Monthly Archives: March 2010

धर्मात्मा की ही कसौटियाँ क्यों ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

प्रायः भक्तों के जीवन में यह फरियाद बनी रहती है कि ‘हम तो भगवान की इतनी भक्ति करते हैं, रोज सत्संग करते हैं, निःस्वार्थ भाव से गरीबों की सेवा करते हैं, धर्म का यथोचित अनुष्ठान करते हैं फिर भी हम भक्तों की इतनी कसौटियाँ क्यों होती हैं ?’

बचपन में जब तुम विद्यालय में दाखिल हुए थे तो ‘क, ख, ग’ आदि का अक्षरज्ञान तुरंत ही हो गया था कि विघ्न बाधाएँ आयी थीं ? लकीरें सीधी खींचते थे कि कलम टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती थी ? जब साईकिल चलाना सीखा था तब भी तुम एकदम सीखे थे क्या ? नहीं। कई बार गिरे, कई बार उठे। चालनगाड़ी को पकड़ा, किसी की उँगली पकड़ी तब चलने के काबिल बने और अब तो मेरे भैया ! तुम दौड़ में भाग ले सकते हो।

अब मेरा सवाल है कि जब तुम चलना सीखे तो विघ्न क्यों आये ? क्यों विद्यालय में परीक्षा के बहाने कसौटियाँ होती थीं ? तुम्हारा जवाब होगा कि ‘बापू जी ! हम कमजोर थे, अभ्यास ज्ञान नहीं था।’

ऐसे ही तुमने परमात्मा को पाने की दिशा में कदम रख दिया है। तुम अभी 30 वर्ष के, 50 वर्ष के छोटे बच्चे हो, तुम्हें इस जगत के मिथ्यात्व का पता नहीं है। ईश्वर के लिए अभी तुम्हारा प्रेम कमजोर है, नियम में सातत्य और दृढ़ता की जरूरत है। अहंकार-काम-क्रोध के तुम जन्मों के रोगी हो, इसीलिए तो तुम्हारी कसौटियाँ होती हैं और विघ्न आते हैं ताकि तुम मजबूत बन सको। साधक तो विघ्न-बाधाओं से खेलकर मजबूत होता है। कसौटियाँ इसलिए कि तुम प्रभु को प्यार करते हो और वे तुम्हें प्यार करते हैं। वे तुम्हारा परम कल्याण चाहते हैं। वे तुम्हें कसौटियों पर कसकर, तुम्हारा विवेक-वैराग्य जगाकर तुमसे नश्वर संसार की आसक्ति छुड़ाना चाहते हैं।

माता कुंती भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती थीं-

विपदः सन्तु न यश्वत्तत्र जगदगुरो……

‘हे जगदगुरो ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपका चिंतन-स्मरण हुआ करता है और आपका चिन्तन-स्मरण होते रहने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता।’

एक बीज को वृक्ष बनने में कितने विघ्न आते हैं। कभी पानी मिला कभी नहीं, कभी आँधी आयी, कभी तूफान आया, कभी पशु-पक्षियों ने मुँह-चौंचें मारीं…. ये सब सहते हुए वृक्ष खड़े हैं। तुम भी कसौटियों को सहते हुए वृक्ष खड़े हैं। तुम भी कसौटियों को सहन करते हुए उन पर खरे उतरते हुए ईश्वर के लिए खड़े हो जाओ तो तुम ब्रह्म हो जाओगे। परमात्मा की प्राप्ति की दिशा में कसौटियाँ तो सचमुच कल्याण के परम सोपान हैं। जिसे तुम प्रतिकूलता कहते हो सचमुच वह वरदान है क्योंकि अनुकूलता में लापरवाही एवं विलास सबल होता है तथा संयम एवं विवेक दबता है और प्रतिकूलता में विवेक एवं संयम जगता है तथा लापरवाही एवं विलास दबता है। कसौटियों के समय घबराने से तुम दुर्बल हो जाते हो, तुम्हारा मनोबल क्षीण हो जाता है। हम लोग पुराणों की कथाएँ सुनते हैं। ध्रुव तप कर रहा था। असुर लोग डराने के लिए आये लेकिन ध्रुव डरा नहीं। सुर लोग विमान लेकर प्रलोभन देने के लिए आये लेकिन ध्रुव फिसला नहीं। वह विजेता हो गया। वे कहानियाँ हम सुनते हैं, सुना भी देते हैं लेकिन समझते नहीं कि ध्रुव जैसा बालक दुःख से घबराया नहीं और सुख में फिसला नहीं। उसने दोनों का सदुपयोग कर लिया तो ईश्वर उसके पास प्रकट हो गये।

हम क्या करते हैं ? जरा-सा दुःख पड़ता है तो दुःख देने वाले पर लांछन लगाते हैं, परिस्थितियों को दोष देते हैं अथवा अपने को पापी समझकर कोसते हैं। कुछ दुर्बुद्धि, महाकायर आत्महत्या भी कर लेते हैं। कुछ पवित्र होंगे तो किसी संत-महात्मा के पास जाकर दुःख से मुक्ति पाते हैं। यदि आप प्रतिकूल परिस्थितियों में संतो के द्वार जाते हैं तो समझ लीजिये कि आपको पुण्यमिश्रित पापकर्म का फल भोगना पड़ रहा है क्योंकि कसौटि के समय जब परमात्मा याद आता है तो डूबते को सहारा मिल जाता है। नहीं तो कोई शराब का सहारा लेता है तो कोई और किसी का…..मगर इससे न तो समस्या हल होती है और न ही शांति मिल पाती है क्योंकि जहाँ आग है वहाँ जाने से शीतलता कैसे महसूस हो सकती है ! तुम कसौटी के समय धैर्य खोकर पतन की खाई में गिर जाते हो और फिर फँसकर रह जाते हो।

जो गुरुओं के द्वार पर जाते हैं उनको कसौटियों से पार होने की कुंजियाँ सहज ही मिल जाती हैं। इससे उनके दोनों हाथों से लड्डू होते हैं। एक तो संत-सान्निध्य से हृदय की तपन शांत होती है, समस्या का हल मिलता है, साथ-ही-साथ जीवन की नयी दिशा भी मिलती है। तभी तो स्वामी रामतीर्थ कहते थेः “हे परमात्मा ! रोज नयी समस्या भेजना।”

आज आप इस गूढ़ रहस्य को यदि भलीभाँति समझ लेंगे तो आप हमेशा के लिए मुसीबतों से, कसौटियों से पार हो जायेंगे। बात है साधारण पर अगर शिरोधार्य कर लेंगे तो आपका काम बन जायेगा।

आपने देखा होगा कि जिस खूँटे के सहारे पशु को बाँधना होता है, उसे घर का मालिक हिलाकर देखता है कि उसे उखाड़कर कहीं पशु भाग तो नहीं जायेगा। फिर घर की मालकिन देखती है कि उचित जगह पर तो ठोका गया है या नहीं। फिर ग्वाला देखता है कि मजबूत है या नहीं। एक खूँटे को, जिसके सहारे पशु बाँधना है, इतने लोग देखते हैं, उसकी कसौटियाँ करते हैं तो जिस भक्त के सहारे समाज को बाँधना है, समाज से अज्ञान भगाना है उस भक्त की भगवान-सदगुरु यदि कसौटियाँ नहीं करेंगे तो भैया कैसे काम चलेगा ?

जिसे वो देना चाहता है उसी को आजमाता है।

खजाने रहमतों के इसी बहाने लुटाता है।।

जब एक बार सदगुरु की, भगवान की शरण आ गये तो फिर क्या घबराना ! जो शिष्य़ भी है और दुःखी भी है तो मानना चाहिए कि वह अर्धशिष्य है अथवा निगुरा है। जो शिष्य भी है और चिंतित भी है तो मानना चाहिए कि उसमें समर्पण का अभाव है। मैं भगवान का, मैं गुरु का तो चिंता मेरी कैसे ! चिंता भी भगवान की हो गयी, गुरु की हो गयी। हम भगवान के हो गये तो कसौटी, बेईज्जती हमारी कैसे ! अब तो भगवान को ही सब सँभालना है। जैसे आदमी कारखाने का कर्मचारी हो जाता है तो कारखाने को लाभ हानि जो भी हो, उसे तो वेतन मिलता ही है, ऐसे ही जब हम ईश्वर के हो गये तो हमारा शरीर ईश्वर का साधन हो गया। खेलने दो उस परमात्मा को तुम्हारे जीवनरूपी उद्यान में। बस, तुम तो अपनी ओर से पुरुषार्थ करते जाओ। जो तुम्हारे जिम्मे आये उसे तुम कर लो और जो ईश्वर के जिम्मे है वह उसे करने दो, फिर देखो तुम्हारा काम कैसे बन जाता है। वे लोग मूर्ख हैं जो भगवान को कोसते हैं और वे लोग धन्य हैं जो हर हाल में खुश रहकर अपने-आप में तृप्त रहते हैं। गरीबी है तो क्या ! खाने को, पहनने को नहीं है तो क्या ! यदि तुम्हारे दिल में गुरुओं के प्रति श्रद्धा है, उनके वचनों को आत्मसात् करने की लगन है तो तुम सचमुच बड़े ही भाग्यशाली हो। सच्चा भक्त भगवान से उनकी भक्ति के अलावा किसी और फल की कभी याचना नहीं करता।

जिसे वह इश्क देता है,

उसे और कुछ नहीं देता है।

जिसे वह इसके काबिल नहीं समझता,

उसे और सब कुछ देता है।।

‘श्री योगवासिष्ठ’ में आता है कि चिंतामणि के आगे जो चिंतन करो, वह चीज मिलती है परंतु सत्पुरुष के आगे जो चीज माँगोगे वह चीज वे नहीं देंगे, जिससे तुम्हारा हित होगा वही देंगे।

यदि तुम्हारी निष्ठा है, संयम है, सत्य का आचरण है, सेवा का सदगुण है तो वे सबसे पहले तुम्हारी कसौटी हो, ऐसी परिस्थितियाँ देंगे ताकि इन सदगुणों के सहारे तुम सत्यस्वरूप परमात्मा को पा लो, परमात्मा को पाने की तड़प बढ़ा दो क्योंकि वे तुम्हारे परम हितैषी हैं। सदगुरूओं का ज्ञान तुम्हें ऊपर उठाता है। परिस्थितियाँ हैं सरिता का प्रवाह, जो तुम्हें नीचे की ओर घसीटती हैं और सदगुरु ‘पम्पिंग स्टेशन’ है जो तुम्हें हरदम ऊपर उठाते हैं।

अज्ञानी के रूप में जन्म लेना कोई पाप नहीं। मूर्ख के रूप में पैदा होना कोई पाप नहीं पर  मूर्ख रहकर सुख-दुःख के थप्पड़ खाना और जीर्ण-शीर्ण होकर प्रभु से विमुख होकर मर जाना महापाप है।

मनुष्य जन्म मिला है, सदगुरु का सान्निध्य और परम तत्त्व का ज्ञान पाने का दुर्लभ मौका भी हाथ लगा है और सबसे बड़ी हर्ष की बात यह है कि तुममें श्रद्धा और समझ है, अब केवल उसके लिए तड़प, जिज्ञासा बढ़ा दो। दुःख, चिंता और परेशानियों से क्यों घबराते हो ! ये तो कसौटियाँ हैं जो आपको निखार कर चमकाना चाहती हैं। हिम्मत, साहस, संयम की तलवार से जीवनरूपी कुरूक्षेत्र में आगे बढ़ते जाओ…. तुम्हारी निश्चय ही विजय होगी, तुम दिग्विजयी होओगे, तत्त्व के अनुभवी होओगे, तुममें और भगवान में कोई फासला नहीं रहेगा। सदगुरू का अनुभव तुम्हारा अनुभव हो जाय, यही तुम्हारे सदगुरूओं का पवित्र प्रयास है।

तेरे दीदार के आशिक,

समझाये नहीं जाते हैं।

कदम रखते हैं तेरे द्वार पर,

तो लौटाये नहीं जाते हैं।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 4,5,6. अंक 207.

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भारतीय संस्कृति की पूर्णता का प्रतीक – होली


शास्त्र कहते हैं- उत्सव (उत्+सव) अर्थात् उत्कृष्ट यज्ञ। जीवन को यज्ञमय बनाकर चैतन्यस्वरूप परमात्मा का आनंद-उल्लास प्रकटाने का सुअवसर प्रदान करते हैं सनातन संस्कृति के उत्सव। ऋतुराज वसंत की प्रारम्भिक वेला में मनाया जाने वाला ‘होलिकोत्सव’ वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस समय प्रकृति नवचैतन्य से युक्त होती है।

प्राचीनकाल से मनाया जाने वाला यह होलिकोत्सव ऐतिहासिक रूप से भी बहुत महत्त्व रखता है। भूने हुए अन्न को संस्कृत में ‘होलका’ कहा जाता है। अर्धभुने अनाज को ‘होला’ कहते हैं। होली की आँच पर अर्धभुने अनाज का प्रसाद रूप में वितरण किये जाने की प्राचीन परम्परा से भी सम्भवतः इस उत्सव के ‘होलिकोत्सव’ तथा ‘होली’ नाम पड़े हों। (अर्धभुने धान को खाना वात व कफ के दोषों का शमन करने में सहायक होता है – यह होलिकोत्सव का स्वास्थ्य-हितकारी पहलू है)। प्राचीन परम्परा के अनुसार होलिका-दहन के दूसरे दिन होली की राख (विभूति) में चंदन व पानी मिलाकर ललाट पर तिलक किया जाता है। यह तो सर्वविदित है कि माधुर्य अवतार, प्रेमावतार भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों को आनंदित-उल्लसित करने के लिए इस महोत्सव का अवलम्बन लिया था।

शाब्दिक रूप से देखें तो ‘होली’ का अर्थ है जलाना परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो यह पर्व हमें अंतर्मुख होकर आत्मस्वरूप का आवरण बनी हुई दुष्ट वासनाओं को जलाने का संदेश देता है। बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक यह पर्व हमें बताता है कि जो प्रह्लाद की तरह अच्छाई के मार्ग पर चलता है, भगवद आश्रय के मार्ग पर चलता है, उसके जीवन की बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं और वह विजयी होता है। भक्त प्रह्लाद को जलाने आयी होलिका की तरह बुराई कितनी भी सामर्थ्य-सम्पन्न दिखे परंतु अंत में उसे जलकर खाक ही हो जाना पडता है। होलिकोत्सव हमें बताता है कि प्रकृति अच्छाई के प्रति पक्षपात करती है और इसके लिए अपने नियमों को भी बदल देती है।

होली का त्यौहार एक ओर जहाँ व्यक्तिगत अहं की सीमाएँ तोड़ते हुए हमें निरहंकार बनने की प्रेरणा देता है, वहीं दूसरी ओर मत, पंथ, सम्प्रदाय, धर्म आदि की सारी दीवारों को तोड़कर आपसी सदभाव को जागृत करता है।

भारतीय संस्कृति का यह पर्व प्राकृतिक रंगों से शरीर को, भगवदभक्ति के गीतों से भावों को तथा सत्संग की वर्षा से हृदय को रँगते हुए अपने जीवन में आनंद-उल्लास भरकर मनुष्य-जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा देता है, परंतु इसमें पाश्चात्य जीवनशैली के विकृत रंग ने कुछ विकृति भी ला दी है। प्राकृतिक सुवासित रंगो का स्थान बदबूदार रासायनिक रंगों ने ले लिया है। भगवदभक्ति के गीतों का स्थान अश्लील, गंदे फिल्मी गीतों ने ले लिया है और सत्संग-सत्कथा के स्थान पर भाँग व शराब की प्यालियाँ पीकर अनर्गल गाली-गलौज की कुप्रथा चल पड़ी है। अपनी पावन भारतीय संस्कृति के पुनरूज्जीवन में रत परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू ने पवित्र प्राकृतिक ढंग से होली का त्यौहार मनाने की परम्परा पिछले अनेक वर्षों से पुनः चलायी है और आज यह समाज के कोने-कोने में पहुँचकर अपनी पवित्र सुवास से जनजीवन को महका रही है।

हमारे स्वास्थ्य पर रंगों का अदभुत प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए विभिन्न तत्त्वों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार रंगों की भी आवश्यकता होती है। होली के अवसर पर प्रयुक्त प्राकृतिक रंग शरीर की रंग-संबंधी न्यूनता को पूर्ण करते हैं, किंतु सावधान ! आजकल बाजार में मिलने वाले जहरीले रासायनिक रंग इस न्यूनता को बढ़ाते हैं। इतना ही नहीं, इनके प्रयोग से अनेक गम्भीर रोगों के होने का खतरा बना रहता है।

प्राकृतिक रंग कैसे बनायें ?

आयुर्वेद ने प्राकृतिक रंगों में पलाश के फूलों के रंग को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है। यह कफ, पित्त, कुष्ठ, दाह, मूत्रकृच्छ, वायु तथा रक्तदोष का नाश करता है। यह प्राकृतिक नारंगी रंग रक्तसंचार की वृद्धि करता है, मांसपेशियों को स्वस्थ रखने के साथ-साथ मानसिक शक्ति व इच्छाशक्ति को बढ़ाता है।

अन्य कुछ प्राकृतिक रंगों को बनाने की विधियाँ इस प्रकार हैं-

सूखा हरा रंगः केवल मेंहदी पाउडर या उसे आटे में मिलाकर बनाये मिश्रण का प्रयोग किया जा सकता है। सूखी मेंहदी से त्वचा लाल होने का डर नहीं रहता। त्वचा लाल तभी होगी जब उसे पानी में घोल कर लगाया जाये।

मेंहदी पाउडर के साथ यदि आँवले का पाउडर मिलाया जाय तो भूरा रंग बन जाता है, जो बालों के लिए अच्छा होता है।

गीला हरा रंगः दो चम्मच मेंहदी पाउडर को एक लीटर पानी में अच्छी तरह घोल लें।

सूखा पीला रंगः चार चम्मच बेसन में दो चम्मच हल्दी पाउडर मिलाने से अच्छा पीला रंग बनता है, जो त्वचा के लिए अच्छे उबटन का काम करता है। साधारण हल्दी के स्थान पर कस्तूरी हल्दी का भी उपयोग किया जा सकता है, जो बहुत खुशबूदार होती है और बेसन के स्थान पर आटा, मैदा, चावल का आटा, आरारोट या मुलतानी मिट्टी का भी उपयोग किया जा सकता है।

अमलतास, गेंदा आदि त्वचा के लिए सुरक्षित पीले फूलों के सूखे चूर्ण को उपरोक्त किसी भी आटे में मिलाकर प्राकृतिक पीला रंग प्राप्त किया जा सकता है।

गीला पीला रंगः दो चम्मच हल्दी पाउडर दो लीटर पानी में डालकर अच्छी तरह उबालने से गहरा पीला रंग प्राप्त होता है।

अमलतास, गेंदा जैसे पीले फूलों को रात में पानी में भिगोकर सुबह उबालने से पीला रंग प्राप्त किया जा सकता है।

सूखा लाल रंगः लाल गुलाल के स्थान पर लाल चंदन (रक्त चंदन) के पाउडर का उपयोग किया जा सकता है।

सूखे लाल गुड़हल के फूलों के चूर्ण से सूखे और गीले दोनों रंग बनाये जा सकते हैं।

गीला लाल रंगः 2 चम्मच लाल चंदन पाउडर 1 लीटर पानी में उबालने से सुंदर लाल रंग तैयार होता है।

लाल अनार के छिलकों को पानी में उबालने से भी लाल रंग मिलता है।

जामुनी रंगः चुकंदर को पानी में उबालकर पीस के बढ़िया जामुनीं रंग तैयार होता है।

काला रंगः आँवला चूर्ण लोहे के बर्तन में रात भर भिगोने से काला रंग तैयार होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 10,11. अंक 207.

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आत्मबल ही जीवन है


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

रोग प्रतिकारक शक्ति कमजोर होती है तभी रोग पकड़ते हैं, विकार-प्रतिकारक शक्ति कमजोर होती है तभी विकार हावी होते हैं, चिंता को कुचलने के शक्ति कमजोर होती है तभी चिंता हावी हो जाती है। जैसे दुर्बल शरीर को बीमारियाँ घेर लेती हैं, ऐसे ही दुर्बल विचारशक्तिवाले को तरह-तरह के लोफर आ-आकर घेर लेते हैं। सबल जो भी करता है और उसके द्वारा जो भी होता है, उसके लिए तो ढोल-नगारे बजते हैं और दुर्बल जो करता है उसके लिए वह स्वयं तो असफल होता है, ऊपर से लानत भी पाता है। सबल वे हैं जिन्होंने काम-क्रोध आदि लोफरों को जीतकर अपने-आप में स्थिति पा ली है और निर्बल वे हैं जो इन लोफरों से पराजित होते रहते हैं।

भगवान ने कहा हैः नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। बलहीन को आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। बलवान बनो, वीर्यवान बनो। परिस्थिति चाहे कितनी ही विषम क्यों न आ जाय, निर्भयता के साथ अपने कर्तव्य-मार्ग पर आगे बढ़ते जाओ। न गुंडे बनो, न गुंडागर्दी चलने दो। न दुष्ट बनो, न दुष्टों के आगे घुटने टेको। दुर्बलता छोड़ो, हीन विचारों को तिलांजली दो। उठो…. जागो…

परमदेव परमात्मा कहीं आकाश में, किसी जंगल, गुफा या मंदिर-मस्जिद-चर्च में नहीं बैठा है। वह चैतन्यदेव आपके हृदय में ही स्थित है। वह कहीं को नहीं गया है कि उसे खोजने जाना पड़े। केवल उसको जान लेना है। परमात्मा को जानने के लिए किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन हीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बन कर करो। देवो भूत्वा यजेद् देवम्। जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनंदस्वरूप है, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनंद, शांति तथा पूर्ण आत्मबल के साथ उनकी उपासना करो कि ‘मैं जैसा-तैसा भी हूँ भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं और वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं तथा दयालु भी हैं तो मुझे भय किस बात का !’ ऐसा करके निश्चिंत नारायण में विश्रांति पाते जाओ।

बल ही जीवन है, निर्बलता ही मौत है। शरीर का स्वास्थ्यबल यह है कि बीमारी जल्दी न लगे। मन का स्वास्थ्य बल यह है कि विकार हमें जल्दी न गिरायें। बुद्धि का स्वास्थ्य बल है कि इस जगत के माया जाल को, सपने को हम सच्चा मानकर आत्मा का अनादर न करें। ‘आत्मा सच्चा है, ‘मैं’ जहाँ से स्फुरित होता है वह चैतन्य सत्य है। भय, चिंता, दुःख, शोक ये सब मिथ्या हैं, जाने वाले हैं लेकिन सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा ‘मैं’ सत्य हूँ सदा रहने वाला हूँ’ – इस तरह अपने ‘मैं’ स्वभाव की उपासना करो। श्वासोच्छवास की गिनती करो और यह पक्का करो कि ‘मैं चैतन्य आत्मा हूँ।’ इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा, एक एक करके सारी मुसीबतें दूर होती जायेंगी।

घर का आदमी भी अगर यह साधना करेगा तो पूरे परिवार में बरकत आयेगी। अगर एक भी बंदा यह साधना करता है तो दूसरे लोगों को भी फायदा होता है और यहाँ का फायदा तो बहुत छोटी बात है, परमात्मप्राप्ति का, मोक्षप्राप्ति का फायदा बहुत ऊँची बात है, वह भी सुलभ हो जाता है।

आत्मा तो सभी का बहुत महान है लेकिन भिखारियों की दोस्ती ने आदमी को भिखारी बना दिया है। जैसे राजाधिराज सम्राट घर में आया है तो उसका अपमान किया और भिखारियों के पास जाकर जश्न मनाता है तो वह व्यक्ति अपनी ही इज्जत गँवाता है। ऐसे ही ये विकार भिखमंगे हैं। नाक से, आँख से मजा लिया, जीभ से स्वाद लेकर मजा लिया, ये सारे मजे जो हैं वे मनुष्य को आत्मा से नीचे गिरा देते हैं।

शरीर में 22 मुख्य नाड़ियाँ हैं। ऐसे तो करोड़ों हैं। उनमें 22वीं नाड़ी है ‘ब्रह्मनाड़ी’। ब्रह्मचर्य का पालन करने से वह मजबूत होती है और उसी में ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है, ध्यान होता है। संयम आदि करके एक बार ब्रह्म परमात्मा का स्वाद ले लिया, जैसे एक बार दही मथकर मक्खन निकाल लिया फिर मक्खन को छाछ में फेंको तो भी तैरेगा। शादी हो जाये फिर भी संयम करके ब्रह्मनाड़ी को मजबूत बना के एक बार ईश्वरप्राप्ति कर ले, फिर उसको लेप नहीं चाहे वह कहीं भी रहे – ब्रह्मज्ञानी सदा निर्लेपा।

एक बार अमृत चख लिया फिर लफंगों के साथ रहे तो भी कोई फर्क नहीं। लफंगे सुधरेंगे, उसको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। राष्ट्रपति चपरासियों के पास बैठे तो क्या है, चपरासी थोड़े ही हो जायेगा ! ऐसे ही ब्रह्मज्ञान हो गया, ईश्वरप्राप्ति हो गयी फिर चाहे कहीं रहे।

समर्थ को नहीं दोष गुसाईं।

एक बार समर्थ हो जाओ, ईश्वरप्राप्ति कर लो बस। उसके पहले अगर संसार में गिरे तो फिर तौबा है। नास्तिक तो दुःखी है लेकिन आस्तिक भी वास्तविक ज्ञान के अभाव में चक्कर काटते हैं। आत्मा में चित्त लगाया तो आत्मा तो परमात्मा है, आपकी शक्ति बढ़ जायेगी और लोफरों से चित्त लगाया तो आपकी शक्ति कम हो जायेगी।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, चिंता, शोक ये लोफर हैं, आने जाने वाले हैं लेकिन आप सदा रहने वाले हैं। तो आप शुद्ध हैं ये अशुद्ध हैं, आप नित्य हैं ये अनित्य हैं। नित्य नित्य से प्रीति करे। बेईमानी अनित्य है, आत्मा नित्य है। तो बेईमानी करके आत्मा के ऊपर पर्दा क्यों डालें !

सत्य समान तप नहीं, झूठ समान नहीं पाप।

कपट-बेईमानी करके, विकारों को महत्त्व देकर जीव तुच्छ हो जाता है। सच्चाई से साधन-भजन करे। एकलव्य की नाईं गुरुमूर्ति या भगवान को एकटक देखते हुए कम से कम दस मिनट ‘हरि ॐ’ का लम्बा उच्चारण करे। फिर गुरुमंत्र का जप करते हुए त्रिबन्धयुक्त प्राणायाम करे तो तुच्छ से तुच्छ आदमी भी महान हो जायेगा। गुरु की प्रतिमा से प्रकाश आने लगता है, गुरु प्रकट हो जाते हैं। सपने में बातचीत होने लगती है, प्रेरणा देने लगते हैं। लोफरों से छुटकारा मिलने लगता है। अंतर्यात्रा शुरु हो जाती है, जीवन रसमय होने लगता है। साधक का हृदय प्रभु के प्रसाद से, आत्मबल से सम्पन्न हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 207

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ