शरीर के साथ दिल को भी रंग लो

शरीर के साथ दिल को भी रंग लो


(होलीः 28 फरवरी)

पूज्य बापू जी

‘होली’ भारतीय संस्कृति की पहचान कराने वाला एक पुनीत पर्व है। यह पारस्परिक भेदभाव मिटाकर प्रेम व सदभाव प्रकट करने का एक सुंदर अवसर है, अपने दुर्गुणों तथा कुसंस्कारों की आहुति देने का एक यज्ञ है तथा अंतर में छुपे हुए प्रभुत्व को, आनंद को, निरहंकारिता, सरलता और सहजता के सुख को उभारने का उत्सव है।

होली का यह उत्सव हम प्राचीनकाल से मनाते आ रहे हैं। भगवान शिवजी ने इस दिन कामदहन किया था और होलिका, जिसको वरदान था न जलने का, प्रह्लाद को लेकर अग्नि की ज्वालाओं के बीच बैठी थी। वह होलिका जल गयी तथा भक्तिसम्पन्न प्रह्लाद अमरता के गीत गुँजाने में सफल हुए अर्थात् निर्दोष भक्ति के बल से वे धधकती अग्नि में भी सुरक्षित रहे। तो यह उत्सव खबर देता है कि तामसी व्यक्ति के पास कितना भी बल हो, कितना भी सामर्थ्य हो सज्जनों को डरना चाहिए। भले सज्जन नन्हें-मुन्ने दिखते हो, प्रह्लाद की नाईं छोटे दिखते हों फिर भी वे बड़े में बड़े ईश्वर का आश्रय लेकर कदम आगे बढ़ायें।

विघ्न-बाधा हमें दबोच सके,

यह उसमें दम नहीं।

हमें दबा सके यह जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।।

ये पंक्तियाँ प्रह्लाद, मीरा, शबरी, तुकारामजी आदि-आदि सत्संगनिष्ठों के जीवन में साकार पायी गयीं।

हो….ली…. जो बीत गयी उस कमजोरी को याद न कर। आने वाले भविष्य का भय मत कर। चरैवति…..चरैवति……आगे बढ़ो…..आगे बढ़ो…..

यह होली का उत्सव तुम्हारे छुपे हुए आत्मिक रस को जगाने वाला है। लोग कुत्ते और बिल्लियों से रस लेने के लिए उन्हें पालते है और न जाने टी-गौंडी आदि कितने जीवाणुओं की हानियाँ अपने जीवन में ले आते हैं। बिल्ली के पेट में पाये जाने वाले टी-गौंडी जीवाणु कमजोर मानसिकता वाले को, गर्भवती महिला को और शिशु को नुकसान पहुँचाते हैं। मानव रस खोजने के लिए बिल्ली की शरण को जाता है, कुत्ते की शरण जाता है, पान-मसाला, शराब-कबाब की शरण जाता है, क्लबों की शरण जाता है, और भी न जाने किस-किस की शरण जाता है। होलिकोत्सव बोलता हैः नहीं !

तमेश शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तुम सर्वभाव से अपने आत्मसुख की शरण आओ, आत्मप्रकाश की शरण आओ। घबराओ मत लाला-लालियाँ ! होली – हो… ली….।

मुस्कराके गम का जहर जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।

हर इन्सान चाहता है जीवन रसमय हो, जीवन प्रेममय हो, जीवन निरोगता से छलके तो आपसी राग-द्वेष भूलकर-

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से स्नेह जगत में कोई नहीं पराया है।।

भारतीय संस्कृति के ये पावन त्यौहार एवं मनाने के तरीके केवल मन की प्रसन्नता ही नहीं बढ़ाते, तन की तंदरूस्ती एवं बुद्धि में बुद्धिदाता की खबर भी देते हैं।

गर्मी के दिनों में सूर्य की किरणें हमारी त्वचा पर सीधी पड़ती हैं, जिससे शरीर में गर्मी बढ़ती है। हो सकती है कि शरीर में गर्मी बढ़ने से गुस्सा बढ़ जाय, स्वभाव में खिन्नता आ जाय। इसीलिए होली के दिन प्राकृतिक पुष्पों का रंग एकत्र करके एक दूसरे पर डाला जाता है, ताकि हमारे शरीर की गर्मी सहन करने की क्षमता बढ़ जाये और सूर्य की तीक्ष्ण किरणों का उस पर विकृत असर न पड़े।

हम पर्वों को तो मनाते हैं परंतु पर्वों के जो सिद्धान्त हैं उनसे हम मीलों दूर रह जाते हैं। हमारे ऋषियों ने जिस उद्देश्य से त्यौहारों की नीति बनायी, उसका यथार्थ लाभ न लेकर हम उन्हें अपनी वासना के अनुसार मना लेते हैं।

ऋतु-परिवर्तनकाल के इस त्यौहार पर प्रकृति की मादकता छायी रहती है। वैदिक काल में शरीर को झकझोरने वाली सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से टक्कर लेने के लिए पलाश के फूलों का रस लिया जाता था। यह रोगप्रतिकारक शक्ति, सप्तधातु और सप्तरंगों को संतुलित रखने की व्यवस्था थी। पलाश के फूल हमारे तन, मन, मति और पाचन-तंत्र को पुष्ट करते हैं। पलाश वृक्ष के पत्तों पर भोजन करने वाले को भी स्वास्थ्य लाभ के साथ पुण्य लाभ व सत्त्वगुण बढ़ाने में मदद मिलती है।

ऋतु परिवर्तन के इन 10-20 दिनों में नीम के 15-20 कोमल पत्तों के साथ 2 काली मिर्च चबाकर खाने से भी वर्ष भर आरोग्य दृढ़ होता है। बिना नमक का भोजन 15 दिन लेने वाले की आयु और प्रसन्नता में बढ़ोतरी होती है। होली के बाद खजूर खाना मना है।

होली की रात्री चार पुण्यप्रद महारात्रियों में आती है। होली की रात्रि का जागरण और जप बहुत ही फलदायी होता है। इसलिए इस रात्रि में जागरण और जप कर सभी पुण्य लाभ लें। यह उत्सव रंग के साथ अंतर चेतना, आंतर-आराम और अंतरात्मा की प्रीति देने वाला है।

हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को आग में न जलने का वरदान मिला था। चिता में बैठी हुई उस होलिका की गोद में प्रह्लाद को बिठा दिया गया और चिता को आग लगा दी गयी। परंतु यह क्या ! जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था वह होलिका जल गयी और प्रह्लाद जीवित रह गये ! बिल्कुल उलटा हो गया क्योंकि प्रह्लाद सत्य की शरण थे, ईश्वर की शरण थे।

संत कहते हैं कि यह जीव प्रह्लाद है। हिरण्यकशिपु यानी अंधी महत्वाकांक्षा, वासना जो संसार में रत रहने के लिए उकसाती रहती है। होलिका यानी अज्ञान, अविद्या जो जीव को अपनी गोद में बिठाकर रखती है तथा उसे संसार की त्रिविध तापरूपी अग्नि में जलाना चाहती है। यदि यह जीवरूपी प्रह्लाद ईश्वर और सदगुरु की शरण में जाता है तो उनकी कृपा से प्रकृति का नियम बदल जाता है। त्रिविध तापरूपी अग्नि ज्ञानाग्नि के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस ज्ञान की आग से अज्ञानरूपी होलिका भस्म हो जाती है तथा जीवरूपी प्रह्लाद मुक्त हो जाता है। यही होली का तत्त्व है।

होली रंग का त्यौहार है। रंग जरूर खेलो, मगर गुरूज्ञान का रंग खेलो। रासायनिक रंगों से तो हर साल होली खेलते हो, इस बार गुरूज्ञान के रंग से अपने हृदय को रँग लो तो तुम भी कह उठोगेः

भोला ! भली होली हुई,

भ्रम भेद कूड़ा बह गया।

नहिं तू रहा नहिं मैं रहा,

था आप सो ही रह गया।।

होली यानी जो हो… ली…. कल तक जो होना था, वह हो लिया। आओ, आज एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें। जो दीन-हीन हैं, शोषित है, उपेक्षित है, पीड़ित है, अशिक्षित है, समाज के उस अंतिम व्यक्ति को भी सहारा दें। जिंदगी का क्या भरोसा ! कुछ काम ऐसे कर चलो कि हजारों दिल दुआएँ देते रहें… चल पड़ो उस पथ पर, जिस पर चलकर कुछ दीवाने प्रह्लाद बन गये। करोगे न हिम्मत ! तो उठो और चल पड़ो प्रभुप्राप्ति, प्रभुसुख, प्रभुज्ञान, प्रभुआनंद प्राप्ति के पुनीत पथ पर…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 10,11,16, अंक 206

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