Yearly Archives: 2009

अपने घर में देख ! – पूज्य बापू जी


सूफी फकीर लोग कहानी सुनाया करते हैं कि प्रभात को कोई अपने खेत की रक्षा करने के लिए जा रहा था । रास्ते में उसे एक गठरी मिली । देखा कि इसमें कंकड़-पत्थर हैं । उसने गठरी ली और खेत में पहुँचा । खेत के पास ही एक नदी थी । वह एक-एक कंकड़-पत्थर गिलोल में डाल-डाल के फेंकने लगा । इतने में कोई जौहरी वहाँ स्नान करने आया । उसने स्नान किया तो देखा चमकीला पत्थर…. उठाया तो हीरा ! वह उस व्यक्ति के पास चला गया जो हीरों को पत्थर समझ के गिलोल में डाल-डाल के फेंक रहा था । उसके पास एक नगर बाकी बचा था ।

जौहरी ने कहाः “पागल ! यह तू क्या कर रहा है ? हीरा गिलोल में डालकर फेंक रहा है !”

वह बोलाः “हीरा क्या होता है ?”

“यह दे दे, तेरे को मैं इसके 50 रूपये देता हूँ ।”

फिर उसने देखा कि “50 रूपये….. इसके ! इसके तो ज्यादा होने चाहिए ।”

“अच्छा 100 रूपये देता हूँ ।”

“मैं जरा बाजार में दिखाऊँगा, पूछूँगा ।”

“अच्छा 200 ले ले ।”

ऐसा करते-करते उस जौहरी ने 1100 रूपये में वह हीरा ले लिया । उस व्यक्ति ने रूपये लेकर वह हीरा तो दे दिया लेकिन वह छाती कूट के रोने लगा कि ‘हार-रे-हाय ! मैंने इतने हीरे नदी में बहा दिये । मैंने कंकड़ समझकर हीरों को खो दिया । मैं कितना मूर्ख हूँ, कितना बेवकूफ हूँ !”

उससे भी ज्यादा बेवकूफी हम लोगों की है । कहाँ तो सच्चिदानंद परमात्मा, कहाँ तो ब्रह्मा, विष्णु,  महेश का पद और कहाँ फातमा, अमथा, शकरिया का बाप होना तथा उनकी मोह-माया में जीवन पूरा करके अपने आत्मनाथ से मिले बिना अनाथ होकर श्मशान में जल मरना !

आप शिवजी से रत्ती भर कम नहीं हैं । आप ब्रह्मा जी से तिनका भर भी कम नहीं हैं । आप श्रीकृष्ण जी से धागा भर भी कम नहीं हैं । आप रामकृष्ण परमहंस जी से एक डोरा भर भी कम नहीं हैं । आप भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू से एक तिल भर भी कम नहीं हैं और आप आसाराम बापू से भी एक एक आधा तिल भी कम नहीं हैं ।

भगवान कहते हैं

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।

हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ ।’ (गीताः 10.20)

लेकिन चिल्ला रहे हैं- ‘हे कृष्ण ! तू दया कर । हे राम । तू दया कर । हे अमधा काका ! तू दया कर ! हे सेंधी माता ! तू दया कर…’ पर यहाँ क्या है ?

इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है ।

कमबख्त खुदा होकर बंदा नज़र आता है ।।

शोधी ले शोधी ले, निज घरमां पेख, बहार नहि मळे ।

ढूँढ ले-ढूँढ ले, अपने घर में देख अर्थात् अपने में गोता मार और जान ले निज स्वरूप को, बाहर नहीं मिलेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 5 अंक 193

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सृष्टि कैसे बनी ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

सृष्टि के विषय में विचार करते-करते बहुत उच्चकोटि के महापुरुषों ने तीन विकल्प खोजे ।

पहला विकल्प था ‘आरम्भवाद’ । इसके अनुसार जैसे कुम्हार ने घड़ा बना दिया, सेठ ने कारखाना बना दिया, आरम्भ कर दिया, ऐसे ही ईश्वर ने दुनिया चलायी । कुम्हारा का बनाया हुआ घड़ा कुम्हार से अलग होता है, सेठ का कारखाना उससे अलग होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर की बनायी हुई दुनिया उससे अलग है । लेकिन दुनिया में तो ईश्वर की चेतना दिखती है । तो दुनिया और ईश्वर अलग-अलग कहाँ रहे ?

दूसरा विकल्प खोज ‘परिणामवाद’ अर्थात् जैसे दूध में से दही बनता है ऐसे ही ईश्वर ही दुनिया बन गये । दूध में से दही बन गया तो फिर वापस दूध नहीं बनता, ऐसे ही ईश्वर ही सारी दुनिया बन गये तो सृष्टि की नियामक ईश्वरीय सत्ता कहाँ रही ? ईश्वर बनते-बिगड़ते हैं तो ईश्वर का ईश्वरत्व एकरस कहाँ रहा ?

खोजते-खोजते वेदांत को जानने वाले तत्त्ववेत्ता महापुरुष आखिर इस बात पर सहमत हुए कि यह सृष्टि ईश्वर का विवर्त है ।’विवर्तवाद” अर्थात् अपनी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहे और उसमें यह सृष्टि प्रतीत होती रहे । जैसे तुम्हारा आत्मा ज्यों का त्यों रहता है और रात को उसमें सपना प्रतीत होता है – लोहे की रेलगाड़ी, उसकी पटरियाँ और घूमने वाले पहिये आदि ।

तुम चेतन हो और जड़ पहिये बना देते हो, रेलगाड़ी बना देते हो, खेत-खलिहान बना देते हो । रेलवे स्टेशनों का माहौल बना देते हो । सपने में ‘अजमेर का मीठा दूध पी ले भाई ! आबू की रबड़ी खा ले…. मुंबई का हलुवा…. नडियाद के पकौड़े खा ले….’ सारे हॉकर, पैसेंजर और टी.टी भी तुम बना लेते हो । तुम हरिद्वार पहुँच जाते हो । ‘गंगे हर’ करके गोता मारते हो । फिर सोचते हो जेब में घड़ी भी  पड़ी है, पैसे भी पड़े हैं । घड़ी और पैसे की भावना तो अंदर है और घड़ी व पैसे बाहर पड़े हैं । पुण्य प्राप्त होगा यह भावना अंदर है और गोता मारते हैं यह बाहर है । तो सपने में भी अंदर और बाहर होता है । तुम्हारे आत्मा के विवर्त में अंदर भी, बाहर भी बनता है, जड़ और चेतन भी बनता है फिर भी आत्मा ज्यों-का-त्यों रहता है ।

ऐसे ही यह जगत परब्रह्म परमात्मा का विवर्त है । इसमें अंदर-बाहर, स्वर्ग-नरक, अपना पराया सब दिखते हुए भी तत्त्व में देखो तो ज्यों-का-त्यों ! जैसे समुद्र की गहराई में शांत जल है और ऊपर से कई मटमैली तरंगे, कई बुलबुले, कई भँवर और किनारे के अलग-अलग रूप-रंग दिखते हैं । उदधि की गहराई में पानी ज्यों-का-त्यों है, ऊपर दिखने वाली तरंगें विवर्त हैं । जैसे सागर में सागर के ही पानी से बने हुए बर्फ के टुकड़े डूबते उतराते हैं, ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा ज्यों-का-त्यों है और यह जगत उसमें लहरा रहा है । इस प्रकार वेदांत-दर्शन का यह ‘विवर्तवाद’ सर्वोपरि एवं अकाट्य है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 15 अंक 193

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अपनी डफली अपना राग


(परम पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

आत्मा के प्रमाद से जीव दुःख पाते हैं । आकाश में वन नहीं होता और चन्द्रमा के मंडल में ताप नहीं होता, वैसे ही आत्मा में देह या इन्द्रियाँ कभी नहीं हैं । सब जीव आत्मरूप हैं । वृक्ष में बीज का अस्तित्व छुपा हुआ है, ऐसे ही जीव में ईश्वर का और ईश्वर में जीव का अस्तित्व है फिर भी जीव दुःखी है, कारण कि जानता नहीं है । चित्त में आत्मा का अस्तित्व है और आत्मा में चित्त का, जैसे बीज में वृक्ष और वृक्ष में बीज । जैसे बालू से तेल नहीं निकल सकता, वन्ध्या स्त्री का बेटा संतति पैदा नहीं कर सकता, आकाश को बगल में बाँध नहीं सकता, ऐसे ही आत्मा के ज्ञान के सिवाय सारे बंधनों से कोई छूट नहीं सकता । आत्मा का ज्ञान हो जाय, उसमें टिक जाय तो फिर व्यवहार करे चाहे समाधि में रहे, उपदेश करे चाहे मौन रहे, अपने आत्मा में वह मस्त है । फिर राज्य भी कर सकते हैं और विश्रांति भी कर सकते हैं ।

रात्रि को एक हॉल में दस आदमी सो रहे हैं । जिसको जैसा-जैसा सपना आता है उसको उस वक्त वैसा-वैसा सच्चा लगता है । जाग्रत में भी जैसी जिसकी कल्पना होती है उसको वैसा ही सच्चा लगता है ।

कुछ लोग जंगल में घूमने गये । तीतर पक्षी बोल रहा था । जो सब्जी मंडी में धंधा करता था, उससे पूछा कि “तीतर क्या बोलता है ?”

वह बोलाः “धड़ाधड़-धड़ाधड़-धड़ाधड़….”

पहलवान बोलाः “नहीं-नहीं, यह बोलता है – दंड-बैठक, दंड-बैठक, दंड-बैठख….”

तीसरा जो भक्त था, बोलाः “यह बोलता है – सीताराम-सीताराम-सीताराम, राधेश्याम….”

चौथा जो तत्त्वज्ञ था, वो बोलाः “अरे नहीं, यह बोलता है – एक में सब, सब में एक । तू ही तू, तू ही तू ….”

जैसी अपनी-अपनी कल्पना थोप दी, वैसा दिखने लगा । ऐसे ही इस जगत में अपने-अपने फुरने पैदा होते हैं, वैसे-वैसे विचारों में जीव घटीयंत्र (अरहट) की नाईं भटकता रहता है । इस फुरने को मोड़कर जहाँ से फुरना उठता है उस परमात्मा में शांति पा ले अथवा फुरने को फुरना समझकर उसका साक्षी हो जाय तो मंगल हो जाय, कल्याण हो जाय !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 14 अंक 193

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