Monthly Archives: May 2010

संत सेवा का फल


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

तैलंग स्वामी बड़े उच्चकोटि के संत थे। वे 260 साल तक धरती पर रहे। रामकृष्ण परमहंस ने उनके काशी में दर्शन किये तो बोलेः “साक्षात् विश्वनाथ जी इनके शरीर में निवास करते हैं।” उन्होंने तैलंग स्वामी को ‘काशी के सचल विश्वनाथ’ नाम से प्रचारित किया।

तैलंग स्वामी का जन्म दक्षिण भारत के विजना जिले के होलिया ग्राम में हुआ था। बचपन में उनका नाम शिवराम था। शिवराम का मन अन्य बच्चों की तरह खेलकूद में नहीं लगता था। जब अन्य बच्चों की तरह खेलकूद में नहीं लगता था। जब अन्य बच्चे खेल रहे होते तो वे मन्दिर के प्रांगण में अकेले चुपचाप बैठकर एकटक आकाश की ओर या शिवलिंग को निहारते रहते। कभी किसी वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे ही समाधिस्थ हो जाते। लड़के का रंग-ढंग देखकर माता-पिता को चिंता हुई कि कही यह साधु बन गया तो ! उन्होंने उनका विवाह कराने का मन बना लिया। शिवराम को जब इस बात का पता चला तो वे माँ से बोलेः “माँ ! मैं विवाह नहीं करूँगा, मैं तो साधु बनूँगा। अपने आत्मा की, परमेश्वर की सत्ता का ज्ञान पाऊँगा, सामर्थ्य पाऊँगा।” माता-पिता के अति आग्रह करने पर वे बोलेः “अगर आप लोग मुझे तंग करोगे तो फिर कभी मेरा मुँह नहीं देख सकोगे।”

माँ ने कहाः “बेटा ! मैंने बहुत परिश्रम करके, कितने-कितने संतों की सेवा करके तुझे पाया है। मेरे लाल ! जब तक मैं जिन्दा रहूँ तब तक तो मेरे साथ रहो, मैं मर जाऊँ फिर तुम साधु हो जाना। पर इस बात का पता जरूर लगाना कि संत के दर्शन और उसकी सेवा का क्या फल होता है।”

“माँ ! मैं वचन देता हूँ।”

कुछ समय बाद माँ तो चली गयी भगवान के धाम और वे बन गये साधु। काशी में आकर बड़े-बड़े विद्वानों, संतों से सम्पर्क किया। कई ब्राह्मणों, साधु-संतों से प्रश्न पूछा लेकिन किसी ने ठोस उत्तर नहीं दिया कि संत-सान्निध्य और संत-सेवा का यह-यह फल होता है। यह तो जरूर बताया किः

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।

परंतु यह पता नहीं चला कि पूरा फल क्या होता है। इन्होंने सोचा, ‘अब क्या करें ?’

किसी साधु ने कहाः “बंगाल में बर्दवान जिले की कटवा नगरी में गंगा जी के तट पर उद्दारणपुर नाम का एक महाश्मशान है, वही रघुनाथ भट्टाचार्य स्मृति ग्रंथ लिख रहे हैं। उनकी स्मृति बहुत तेज है। वे तुम्हारे प्रश्न का जवाब दे सकते हैं।”

अब कहाँ तो काशी और कहाँ बंगाल, फिर भी उधर गये। रघुनाथ भट्टाचार्य ने कहाः “भाई ! सतं के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है, यह मैं नहीं बता सकता। हाँ, उसे जानने का उपाय बताता हूँ। तुम नर्मदा किनारे चले जाओ और सात दिन तक मार्कण्डेय चण्डी का सम्पुट करो। सम्पुट खत्म होने से पहले तुम्हारे समक्ष एक महापुरुष और भैरवी उपस्थित होगी वे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं।”

शिवराम जी वहाँ से नर्मदा किनारे पहुँचे और अनुष्ठान में लग गये। देखो, भूख होती है तो आदमी परिश्रम करता है और परिश्रम के बाद जो मिलता है न, वह पचता है। अब आप लोगों को ब्रह्मज्ञान की तो भूख है नहीं, ईश्वरप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना नहीं है तो कितना सत्संग मिलता है, उससे पुण्य तो हो रहा है, फायदा तो हो रहा है लेकिन साक्षात्कार की ऊँचाई नहीं आती। हमको भूख थी तो मिल गया गुरु जी का प्रसाद।

अनुष्ठान का पाँचवा दिन हुआ तो भैरवी के साथ एक महापुरुष प्रकट  हुए। बोलेः “क्या चाहते हो ?” शिवरामजी प्रणाम करके बोलेः “प्रभु ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि संत के दर्शन, सान्निध्य और सेवा का क्या फल होता है ?”

महापुरुष बोलेः “भाई ! यह तो मैं नहीं बता सकता हूँ।”

देखो, यह हिन्दू धर्म की कितनी सच्चाई है ! हिन्दू धर्म में निष्ठा रखने वाला कोई भी गप्प नहीं कि ऐसा है, ऐसा है। काशी में अनेक विद्वान थे, कोई गप्प मार देता ! लेकिन नहीं, सनातन धर्म में सत्य की महिमा है। आता है तो बोलो, नहीं आता तो नहीं बोलो। शिवस्वरूप महापुरुष बोलेः “भैरवी ! तुम्हारे झोले मे जो तीन गोलियाँ पड़ी हैं, वे इनको दे दो।”

फिर वे शिवरामजी को बोलेः “इस नगर के राजा के यहाँ सन्तान नहीं है। वह इलाज कर-करके थक गया है। ये तीन गोलियाँ उस राजा की रानी को खिलाने से उसको एक बेटा होगा, भले उसके प्रारब्ध में नहीं है। वही नवजात शिशु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देगा।”

शिवराम जी वे तीन गोलियाँ लेकर चले। नर्मदा-किनारे जंगल में, आँधी-तूफानों के बीच पेड़ के नीचे सात दिन के उपवास, अनुष्ठान से शिवराम जी का शरीर कमजोर पड़ गया था। रास्ते में किसी बनिया की दुकान से कुछ भोजन किया और एक पेड़ के नीचे आराम करने लगे। इतने में एक घसियारा आया। उसने घास का बंडल एक ओर रखा। शिवरामजी को प्रणाम किया, बोलाः “आज की रात्रि यहीं विश्राम करके मैं कल सुबह बाजार में जाऊँगा।”

शिवरामजी बोलेः “हाँ, ठीक है बेटा ! अभी तू जरा पैर दबा दे।”

वह पैर दबाने लगा और शिवरामजी को नींद  आ गयी तो वे सो गये। घसियारा आधी रात तक उनके पैर दबाता रहा और फिर सो गया। सुबह हुई, शिवरामजी उसे पुकारा तो देखा कि वह तो मर गया है। अब उससे सेवा ली है तो उसका अंतिम संस्कार तो करना पड़ेगा। दुकान से लकड़ी आदि लाकर नर्मदा के पावन तट पर उसका क्रियाकर्म कर दिया और नगर में जा पहुँचे।

राजा को संदेश भेजा कि ‘मेरे पास दैवी औषधि है, जिसे खिलाने से रानी को पुत्र होगा।’

राजा ने इन्कार कर दिया कि “मैं रानी को पहले ही बहुत सारी औषधियाँ खिलाकर देख चुका हूँ परंतु कोई सफलता नहीं मिली।”

शिवरामजी ने मंत्री से कहाः “राजा को बोलो जब तक संतान नहीं होगी, तब तक मैं तुम्हारे राजमहल के पास ही रहूँगा।” तब राजा ने शिवरामजी से औषधि ले ली।

शिवराम जी ने कहाः “मेरी एक शर्त है कि पुत्र जन्म लेते ही तुरंत नहला धुलाकर मेरे सामने लाया जाय। मुझे उससे बातचीत करनी है, इसीलिए मैं इतनी मेहनत करके आया हूँ।”

यह बात मंत्री ने राजा को बतायी तो राजा आश्चर्य से बोलाः “नवजात बालक बातचीत करेगा ! चलो देखते हैं।”

रानी को वे गोलियाँ खिला दीं। दस महीने बाद बालक का जन्म हुआ। जन्म के बाद बालक को स्नान आदि कराया तो वह बच्चा आसन लगाकर ज्ञान मुद्रा में बैठ गया। राजा की तो खुशी का ठिकाना न रहा, रानी गदगद हो गयी कि “यह कैसा बबलू है कि पैदा होते ही ॐऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ करने लगा ! ऐसा तो कभी देखा-सुना नहीं।”

सभी लोग चकित हो गये। शिवरामजी के पास खबर पहुँची। वे आये, उन्हें भी महसूस हुआ कि ‘हाँ, अनुष्ठान का चमत्कार तो है !’ वे बालक को देखकर प्रसन्न हुए, बोलेः “बालक ! मैं तुमसे एक सवाल पूछने आया हूँ कि संत सान्निध्य और संत सेवा का क्या फल होता है ?”

नवजात शिशु बोलाः ‘महाराज ! मैं तो एक गरीब, लाचार, मोहताज घसियारा था। आपकी थोड़ी सी सेवा की और उसका फल देखिये, मैंने अभी राजपुत्र होकर जन्म लिया है और पिछले जन्म की बातें सुना रहा हूँ। इसके आगे और क्या-क्या फल होगा, इतना तो मैं नहीं जानता हूँ।”

ब्रह्म का ज्ञान पाने वाले, ब्रह्म की निष्ठा में रहने वाले महापुरुष बहुत ऊँचे होते हैं परंतु उनसे भी कोई विलक्षण होते हैं कि जो ब्रह्मरस पाया है वह फिर छलकाते भी रहते हैं। ऐसे महापुरुषों के दर्शन, सान्निध्य व सेवा की महिमा तो वह घसियारे से राजपुत्र बना नवजात बबलू बोलने लग गया, फिर भी उनकी महिमा का पूरा वर्णन नहीं कर पाया तो मैं कैसे कर सकता हूँ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 12,12,14 अंक 209

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अमृत प्रजापति हुआ बेनकाब, अपने ही मुँह से उगले राज


कुप्रचारकों, निंदकों की खुल गयी पोल

शातिर दिमाग के कुछ स्वार्थी, उपद्रवी लोगों ने मीडिया में आश्रम के बारे में झूठी अफवाहें, बेसिर पैर की बातें, अनर्गल आरोप लगा के आश्रम को बदनाम व समाज को गुमराह करने में एड़ी-चोटी एक कर दी। नदी में दो बच्चों की आकस्मिक मृत्यु के संदर्भ में जुलाई 2008 से जाँच कर रहे न्यायाधीश श्री डी.के. त्रिवेदी आयोग के सामने भी उन्होंने बनावटी किस्से कहानियाँ बनाकर आश्रम पर मनगढंत आरोप लगाये। उनके बयानों की जाँच करने के लिए गुजरात उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री बी.एम. गुप्ता ने उन्हें आयोग के समक्ष दुबारा बुलवाया और उनसे विशेष पूछताछ की। इसमें इन कुप्रचारकों ने खुद के द्वारा लगाये गये आरोपों की पोल स्वयं अपने ही मुँह से उगली तथा वास्तविकता को स्वीकार किया।

आश्रम से निकाले गये वैद्य अमृत गुलाबचंद प्रजापति ने मीडिया में आरोप लगाया था कि आश्रम में तंत्रविद्या होती है। 13.3.2010 को छः घंटे तक चली विशेष पूछताछ में इसने स्वीकार करते हुए कहाः “मुझे तांत्रिक विधि के बारे में कोई जानकारी नहीं है। तंत्रविद्या क्या है ? तंत्रविद्या किस प्रकार होती है ? इस बारे में मैंने कोई जाँच नहीं की है। मैं जितना समय आसारामजी के आश्रम में रहा हूँ, वहाँ मैंने तंत्रविद्या होते हुए देखा नहीं है। यह बात सत्य है कि मैंने जब से आश्रम छोड़ा तब से ही तांत्रिक विधि की बात कही है।

दीपेश व अभिषेक की मृत्यु की घटना के विषय में मुझे कोई भी व्यक्तिगत जानकारी नहीं है।”

8 अगस्त 2008 को एक फैक्स के माध्यम से पूज्य बापू जी को जान से मारने की धमकी दी गयी थी तथा बापू जी से 50 करोड़ रूपये की फिरौती माँगी गयी थी। एक सप्ताह में फिरौती ने देने पर पूज्य बापू जी व नारायण साँई को तंत्रविद्या के जमीनों के, लड़कियों के तथा अन्य फर्जी केसों में फँसाने की धमकी दी गयी थी। इस फैक्स के संदर्भ में अमृत वैद्य ने स्वीकार किया कि “इसमें जो मोबाईल नम्बर और लैंडलाइन नम्बर लिखे है, वे मेरे ही हैं। इस फैक्स में जो नाम लिखे हैं – दिनेश भागचंदानी-अहमदाबाद, शेखर-दिल्ली, महेन्द्र चावला-पानीपत, राजू चांडक-साबरमती, शकील अहमद तथा के.पटेल – इनको मैं पहचानता हूँ।”

इस फैक्स के अनुसार फिरौती न मिलने पर पूर्व-योजना के अनुसार अमृत प्रजापति ने सप्ताह भर में ही एक बुरकेवाली औरत को मीडिया के सामने पेश कर बापूजी पर झूठे आरोप लगवाने का नीच कर्म किया था। इस बारे में प्रश्न पूछे जाने पर उसने असलियत स्वीकार करते हुए कहाः “मैंने व मेरी पत्नी ने पत्रकारों को बापू के खिलाफ बयान दिये हैं। इस हेतु मैंने मेरी पत्नी को स्वयं अपने हाथों से बुरका पहनाया और पत्रकारों के सामने पेश किया। पत्रकारों के द्वारा उसका फोटो लिया गया। मेरी पत्नी दिल्ली की है, उसका नाम सरोज है।”

17.10.2008 को सूरत के रांदेर पुलिस थाने में भी उसने उपरोक्त बात स्वीकार की थी। जबकि बुरकेवाली को मीडिया के समक्ष पेश करते समय कपटमूर्ति अमृत ने झूठ बोला था कि “यह पंजाब से आयी है व मैं इसे नहीं जानता हूँ।”

नवम्बर 2008 में पूज्य बापू जी के बड़ौदा सत्संग-कार्यक्रम में विघ्न डालने की नाकाम कोशिश करने वाले सत्संगविरोधी अमृत  वैद्य ने पूछताछ में स्वीकार कियाः “यह बात सत्य है कि जब बड़ौदा में आसारामजी के सत्संग-कार्यक्रम की तारीख निश्चित हुई, तब मैंने उसका विरोध किया और इसी से पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया।”

अमृत ने यह भी कबूल किया कि 20.8.2008 को वह तथा राजू चांडक (राजू लम्बू) अहमदाबाद में बिजलीघर के पास एक गेस्ट हाऊस में काले कपड़े, काले जादूवाले तथाकथित ‘औधड़’ ठग सुखाराम व राजू चांडक से फोन पर अनेकों बार बातचीत भी हुई थी। राजू चांडक ने स्टिंग ऑपरेशन में स्वीकार किया था कि 40 हजार रूपये, शराब की बोतलें एवं कुकर्म के लिए बाजारू लड़कियाँ देकर बापू पर आरोप लगाने के लिए हमने ठग सुखाराम को खरीदा था। इन तीनों की गोपनीय गोष्ठी के पाँच दिन बाद ही 26.8.2008 को ठग सुखाराम ने पूज्य बापूजी पर आरोप लगाये थे।

अमृत वैद्य को आश्रम से निकालते समय (दिनांक 9.2.2005) की एक वीडियो सी.डी.जाँच आयोग के समक्ष प्रस्तुत की गयी। सी.डी. में अमृत वैद्य ने उसके द्वारा आश्रम के नियमों को भंग किये जाने की बात स्वयं ही कबूल की थी। अमृत वैद्य ने साधुताई के कपड़े उतारकर पैंट-शर्ट स्वयं अपने हाथों से पहने थे। सी.डी. देखकर चकित हुए न्यायाधीश श्री डी.के. त्रिवेदी ने जब अमृत से पूछा कि “क्या यह तुम ही हो ?तो अमृत ने लज्जित होते हुए गर्दन झुकाकर जवाब दियाः “हाँ साहब ! यह मैं ही हूँ।” अंत में सच का सामना करते हुए मजबूर, दुष्कर्मी अमृत ने स्वीकार कियाः “यह सी.डी. मैंने अभी देखी। मुझे आश्रम से निकाल दिया गया था यह हकीकत है, सत्य है।”

उल्लेखनीय है कि बड़ौदा में पी.एच.डी. कर रहा एक नवयुवक हरिकृष्ण ठक्कर अप्रैल 2009 में इस अमृत वैद्य की लापरवाही व गलत इलाज से मर गया बेचारा ! अमृत वैद्य आखिर विष वैद्य साबित हुआ ! अपनी नेम प्लेट पर बिना प्रमाणपत्र के ही ‘एम.डी.’ लिखकर लोगों को ठगने वाले इस वैद्य ने पत्रकारों के समक्ष स्वयं माना कि उसने किसी भी विश्वविद्यालय से एम.डी. नहीं की है। अपने को चरक (प्रसिद्ध आयुर्वैदिक दवा कम्पनी) का मान्यताप्राप्त कन्सलटैन्ट बताकर लोगों से पैसे ऐंठने वाले अमृत के बारे में चरक कम्पनी के प्रबंधक ने पत्रकारों को बताया कि अमृत प्रजापति को हम बहुत पहले ही निकाल चुके हैं। हमारी कम्पनी का उससे किसी प्रकार का कोई भी संबंध नहीं है।

आखिर धूर्त अमृत वैद्य का सच सामने आ ही गया। ऐसे कुप्रचार सच्चाई सामने आने पर अब चौतरफा बरस रही लानत के पात्र बन रहे हैं। खबरें और भी हैं। अन्य षडयन्त्रकारियों के काले कारनामों की पोल खुलेगी आगामी अंकों में क्रमशः।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 209

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जिसने सब दिया उसके लिये क्या किया ?


(पूज्य बापू जी का पावन अमृतवाणी)

मनुष्य जब माँ के गर्भ में होता है तो प्रार्थना करता है कि ‘हे प्रभु ! तू मुझे इस दुःखद स्थिति से बाहर निकाल ले, मैं तेरा भजन करूँगा। वक्त व्यर्थ नहीं बिताऊँगा, तेरा भजन करके अपना जीवन सार्थक करूँगा।’ यह वादा करके गर्भ से बाहर आता है। बाहर आते ही अपना वादा भूल जाता है और भगवान का भजन न करके सांसारिक कार्यों में इतना तो उलझ जाता है कि जिस प्रभु ने सब दिया, उसके सुमिरन के लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता। इसी बात की याद दिलाते हुए संत कबीर जी ने कहा हैः

कबीर वा दिन याद कर, पग ऊपर तल सीस।

मृत मंडल में आयके, बिसरि गया जगदीस।।

क्या आपने कभी सोचा है कि हमने माँ के गर्भ से जन्म लिया, माँ दाल-रोटी खाती है सब्जी रोटी खाती है उसमें से हमारे लिए जिसने दूध बनाया, उसको हमने क्या दिया ? जिसने रहने को धरती दी और धरती से अन्न दे रहा है, उसका हमने बदला क्या चुकाया ? चौबीसों घण्टे जो हमारे प्राण चलाने के लिए वायु दे रहा है, उसके बदले में हमने क्या दिया ? जिस धरती पर हम रहते हैं, उसी पर गंदगी छोड़ते हैं, साफ पानी पीते हैं, गंदा करके निकालते रहते हैं, फिर भी जो शुद्ध पानी दिये जा रहा है उसको हमने बदले में क्या दिया ? जरा-सी लाइट जलाते हैं तो बिजली का बिल भरना पड़ता है, नहीं तो कनेक्शन कट जाता है। जिसके सूर्य की लाइट, चन्द्रमा की लाइट जन्म से लेकर अभी तको ले रहे हैं, उसे बदले में हमने क्या दिया ?

कुम्हार ईंट बनाता है लेकिन ईंट बनाने की सामग्री – मिट्टी, पानी, अग्नि कुम्हार ने नहीं बनायी। अग्नि, मिट्टी, पानी भी भगवान का, जिस धरती पर ईंट बनायी वह भी भगवान की और जिन हाथों से बनायी उनमें भी शक्ति भगवान की, फिर भी कुम्हार से ईंट लेते हो तो उसका पैसा देना पड़ता है। जरा सा दूध लेते हो तो पैसा देना पड़ता है। जिसकी घास है और गाय, भैंस आदि में जो दूध बनाता है, उस परमात्मा की करूणा, प्राणिमात्र के लिए सुहृदता कैसी सुखद है ! कैसा दयालु, कृपालु, हितैषी है वह !!

….तो जिसकी मिट्टी है, अग्नि है, पानी है, जो हमारे दिल की धड़कनें चला रहा है, आँखों को देखने की, कानों को सुनने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की शक्ति दे रहा है, निर्णय बदल जाते हैं फिर भी जो बदले हुए निर्णय को जानने का ज्ञान दे रहा है, वह परमात्मा हमारा है। मरने के बाद भी वह हमारे साथ रहता है, उसके लिए हमने क्या किया ? उसको हम कुछ नहीं दे सकते ? प्रीतिपूर्वक स्मरण करते करते प्रेममय नहीं हो सकते ? बेवफा, गुणचोर होने के बदले शुक्रगुजारी और स्नेहपूर्वक स्मरण क्या अधिक कल्याणकारी नहीं होगा ? हे बेवकूफ मानव ! हे गुणचोर मनवा !! सो क्यों बिसारा जिसने सब दिया ? जिसने गर्भ में रक्षा की, सब कुछ दिया, सब कुछ किया, भर जा धन्यवाद से, अहोभाव से उसके प्रीतिपूर्वक स्मरण में !

जिसका तू बंदा उसी का सँवारा।

दुनिया की लालच से साहिब बिसारा।।

न कीन्हीं इबादत न राखा ईमान।

न कीन्हीं बंदगी न लिया प्रभु का नाम।।

शर्मिंदा हो न कछु नेकी कमायी।

लानत का जामा पहना न जायी।।

करेगा जो गफलत तो खायेगा लात।

बेटी और बेटा रहेगा न साथ।।

दुनिया का दीवाना कहे मुल्क मेरा।

आयी मौत सिर पर न तेरा न मेरा।।

तो लग जाओ लाला ! लालियाँ !! भगवान के द्वार जब जाओगे तब पूछा जायेगा कि भजन करने का वादा करके गया था, क्या करके आया ? इतना-इतना जल, इतनी पृथ्वी, इतना माँ का दूध, इतनी वायु, इतना भोजन आदि सब कुछ मिला, बदले में तूने कितना भजन किया ? संतों का कितना संग किया, कितना सत्संग सुना ? संतों द्वारा बताये मार्ग पर कितना चला और दूसरों को चलने में कितनी मदद की ? भगवन्नाम का कितना जप-कीर्तन किया और दूसरे कितनों को इसकी महिमा बताकर जप-कीर्तन में लगाया ? गीता के ज्ञान से, संतों के अनुभव से सम्पन्न सत्साहित्य को कितनों तक पहुँचाया ? तो क्या जवाब दोगे ?

पैसा तो तुमने कमाया लेकिन भगवान भूख नहीं देते तो कैसे खाते ? भूख ईश्वर की चीज है। खाना तो तुमने खाया परंतु पचाने की शक्ति, भोजन में से खून बनाने की शक्ति ईश्वर की है। सोचो, बदले में तुमने ईश्वर को क्या दिया ?

कम-से-कम सुबह उठते समय, रात्रि को सोते समय प्रीतिपूर्वक भगवान से कह दोः ‘हे प्रभो ! आपको प्रणाम है। आप हमारे हैं। हे दाता ! कृपा करो, हमें अपनी प्रीति दो, भक्ति दो। हे प्रभो ! आपकी जय हो। हम आपके सूर्य का, हवा का, धरती का, जल का फायदा लेते हैं और धन्यवाद भी नहीं देते, फिर भी आप देते जाते हो। हे दाता ! यह आपकी दया है। प्रभु ! आपकी जय हो !’

प्रभु को बोलोः ‘प्रभु ! आप हमारे हो। हम चाहे आपको जाने चाहे न जानें, मानें चाहे नहीं माने फिर भी आप हमारी रक्षा करते हो। आप हमको सदबुद्धि देते हो। दुःख देकर संसार की आसक्ति मिटाते हो और सुख देकर संसार में सेवा का भाव सिखाते हो। अब तो हम आपकी भक्ति करेंगे।’

इस प्रकार भगवान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते-करते भक्ति का रंग लग जायेगा। आपके दोनों हाथों में लड्डू हो जायेंगे, एक तो कृतघ्नता के दोष से बच जाओगे, दूसरा भगवान की भक्ति मिल जायेगी। भगवान की भक्ति मिली तो सब मिल गया।

अरे, व्यवहार में एक गिलास पानी देने वाले को भी धन्यवाद देते हैं तो जो सब कुछ दे रहा है, उसके प्रति यदि हम कृतज्ञ नहीं होंगे तो हम गुणचोर कहे जायेंगे। ‘रामायण’ में आता हैः

बड़ें भाग मानुष तनु पावा।

सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

‘बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है।’ (श्रीरामचरित. उ.कां. 42.4)

ऐसा अनुभव मानव-तन पाकर भगवान की भक्ति नहीं की तो क्या किया आपने ?

कथा-कीर्तन जा घर नहीं, संत नहीं मेहमान।

वा घर जमड़ा डेरा दीन्हा, सांझ पड़े समशान।।

जिस गाँव में पिछले पाँच-पचीस वर्षों से कथा कीर्तन, ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का सत्संग नही हुआ हो, उनका साहित्य नहीं पहुँचा हो उस गाँव के लोग पिशाचों जैसे खड़े-खड़े खाते हैं, खड़े-खड़े पीते है, लड़ते-झगड़ते हैं, टोना-टोटका करते हैं, भूत-पिशाच को मानते हैं, सट्टा, जुआ, शराब-कबाब में तबाह होते हैं, भगवान को भूलकर, मानव जीवन के उद्देश्य को भूलकर परेशान होते रहते हैं। जिन गाँवों में सत्संग नहीं होता, उन गाँवों के लोगों को इतनी अक्ल भी नहीं रहती कि हम बेवफा हो रहे हैं।

इसलिए हर घर में प्रतिदिन सत्संग, जप, ध्यान, सत्शास्त्रों का पठन, कथा-कीर्तन होना ही चाहिए।

कथा-कीर्तन जा घर भयो, संत भये मेहमान।

वा घर प्रभु वासा कीन्हा, वो घर वैकुंठ समान।।

जो लोग भगवान के नाम की दीक्षा लेते हैं, भगवान के नाम का जप, और ध्यान करते हैं, वे तो देर सवेर भगवान के चिंतन से भगवान के धाम में, स्वर्ग में अथवा ब्रह्मलोक में जाते हैं और जो उनसे भी तीव्र हैं वे तो यहीं ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं। अतः आप आज से ही कोई-न-कोई पवित्र संकल्प कर लें कि ‘जिस प्रभु ने हमको सब कुछ दिया उसकी प्रीति के लिए, उसको पाने के लिए सत्संग अवश्य सुनूँगा और कम-से-कम इतनी माला तो अवश्य ही करूँगा, प्रभु के चिन्तन में इतनी देर मौन रहूँगा, इतनी देर सेवाकार्य करूँगा। प्रभु के हर विधान को मंगलमय समझकर हर व्यक्ति-वस्तु परिस्थिति में उनका दीदार करूँगा।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 2,3,7 अंक 209

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