Monthly Archives: February 2010

कहीं देर न हो जाए…..


मगध नरेश अपनी अश्वशाला और वृषभशाला का बहुत अधिक ध्यान रखता था। वह अपने बलिष्ठ घोड़ों और पुष्ट बैलों को देखने जाता, उनको सहलाता। उसकी वृषभशाला में एक अत्यन्त सुंदर बैल था। उसका सफेद रंग, लम्बे सींग और ऊँचा कंधा किसी का भी ध्यान खींच लेता था। मगध नरेश भी उसे बहुत पसंद करता था।

एक बार नरेश राज्य विस्तार करने दूर देश में चला गया। जब वापस आया तो अपने प्यारे वृषभ को देखने वृषभशाला में गया। उसे देखा तो नरेश दंग रह गया। उसने वृषभशाला सँभालनेवाले वयोवृद्ध सेवक से पूछाः “जिसका सुगठित शरीर, उज्जवल वर्ण, ऊँचा कंधा था, उसी वृषभ का कंधा झूल रहा है, वर्ण निस्तेज हो गया है, जवानी लुढ़क गयी है। आकर्षण का केन्द्र वृषभ इतना दीन-हीन तुच्छ क्यों हुआ ?

सेवक बोलाः “राजा साहब ! इसकी जवानी चली गयी। बुढ़ापे में प्रायः सभी प्राणियों की यह दशा होती है और फिर मौत घेर लेती है। यही दृश्यमान जगत की नश्वरता और तुच्छता समझकर आप सरीखे विचारवान, बुद्धिमान राजा सत्संग का सहारा लेकर सत्यस्वरूप में, शाश्वत स्वरूप में जगे हुए महापुरुषों की शरण में आत्मस्वरूप में जगने के लिए जाते हैं।”

मगध नरेश रात भर इन्हीं विचारों में खोया रहा। मानो राजा के सोये हुए वैराग्य को जगा दिया वृषभ के बुढ़ापे ने और वृषभशाला के अनुभवी सेवक के आप्तवचनों ने। राजा सोचने लगा, ‘हाय जगत ! तेरी नश्वरता, परिवर्तनशीलता ! तुझे अपना-अपना मानने वाले सब मर-मिटे। तूने किसी का साथ नहीं निभाया। तू स्वयं नाशवान है। तुझे पाकर जो अपने को भाग्यशाली मानते हैं, वे मूढ़मति स्वप्न के सिंहासन पर शाश्वत अधिकार और शाश्वत सुख की कल्पना में खोये रहते हैं और मृत्यु आकर सबको मिटाती जाती है। मैं भी उसी भ्रम की परिस्थिति में अपना अमूल्य जीवन खो रहा हूँ।

मिली हुई चीज़ छूट जायेगी यह सत्संग में सुना था लेकिन मुझ अधम की राज्य विस्तार की वासना के कारण मैं भटकता रहा। विस्तार-विस्तार में आयु नष्ट हो रही है। यह सुंदर, सुहावना प्यारा वृषभ बुढ़ापे की चपेट में आ गया। राज्य, वस्तुएँ और सत्ता के विस्तार में लगे मुझ जैसे अधमों को धिक्कार है !

हाय मेरी वासना ! जो पूर्ण विस्तृत है उस व्यापक परमेश्वर के पूर्ण विस्तार में जो पूर्ण हो जाते हैं, धन्य हैं वे महापुरूष ! हम प्रकृति की चीजों के विस्तार-विस्तार में नीच योनियों में भटकने के रास्ते जा रहे हैं, जैसे राजा अज, राजा नृग ऐसी वासना में लगकर नीच योनियों में भटके। मैंने भी नासमझी की, नीच योनियों में भटकने का रास्ता पकड़ा।

नहीं…..! अभी नहीं तो कभी नहीं !! बाह्य विस्तार विनाश की ओर ले जाता है, आत्मवस्तु में चित्तवृत्ति का विस्तार स्वतः सिद्ध, विस्तृत ब्रह्म में विश्रान्ति दिलाता है। ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं स्वतः सिद्ध, विस्तृत ब्रह्म में विश्रान्ति पाऊँगा ?

हाय ! मुझे अनित्य शरीर, अनित्य संसार को जानने वाले अपने नित्य नारायणस्वरूप ‘मैं’ को, जो नर-नारी का अयन है उस आत्मा को जानना चाहिए, पाना चाहिए। देर हो गयी देर ! बुढ़ापा तो इस शरीर भी उतर रहा है। बुढ़ापे की लाचारी, मोहताजी और मौत से पहले ही मुझे परमात्मपद को पाना चाहिए।’

बुद्धिमान मगध नरेश मौत के पहले अमर आत्मा का अनुभव करने वाले सत्पुरुषों के रास्ते चल पड़ा। राजपाट सज्जनों के हवाले करके एकांत अरण्य में सदगुरू की सीख के अनुसार अपने सत्-चित्-आनन्दस्वरूप को पाने में तत्परता से लग गया। धन्य है वह घड़ी जब बूढ़े बैल को बुढ़ापा और मौत की याद आयी और राजा अपने अनामय स्वरूप को, अपने अमर आत्मा को पाने में लग गया। निःस्वार्थी, प्रभुपरायण सम्राट ने राजा जनक की नाईं जीते-जी आत्मसाक्षात्कार कर लिया।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

“मैं शरीर हूँ और संसार की चीजों से सुख मिलेगा, और चाहिए-और चाहिए…’ इस प्रकार की मोहजनित मान्यताओं से पार होकर-

पूर्ण गुरूकृपा मिली, पूर्ण गुरू का ज्ञान।

स्वस्वरूप में जागकर, राजा हुए आत्माराम।।

क्या तुम भी किसी बूढ़े बैल या बूढ़े व्यक्ति को देखकर अपने बुढ़ापे की कल्पना नहीं कर सकते ! मगध नरेश की तरह तुम भी जगना चाहो तो जग सकते हो। अपने आत्मस्वरूप में लगना चाहो तो लग सकते हो। जगना चाहो और लगना चाहो तो अपने आत्मस्वरूप से प्रीति करो। करो हिम्मत ! ॐ ॐ ॐ…. हे जगत तेरी अनित्यता ! हाय मनुष्य, तेरी वासना और अंधी दौड़ !! आखिर कब तक !!!

ॐॐॐ श्री परमात्मने नमः। ॐॐ विवेकादाताय नमः। ॐॐ वैराग्यदाताय नमः। ॐॐ स्वस्वरूपदाताय नमः। श्रीहरि… श्री हरि…

मगध नरेश की नाईं लग पड़ो। पहुँच जाओ अपने परम स्वभाव में।

संकर सहज सरूपु सम्हारा।

लागि समाधि अखंड अपारा।।

(श्री रामचरित. बा.कां. 57.4)

ऐसे ही आप भी अपने स्वरूप को सँभालो। जहाँ न राग, न द्वेष, न भय, न शोक, न अहं, न अज्ञान है, उस स्वस्वरूप को जानने में लग जाओ। वह दूर नहीं, देर नहीं, दुर्लभ नहीं !….

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, अंक 206, पृष्ठ संख्या 2,3

एक क्षण भी कुसंग न करें – श्री उड़िया बाबा जी महाराज


अच्छे व्यक्तियों का संग करके मानव अनेक सदगुणों से युक्त होता है, जबकि दुर्व्यसनी एवं दुष्टों का संग करके वह कुमार्गी बन जाता है। सत्पुरुषों या संतों अथवा परमात्मा के संग को सत्संग कहते हैं। संत महात्मा तथा विद्वान हमेशा लोक-परलोक का कल्याण करने वाली बातें बताकर लोगों को संस्कारित करते हैं, जबकि व्यसनी अपने पास आने वाले को अपनी तरह के व्यसन में लगाकर उसका लोक-परलोक बिगाड़ देता है। इसीलिए धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि भूलकर भी व्यसनी, निंदक, नास्तिक तथा कुमार्गी का एक क्षण का भी संग नहीं करना चाहिए।

आदर्श माता-पिता वे हैं, जो अपनी संतान को सदाचार, सत्याचरण और धर्माचरण के संस्कार देते हं। जब से हमने संतान को सदाचार, सत्याचरण और धर्माचरण के संस्कार देना बंद किया है, तभी से पतन शुरु हुआ है। अतः संस्कारों पर विशेष बल दिया जाना जरूरी है।

हमारी माताएँ तथा संत बालकों एवं युवकों को पग-पग पर सत्प्रेरणा देते रहते थे। संध्या के समय भोजन नहीं करना चाहिए, भोजन के समय बोलना नहीं चाहिए, भोजन से पहले हाथ-पैर धोने चाहिए, पवित्र स्थान में पूर्वाभिमुख होकर भोजन करना चाहिए, तामस भोजन सर्वदा वर्जनीय है – जैसी प्रतिदिन की बातें हमें संस्काररूप में ज्ञात हो जाती थीं किंतु अंग्रेजी भाषा के कुप्रभाव ने तथा भौतिक सुखों की बढ़ती चाह ने हमारी युवा पीढ़ी को संस्कारहीन बना दिया है। इसीलिए बालकों को, युवकों को देववाणी संस्कृत की शिक्षा दिलानी चाहिए। उन्हें विदेशी भाषा, विदेशी वेशभूषा तथा विदेशी खानपान के मोह से दूर रखने के प्रयास किये जाने चाहिए।

सत्संग से ही संस्कारों की प्राप्ति होती है। सत्संग करने से भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखलायी पड़ता है। जिस मार्ग से सत्पुरुष गये हैं, उसी मार्ग पर चले बिना हमें भगवत्प्राप्ति का मार्ग नहीं मिल सकता। दुर्व्यसनी के कुछ पल के संग से हमारे संचित संस्कार तक लुप्त हो जाते हैं और वह हमें सहज ही में दुर्व्यसनों की ओर आकर्षित करने में सफल हो जाता है। अतः दुर्व्यसनी, नास्तिक तथा हर समय सांसारिक प्रपंचों में फँसे रहने वाले व्यक्ति का संग भूलकर भी नहीं करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 21, अंक 206

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवन्नाम-माहात्म्य


“राम-नाम के प्रताप से पत्थर तैरने लगे, राम-नाम के बल से वानर-सेना ने रावण के छक्के छुड़ा दिये, राम नाम के सहारे हनुमान ने पर्वत उठा लिया और राक्षसों के घर अनेक वर्ष रहने पर भी सीता जी अपने सतीत्व को बचा सकीं। भरत ने चौदह साल तक प्राण धारण करके रखे क्योंकि उनके कण्ठ से राम नाम के सिवा दूसरा कोई शब्द न निकलता था। इसलिए संत तुलसीदास जी ने कहा कि ‘कलिकाल का मल धो डालने के लिए राम-नाम जपो।”

इस तरह प्राकृत और संस्कृत दोनों प्रकार के मनुष्य राम-नाम लेकर पवित्र होते हैं परंतु पावन होने के लिए राम-नाम हृदय से लेना चाहिए। मैं अपना अनुभव सुनाता हूँ। मैं संसार में यदि व्यभिचारी होने से बचा हूँ तो राम-नाम की बदौलत। मैंने दावे तो बड़े-बड़े किये हैं परंतु यदि मेरे पास राम-नाम न होता तो तीन स्त्रियों को मैं बहन कहने के लायक न रहा होता। जब-जब मुझ पर विकट प्रसंग आये हैं, मैंने राम-नाम लिया है और मैं बच गया हूँ। अनेक संकटों से राम-नाम ने मेरी रक्षा की है। अपने इक्कीस दिन के उपवास में राम-नाम ने ही मुझे शांति प्रदान की है और मुझे जिलाया है।”

महात्मा गाँधी

राम नाम की अपनी महिमा है, शिवनाम की भी अपनी महिमा है। सभी वैदिक मंत्र अपने आप में पूर्ण हैं। वेदपाठ करने से पुण्यलाभ होता है लेकिन पाठ करने से पहले और अंत में भूल चूक निवारण तथा साफल्य के लिए ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है।

भयनाशन दुर्मति हरण, कलि में हरि को नाम।

निशदिन नानक जो जपे, सफल होवहिं सब काम।।

जिनको जो गुरूमंत्र मिला है वह उनके लिए सर्वश्रेष्ठ है। भीख माँगने वाले अनाथ, सूरदास बालक प्रीतम को गुरु भाईदास जदीसे दीक्षा मिली। ध्यान भजन में लग गया तो संत प्रीतमदास जी बन गये और 52 आश्रम उनकी पावन प्रेरणा से बने। कबीर जी को रामानंद स्वामी से राम नाम की दीक्षा मिली, ध्रुव को नारदजी से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र की दीक्षा मिली। धनभागी हैं वे जिनको गुरुमंत्र की दीक्षा मिली और उसी में लगे रहे दृढ़ता से। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

भजन्ते मां दृढ़व्रताः।

जो दृढ़निश्चयी हैं वे इसी जन्म में पूर्णता तक पहुँचते हैं। नरसिंह मेहता ने कहाः

भोंय सुवाडुं भूखे मारूं, उपरथी मारूं मार।

एटलुं करतां हरि भजे तो करी नाखुं निहाल।।

अर्थात्

धऱा सुलाऊँ, भूखा मारूँ, ऊपर से मारूँ मार।

इतना करते हरि भजे, तो कर डालूँ निहाल।।

कसौटी की घड़ियाँ आने पर भी जो भगवान का रास्ता नहीं छोड़ते, वे निहाल हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 206

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ