Monthly Archives: March 2010

जगत सत्य नहीं – पूज्य बापू जी


लाल जी महाराज के गुरुजी कहते थे कि ‘यह जगत जो दिखता है वह सच्चा नहीं है। सच्चा हो तो सबको एक जैसा दिखे। यह मायामात्र है।’ जिसकी जिस वक्त जैसी मान्यता होती है, जितनी मान्यता होती है, उसे उस समय वैसा और उतना जगत दिखता है। गाय, भैंस आदि पशु, पक्षी, वृक्ष सबको अपने ढंग का जगत दिखता है।

एक बिल्ली सोयी हुई थी और कुत्ता भौंका। बिल्ली की नींद टूटी और उन दोनों में विवाद हुआ। बात कल्पी हुई है समझाने के लिए।

बिल्ली ने कहाः “कम्बख्त कहीं के ! मेरा शिकार खो दिया।”

कुत्ता बोलाः “बहन ! तू तो सोयी हुई थी।”

“अरे ! चूहों की बरसात हो रही थी और मैं मजे से बिना मेहनत के माल एकत्र कर रही थी।”

“चूहों की बरसात ! चूहों की कभी बरसात हो सकती है ?”

“हाँ, बरसात हो रही थी चूहों की।”

बिल्ली अगर सपना देखेगी तो चूहों की बरसात होती हुई देखेगी और कुत्ता अगर सपना देखेगा तो हड्डियों की बरसात देखेगा। सेठ अगर सपना देखेगा तो श्रोताओं को देखेगा और नेता अगर सपना देखेगा तो चुनाव में किस दाव-पेंच से अपनी बाजी जीत लेंगे, ऐसा ही देखेगा।

तुम्हारे जाग्रत मन में जो संस्कार होते हैं वे ही सपने में उभर आते हैं। जाग्रत में भाषा है और सपने में दृश्य। जैसे जाग्रत सपने के समय नहीं, ऐसे सपना जाग्रत के समय नहीं और गहरी नींद के समय दोनों नहीं तथा समाधि में तीनों नहीं। कौन सा सच्चा मानोगे ? यह जगत सच्चा दिखेगा तो भगवान श्रीकृष्ण साथ में है फिर भी उद्धव को परेशानी रहेगी।

श्रीकृष्ण जैसे वक्ता और उद्धव जैसे श्रोता, फिर भी श्रीकृष्ण उद्धव को एकांत की जरूरत बता रहे हैं, डाँटकर कह रहे हैं कि “ये सब नश्वर है, मिट्टी के खिलौने हैं। ये मिट्टी के दीये जरा-सा मौत का झटका आते ही सब पराया हो जायेगा। सब प्रपंच छोड़ और एकांत में जा।”

स्वामी रामतीर्थ ने कहा हैः अगर इस दुनिया को तुम अच्छा करना चाहते हो तो सच्चे ज्ञान का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। अगर केवल दृश्यमान जगत को सच्चा मानकर सुधारने का प्रयास करोगे तो तुम्हारा सुधरना ही मुश्किल हो जायेगा। जो सत्य है उसमें तुम स्थित हो जाओ फिर तुम्हारी स्वाभाविक हिलचाल सुधार का कार्य किये जायेगी।

केवल पार्टीबाजी करने से, हा हा-हू हू… करने से, कायदे बनाने या निर्णय लिखने से जगत नहीं सुधरता, बल्कि जगत को जगदीश्वर का रस मिलने लग जाय तो जगत में सुधार हो सकता है। जगदीश्वर के रस में अड़चन क्या है ? यह जगत अगर सच्चा दिखेगा तो हजार जन्मों में भी अंदर का रस नहीं आयेगा। तो तुम एक बार जगदीश्वर का रस ले लो फिर तुम्हारी स्वाभाविक हिलचाल जगदीश्वर का रस बाँटने वाली होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 207

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हे नर ! दीनता त्याग – पूज्य बापू जी


(श्री वल्लभाचार्य जयंतीः 10 अप्रैल)

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

मंगल तो अपनी तपस्या से और देवताओं की, बड़ों की कृपा से हो जाता है लेकिन परम मंगल तो सदगुरु से होता है। सदगुरु की कृपा से भगवान आपके शिष्य भी बन सकते हैं।

भक्तकवि सूरदास जी  भजन गाते थे। एक बार वे वल्लभाचार्य महाराज के पास आये तो वल्लभाचार्यजी महाराज के पास आये तो वल्लभाचार्य जी ने कहाः “भजन गाने में तो तुम्हारा नाम है, जरा भजन सुना दो।” तो सूरदास जी ने भजन अलापा। भगवान के भक्त तो थे ही, वे फालतू गीत नहीं गाते थे, भगवान के ही गीत गाते थे। मो सम कौन कुटिल खल कामी…. प्रभु मोरे औगुन चित न धरौ…. आदि भजन वे गाने लगे तो वल्लभाचार्य जी ने कहाः “क्या सूर होकर गिड़गिड़ा रहे हो ! यह केवल हाथाजोड़ी और दीनता-हीनता, पुकार-पुकार, पुकार…. ! क्या जिंदगी भर गिड़गिड़ाते ही रहोगे ? भगवान ने तुम्हें गुलाम या मोहताज बनने के लिए धरती पर जन्म दिया है क्या ? अरे, भगवद्-तत्त्व की महिमा समझो, दीनता को त्यागो। भगवान तुमसे दूर नहीं हैं, तुम भगवान से दूर नहीं हो। मिथ्या प्रपंच को लेकर कब तक गिड़गिड़ाते रहोगे ! भगवान ने तुमको गिड़गिड़ाने वाला याचक नहीं बनाया है। तुम भगवान के बाप बन सकते हो, उनके गुरु बन सकते हो। भगवान का दादागुरु भी बन गया मनुष्य !”

सूरदास जी को बात लग गयी और वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर उनके मार्गदर्शन में जब थोड़ी साधना की, तब सूरदास जी बोलते हैं- “भगवान तो मेरा बेटा लगता है।” और वे भगवान की पुत्ररूप में आराधना करने लगे। पूर्वार्ध में तो सूरदास जी विनयी भक्त थे और उनके भजनों में गिड़गिड़ाहट थी परंतु गुरु की दीक्षा के बाद उनके भजनों में भगवत्स्वरूप छलकने लगा। ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व, ऐसी प्रभावशाली वाणी हो गयी कि लगता था जैसे भगवान ही बोल रहे हैं वे एक सुन्दरी के पीछे बावरे-से हो गये थे, फिर वैराग्य हुआ तो अपनी आँखें फोड़ लीं और सूरदास बन गये।

सांदीपनी अपने विद्यार्थीकाल में पढ़ने में तेज नहीं थे लेकिन गुरुभक्ति दृढ़ थी तो गुरु ने प्रसन्न होकर कहाः “बेटा ! तू तो मेरा शिष्य है लेकिन श्रीकृष्ण तेरे शिष्य बनेंगे।” तो गुरु ने श्रीकृष्ण को अपने शिष्य का शिष्य बना दिया न ! मनुष्य में यह ताकत है कि भगवान को अपने चेले का चेला बना दो। क्यों सारी जिंदगी गिड़गिड़ाते रहते हो ! सेठों की, नेताओं की, राजाओं की खुशामद कर-करके मरते रहते हो ! समर्थ रामदासजी को रिझाकर शिवाजी स्वयं स्वामी हो गये। पिताजी ने कहाः ‘बीजापुर नरेश को मत्था टेको।’ लेकिन शिवाजी ने नहीं टेका। समर्थ रामदास जी के यहाँ मत्था टेकने को किसी ने नहीं कहा पर शिवाजी ने मत्था टेका ! ऐसा टेका, ऐसा टेका कि बस, अब भी भारत के लोग शिवाजी को मत्था टेकते हैं।

लल्लू-पंजुओं के आगे खुशामद करते रहें, झुकते रहें, काहे को !

वह सर सह नहीं जो हर दर पे झुकता रहे।

और वह दर दर नहीं जहाँ सज्जनों का सर न झुके।।

ऐसा है ब्रह्मवेत्ता गुरु का दर, जहाँ सज्जनों का सर अपने-आप झुक जाता है। जो तैंतीस करोड़ देवताओं के स्वामी हैं, बारह मेघ जिनकी आज्ञा में चलते हैं ऐसे इन्द्रदेव भी आत्मसाक्षात्कारी गुरु को देखकर नतमस्तक हो जाते हैं।

एक बार मुझे गुरुजी बोलेः “गुलाब के फूल को किराने की दुकान पर ले जाओ और दाल, मूँग, मटर, चना, शक्कर, गुड़ सब पर रखो, फिर सूँघोगे तो सुगन्ध काहे की आयेगी ?”

मैंने कहाः “साँईं ! गुलाब की ही आयेगी।” तो गुरुजी ने मुझसे कहाः “तू गुलाब होकर महक…. तुझे जमाना जाने।” मेरे गुरुदेव के इन दो शब्दों ने कितने करोड़ लोगों का भला कर दिया !

नजरों से वे निहाल हो जाते हैं,

जो संतों की नजरों में आ जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 207

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एक आम से दो काम


एक बार मेरी पत्नी अचानक बीमार हो गयी। उसे ऐसा सर्वाइकल पेन (गर्दन के मनकों का दर्द) हुआ कि तुरंत अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। डॉक्टर ने कहाः “इनको कम-से-कम सात दिन अस्पताल में रहना पड़ेगा।”

उसके हाथ, पैर और गर्दन पर वजन लटकाकर लिटा दिया। 3-4 दिन बाद पूज्य बापू जी का सत्संग हरिद्वार में होने वाला था। हम लोगों ने वहाँ जाने का विचार पहले से ही बना लिया था पर ऐसी हालत में किस प्रकार हरिद्वार जायें ! जाना आवश्यक था। मैंने अपनी पत्नी से बात की तो वह बोलीः “मुझे तो सत्संग में जाना ही जाना है।” डॉक्टर से बात की तो वे बोलेः “जाने में मरीज को बहुत खतरा है बल्कि आप इनको घर भी नहीं ले जा सकते।”

मैंने डॉक्टर से कहाः “एक दो दिन की छुट्टी दे दीजिए ताकि हम अपना पूजा-पाठ कर लें। फिर दुबारा हम इसे दाखिल करा देंगे।”

डॉक्टर ने ‘हाँ’ की तो हम लोग उसे हरिद्वार ले गये। पत्नी महिलाओं की लाइन में बैठ गयी। इतने में बापू जी पधारे। बापू जी भक्तों के बीच दर्शन देते हुए, कृपा बरसाते हुए घूम रहे थे। बापू जी के हाथों में एक आम था। उसको एक हाथ से दूसरे हाथ में लेकर वे उछाल ले रहे थे। बापू जी ने वह आम मेरी पत्नी को प्रसाद के रूप में ऐसा फेंककर मारा कि जहाँ पर उसे दर्द था। वहीं आकर लगा और उसकी झोली में आ गिरा।

इस घटना को 5 साल हो गये, अस्पताल में जाने की बात तो दूर रही आज तक न तो कोई दवा खायी और न दर्द हुआ। यह सब तो पूज्य गुरुदेव की असीम कृपा का फल है।

अनूप शर्मा, दिल्ली।

मो. 09213416373

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 30, अंक 207

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