद्देश्य और आश्रय परमात्मा है । हम भी तो आश्रम सँभालते हैं, यह सँभालते हैं….  वह सँभालते हैं लेकिन बंधन नहीं रहता । जब आप अपने स्वार्थ के लिए कर्म करते हैं, तब वह कर्म आपको विक्षेप देगा, चिंता देगा, पाप देगा, बंधन देगा और जन्म-मरण की खाई में धकेल देगा । अगर आप अपनी योग्यता को ‘वासुदेवः सर्वम्’ की भावना से सबकी भलाई में लगा देते हैं और अपने कर्म का फल ईश्वर-अर्पण करके ईश्वर के आश्रित हो जाते हैं तो आपका अंतःकरण विशाल होता जाता है, बुद्धि में भगवान की दिव्य प्रेरणा आने लगती है । फिर आपको बड़ी-बड़ी किताबें पढ़के, बड़ी-बड़ी परीक्षाएँ पास करके मैनेजमेंट नहीं करना पड़ेगा, बड़े-बड़े ग्रंथ, पोथे रट-रटके फिर सत्संग नहीं करना पड़ेगा ।

आप यदि अहंकार का आश्रय छोड़कर भगवान का आश्रय लेके बोलते हैं, सर्वात्मा श्रीहरि के निमित्त बोलते हैं तो आपका बोलना सत्संग हो जायेगा, आपका करना सत्कर्म हो जायेगा, आपका जीवन चिन्मय जीवन होने लगेगा ।

परमात्मा की प्रीति के लिए, परमात्मा के आश्रय के लिए लोग भक्ति तो करते हैं लेकिन हृदय में महत्त्व भगवान का नहीं रखते, महत्त्व रखते हैं कि ‘बेटा ठीक हो जाय, पैसा मिल जाय, मेरा यश हो जाय….।’ तो आप परमात्मा का आश्रय नहीं ले रहे हैं, आप नश्वर चीजों के आश्रय में फँस रहे हैं । यदि आप नौकरी करते हैं, धंधा करते हैं, पत्नी के साथ बाजार में खरीददारी करते हैं या यात्रा करते हैं और आपके हृदय में भगवान का महत्त्व है तो आप भगवान के आश्रित हैं । मुख्य उद्देश्य और महत्त्व भगवान का है, कर्म को योग बनाने का है, धर्म अनुसार चलने का है तो आपका उद्देश्य और आश्रय भगवान हो गये ।

अगर आपका उद्देश्य मजा लेने का है और आश्रय चोरी है तो आपका उद्देश्य और आश्रय नीच हो गया । किसी का उद्देश्य ऊँचा होता है, आश्रय छोटा होता है तो भी चल जाता है । जैसे एक सेठ-सेठानी की श्रद्धालु बेटी थी । उसका उद्देश्य था भगवान के दर्शन करने का । तीन-चार ठग साधुवेश में उसके घर आये । सेठ-सेठानी की अनुपस्थिति में उन्होंने उस युवती को कहा कि “तू सब गहने आदि पहनकर हमारे साथ चल, हम तुझको भगवान के दर्शन करा देंगे ।” वह उनके साथ गयी तो ठगों ने उसके सारे गहने उतरवा लिये और कहाः “इस कुएँ में देख, भगवान के दर्शन हो रहे हैं ।” वह ज्यों ही कुएँ में देखने के लिए झुकी, उसको धक्का मार दिया और भाग चले । तो हुआ क्या कि भगवान प्रकट हो गये और उस युवती को बचा लिया ! अब उसका आश्रय तो छोटा था लेकिन उद्देश्य भगवान थे कुछ भी नुकसान नहीं हुआ । यह घटना ‘भक्तमाल’ में विस्तार से आती है ।

किसी का उद्देश्य और आश्रय दोनों ऊँचे होते हैं । जैसे – हनुमान जी लंका में गये तो उनका उद्देश्य राम जी की सेवा था और आश्रय रामनाम था, कर्मयोग था । हनुमान जी ने श्री राम जी की दुहाई देकर रावण को समझाने की कोशिश की लेकिन रावण ने हेकड़ी नहीं छोड़ी, तब हनुमान जी ने लंका जला दी । उनका उद्देश्य था कि रावण अभी समझ जाय कि ‘मैं तो राम जी का छोटा सा दूत हूँ । जब मैं ऐसा हूँ तो मेरे स्वामी जी कैसे होंगे ?’ तो हनुमान जी का उद्देश्य अपने स्वामी का यश फैलाना था । उनके हृदय में रावण के प्रति द्वेष नहीं था और लंका को जलाकर ‘मैं कुछ बड़ा हूँ’ ऐसा दिखाने का भाव नहीं था । रावण भगवान राम जी की महिमा जाने और उसका भला हो ऐसा उद्देश्य था ।

भगवान भी दूत को भेजते समय ऐसा बोलते हैं- “जाओ, काम तो हमारा हो सीता जी को लाने का, लेकिन हित रावण का हो ।”

काजु हमार तासु हित होई ।

तो अपने कर्म में, अपनी बातचीत में, अपने लेन-देन में आप उद्देश्य और आश्रय ईश्वर का रख दो तो आपका जीवन सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा से मिलाने वाला हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 194

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

किसके साथ कैसा व्यवहार ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

आपको व्यवहार काल में अगर भक्ति में सफल होना है तो तीन बातें समझ लोः

1 अपने साथ पुरुषवत् व्यवहार करो । जैसे पुरुष का हृदय अनुशासनवाला, विवेकवाला होता है, ऐसे अपने प्रति तटस्थ व्यवहार करो । कहीं गलती हो गयी तो अपने मन को अनुशासित करो ।

2 दूसरों के साथ मातृवत व्यवहार करो । जैसे बालक के प्रति उदार होती है, उसी तरह दूसरों के साथ उदार व्यवहार करो । पूत कपूत हो जाय लेकिन माता कुमाता नहीं होती । इसी प्रकार दूसरों के साथ मातृवत व्यवहार करना चाहिए ।

3 भगवान के साथ शिशुवत व्यवहार करो । जीवन सरल, स्वाभाविक, निर्दोष होगा तो भगवत्प्राप्ति सहज है और जीवन जितना अड़ा-कड़ा-जटिल होगा, छल-छिद्र-कपटयुक्त होगा, उतना भगवान हमसे दूर होंगे । भगवान राम कहते हैं- मोहि छल कपट छिद्र न भावा । अतः इनसे बचो । जैसे निर्दोषचित्त शिशु माँ की गोद में अपने को डाल देता है, ऐसे ही आप भी कभी-कभी उस नारायणरूपी माँ की गोद में उसी का ध्यान-चिंतन करते हुए निश्चिंत होकर लेट जाओ कि ‘मैं उस परमात्मा में, ईश्वरीय सुख में विश्रांति पा रहा हूँ….. मैं निश्चिंत हूँ…. जो होगा प्रभु जानें ।’

इसी प्रकार पतंजलि ऋषि ने ‘पातंजल योग-दर्शन’ में सफल व्यवहार के चार सिद्धान्त बताये हैं-

1 मैत्रीः जो श्रेष्ठ लोग है, सत्संगी हैं, भगवान के रास्ते जाते हैं व दूसरों को ले जाते हैं उनसे मित्रताभरा व्यवहार करो । उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर उनके दैवी कार्य में भागीदार हों ।

2 करूणाः आपसे जो छोटे हैं, नासमझ हैं, नौकर हैं, बच्चे हैं, कम योग्यतावाले हैं उनसे करूणाभरा व्यवहार करो ।

3 मुदिताः जो अच्छे कार्य में, दैवी कार्य में लगे हैं उनका अनुमोदन करो ।

4 उपेक्षाः जो निपट निराले हैं, उनको छोड़ो । उनको ठीक करने का ठेका आप लोगे तो आप परेशान हो जाओगे । ऐसे लोग समझो, आपके लिए पैदा ही नहीं हुए । उनकी उपेक्षा कर दो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 15 अंक 194

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ