Monthly Archives: May 2010

सुख का विज्ञान


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

प्राणिमात्र का एक ही उद्देश्य है कि हम सदा सुखी रहें, कभी दुःखी न हों। सुबह से शाम तक और जीवन से मौत तक प्राणी यही करता है – दुःख को हटाना और सुख को थामना। धन कमाते हैं तो भी सुख के लिए, धन खर्च करते हैं तो भी सुख के लिए। शादी करते हैं तो भी सुख के लिए और पत्नी को मायके भेजते हैं तो भी सुख के लिए। पत्नी के लिए हीरे जवाहरात ले आते हैं तो भी सुख के लिए और तलाक दे देते हैं तो भी सुख के लिए। प्राणिमात्र जो भी चेष्टा करता है वह सुख के लिए ही करता है, फिर भी देखा जाय तो आदमी दुःखी का दुःखी है क्योंकि जहाँ सुख है वहाँ उसने खोज नहीं की।

यदि किसी को कहें- भगवान करे दो दिन के लिए आप सुखी हो जाओ, फिर मुसीबत आये। तो वह व्यक्ति कहेगाः “अरे भैया ! ऐसा न कहिये।”

‘अच्छा, दस साल के लिए आप सुखी हो जाओ, बाद में कष्ट आये।’

‘नहीं, नहीं….।’

‘जियो तब तक सुखी रहो, बाद में नरक मिले।’

‘न-न…. नहीं चाहते। दुःख नहीं सदा सुख चाहते हैं।’

तो उद्देश्य है सदा सुख का परंतु इच्छा है नश्वर से सुख लेने की, क्षणिक सुखों के पीछे भागने की इसलिए ठोकर खाते हैं।

क्षणिक सुखों की इच्छा क्यों होती है ? क्योंकि क्षण-क्षण में बदलने वाले जगत की सत्यता खोपड़ी में घुस गयी है। नश्वर जगत की सत्यता चित्त में ऐसी मजबूती से घुस गयी है, नश्वर जगत को, नश्वर संबंधों को, नश्वर परिस्थितियों को इतना सत्य मानते हैं कि सत्य को समझने की योग्यता ही गायब कर देते हैं।

वास्तव मे हमारा उद्देश्य तो है शाश्वत सुख किंतु इच्छा होती है नश्वर सुख की, नश्वर वस्तुओं की। तो उद्देश्य और इच्छा जब तक विपरीत रहेंगे तब तक जीवन में ‘सोऽहं’ का संगीत न गूँज पायेगा। उद्देश्य और इच्छा में जब तक फासला होगा, तब तक दो नाव में पैर रखने वालों की हालत से हम गुजरते रहेंगे, दुःखी होते रहेंगे।

आप सुखप्राप्ति चाहते हैं, सदा सुखी रहना चाहते हैं, जो स्वाभाविक है। तुम्हारा उद्देश्य जो है न, वह स्वाभाविक है और इच्छा जो वह अज्ञान से उठती है।

जैसे ठीक जानकारी न होने से, ठीक वस्तु का बोध न होने से आदमी गलत रास्ते चला जाता है। दूरबीन से नक्षत्रों या चाँद को देखना हो और काँच साफ न हो तो ठीक से नहीं दिखता, ऐसे ही ठीक बोध न होने से, ठीक समझ न होने से ज्ञान की नजर खुलती नही। और जब तक ज्ञान की नजर खुलती नहीं तब तक सुख-दुःख सब हमारी उन्नति के लिए आते हैं, ऐसा दिखता नहीं।

ठीक देखने क लिए ठीक अंतःकरण चाहिए और ठीक अंतःकरण के लिए उच्च विवेक चाहिए।

संत तुलसी दास ने कहाः

बिन सतसंग विवेक न होई।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

भगवान की कृपा से ही ऐसे विवेक के रास्ते मनुष्य चलता है और उसकी अनात्मा की आसक्ति धीरे-धीरे मिटती जाती है तथा आत्मा का ज्ञान, प्रीति, विश्रांति, आत्मतृप्ति, परमात्मतृप्ति की तरफ चलती रहती है।

आत्मतृप्तमानवस्य कार्यं न विद्यते।

विकारों की तरफ फिसले नहीं तो जल्दी से पूर्ण स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है। शिवजी कहते हैं-

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।

ताहि भजनु तजि भाव न आना।।

श्रीरामचरित. सुं.कां.33.2

उस आत्मानंद का रस पाकर फिर वह विकारी रस में आसक्त नहीं होता यही जीवन्मुक्ति है, जीते जी मुक्ति ! दुःखों से, आकर्षणों से, प्रशंसा से, निंदा से मुक्त महापुरुष बन जाओ। अष्टावक्र जी कहते हैं- तस्य तुलना केन जायते ? ऐसे आत्मा-परमात्मा में जागे उस महापुरुष की तुलना किससे करोगे ? इंद्रदेव का सुख भी आत्मसुख के आगे तुच्छ हो जाता है।

‘अष्टावक्र गीता’ में आता हैः

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति।।

जिस पद को पाये बिना इंद्रादि देवता भी दीन हो जाते है, उस आत्मपद को पाकर आत्मारामी महापुरुष न यश से फूलते हैं न अपयश में दुःखी, चिंतित, परेशान होते हैं, ऐसा ब्रह्मस्वभाव का सुख है।

तैसा अंम्रितु1 तैसी बिखु2 खाटी।

तैसा मानु तैसा अभिमानु।

हरख सोग3 जा कै नही बैरी मीत समान।

कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान
1 अमृत, 2 विष, 3 हर्ष-शोक

ऐसा सत्संग का विवेक मुक्तात्मा, महात्मा बना देता है। क्षुद्र विषय-विकारी सुख से अपने को थोड़ा बचाते जाओ और निर्विकारी, शाश्वत सुख में बढ़ते जाओ, यही मनुष्य जीवन की उपलब्धि है। सदा रहने वाला सुख सदा रहने वाले अपने क्षेत्रज्ञ स्वरूप में ही है। पंचभौतिक शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार यह अष्टधा प्रकृति का क्षेत्र है। भगवान कहते हैं-

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।

(भगवदगीताः 7.4)

भगवान कृपा करके अपना स्वभाव बता रहे हैं कि मैं इनसे भिन्न हूँ, अतः आप भी इनसे भिन्न हैं। पंचभौतिक शरीर, मन, बुद्धि और अहंकार बदलते हैं, आप अबदल हैं। आप आत्मा हो, शाश्वत हो, शरीर के मरने  के बाद भी आपकी मृत्यु नहीं होती, आप अजर-अमर हो नारायण ! आप अपनी अमरता में जागो, टिको। शाश्वत सुख आपका अपना-आपा है।

सुख शांति का भण्डार है, आत्मा परम आनन्द है।

क्यों भूलता है आपको ? तुझमें न कोई द्वन्द्व है।।

भगवान हमारे परम सुहृद हैं। उन परम सुहृद के उपदेश को सुनकर अगर जीव भीतर, अपने स्वरूप में जाग जाय तो सुख और दुःख की चोटों से परे परमानन्द का अनुभव करके जीते-जी मुक्त हो जायेगा। जीव जब तक परम सुख नहीं पा लेता तब तक नश्वर सुख की चाह बनी रहती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 10,11, अंक 209

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सेक्स स्कैण्डल और पोप की सत्ता


पोप बेनेडिक्ट सोलहवें और कैथोलिक चर्च की दया, शाति और कल्याण की असलियत दुनिया के सामने उजागर हो ही गई। जब पोप बेनेडिक्ट सोलहवें और कैथोलिक चर्च का क्रूर-अनैतिक चेहरा सामने आया, तब ‘विशेषाधिकार’ का कवच उठाया गया।

कैथोलिक चर्च ने नई परिभाषा गढ़ दी कि उनके धर्मगुरु पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर न तो मुकदमा चल सकता है और न ही उनकी गिरफ्तारी संभव हो सकती है। इसलिए कि पोप बेनेडिक्ट न केवल ईसाइयों के धर्मगुरु हैं, बल्कि वेटिकन सिटी के राष्ट्राध्यक्ष भी हैं। एक राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की गिरफ्तारी हो ही नहीं सकती है। जबकि अमेरिका और यूरोप में कैथलिक चर्च और पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की गिरफ्तारी को लेकर जोरदार मुहिम चल रही है। न्यायालयों में दर्जनों मुकदमें दर्ज करा दिए गए हैं और न्यायालयों में उपस्थित होकर पोप बेनेडिक्ट सोलहवें को आरोपों का जवाब देने के लिए कहा जा रहा है।

यह सही है कि पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के पास वेटिकन सिटी के राष्ट्राध्यक्ष का कवच है। इसलिए वे न्यायालयों में उपस्थित होने या फिर पापों के परिणाम भुगतने से बच जाएंगे, लेकिन कैथोलिक चर्च और पोप की छवि तो धूल में मिली ही है। इसके अलावा चर्च में दया, शाति और कल्याण की भावना जागृत करने की जगह दुष्कर्मो की पाठशाला कायम हुई है, इसकी भी पोल खुल चुकी है।

चर्च पादरियों द्वारा यौन शोषण के शिकार बच्चों के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया गया और न ही यौन शोषण के आरोपी पादरियों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई है। इस पूरे घटनाक्रम को अमेरिका-यूरोप की मीडिया ने ‘वैटिकन सेक्स स्कैंडल’ का नाम दिया हैं।

कुछ दिन पूर्व ही पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने आयरलैंड में चर्च पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण के मामले प्रकाश में आने पर इस कुकृत्य के लिए माफी मागी थी।

पोप पर आरोप

पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर कोई सतही नहीं, बल्कि गंभीर और प्रमाणित आरोप हैं, जो उनकी एक धर्माचार्य और राष्ट्राध्यक्ष की छवि को तार-तार करते हैं।

अब सवाल यह है कि पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर आरोप हैं क्या? पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर दुष्कर्मी पादरियों को संरक्षण देने और उन्हें कानूनी प्रक्रिया से छुटकारा दिलाने के आरोप हैं। पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने कई पादरियों को यौन शोषण के अपराधों से बचाने जैसे कुकृत्य किए हैं, लेकिन सर्वाधिक अमानवीय, लोमहर्षक व चर्चित पादरी लारेंस मर्फी का प्रकरण है। लारेंस मर्फी 1990 के दशक में अमेरिका के एक कैथोलिक चर्च में पादरी थे। उस कैथलिक चर्च में अनाथ, विकलाग और मानसिक रूप से बीमार बच्चों के लिए एक आश्रम भी था।

पादरी लारेंस मर्फी पर 230 से अधिक बच्चों का यौन शोषण का आरोप है। सभी 230 बच्चे अपाहिज और मानसिक रूप से विकलाग थे। इनमें से अधिकतर बच्चे बहरे भी थे। मानिसक रूप से बीमार और अपाहिज बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न की धटना सामने आने पर अमेरिका में तहलका मच गया था। कैथोलिक चर्च की छवि के साथ ही साख पर संकट खड़ा हो गया था। कैथोलिक चर्च में विश्वास करने वाली आबादी इस घिनौने कृत्य से न केवल आक्रोशित थी, बल्कि कैथोलिक चर्च से उनका विश्वास भी डोल रहा था।

कैथोलिक चर्च को बच्चों के यौन उत्पीड़न पर संज्ञान लेना चाहिए था और सच्चाई उजागर कर आरोपित पादरी पर अपराधिक दंड संहिता चलाने में मदद करनी चाहिए थी, लेकिन कैथोलिक चर्च ने ऐसा किया नहीं। कैथोलिक चर्च को इसमें अमेरिकी सत्ता की सहायता मिली। विवाद के पाव लंबे होने से कैथलिक चर्च की नींद उड़ी और उसने आरोपित पादरी लारेंस मर्फी पर कार्रवाई के लिए वेटिकन सिटी और पोप को अग्रसारित किया था।

पोप बेनेडिक्ट सोलहवें का उस समय नाम कार्डिनल जोसेफ था और वैटिकन सिटी के उस विभाग के अध्यक्ष थे, जिनके पास पादरियों द्वारा बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न किए जाने की जाच का जिम्मा था। पोप बेनेडिक्ट ने पादरी लारेंस मर्फी को सजा दिलाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। बात इतनी भर थी नहीं। बात इससे आगे की थी। मामले को रफा-दफा करने की पूरी कोशिश हुई। लारेंस मर्फी को अमेरिकी काूननों के तहत गिरफ्तारी और दंड की सजा में रुकावटें डाली गई।

वेटिकन सिटी का कहना था कि पादरी लारेंस मर्फी भले आदमी हैं और उन पर दुर्भावनावश यौन शोषण के आरोप लगाए गए हैं। इसमें कैथोलिक चर्च विरोधी लोगों का हाथ है, जबकि मर्फी पर लगे आरोपों की जाच कैथोलिक चर्च के दो वरिष्ठ आर्चविशपों ने की थी। सिर्फ अमेरिका तक ही कैथोलिक चर्च में यौन शोषण का मामला चर्चा में नहीं है, बल्कि वैटिकन सिटी में भी यौन शोषण के कई किस्से चर्चे में रहे हैं।

पुरुष वेश्यावृति के मामले में भी वेटिकन सिटी घिरी हुई है। वैटिकन सिटी में पादरियों द्वारा पुरुष वैश्यावृति के राज पुलिस ने खोले थे। वेटिकन धार्मिक संगीत मंडली के मुख्य गायक टामस हीमेह और पोप बेनेडिक्ट के निजी सहायक एंजलो बालडोची पर पुरुष वैश्या के साथ संबंध बनाने के आरोप लगे थे।

दुष्कर्मी पादरी भारत में भी!

यौन शोषण के आरोपित पादरियों के नाम बदले गए। उन्हें अमेरिका-यूरोप से बाहर भेजकर छिपाया गया, तकि वे आपराधिक कानूनों के जद में आने से बच सकें। खासकर अफ्रीका और एशिया में ऐसे दर्जनों पादरियों को अमेरिका-यूरोप से निकालकर भेजा गया, जिन पर बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के आरोप थे। एक ऐसा ही पादरी भारत में कई सालों से रह रहा है। रेवरेंड जोसेफ फ्लानिवेल जयपाल नामक पादरी भारत में कार्यरत है। जयपाल पर एक चौदह वर्षीय किशोरी के साथ दुष्कर्म करने सहित ऐसे दो अन्य आरोप हैं। अमेरिका के एक चर्च में जयपाल ने वर्ष 2004 में एक अन्य ग्रामीण युवती के साथ बलात्कार किया था। वेटिकन और पोप की कृपा से जयपाल भाग कर भारत आ गया। इसलिए कि बलात्कार की सजा से छुटकारा पाया जा सके। अमेरिकी प्रशासन को जयपाल का अता-पता खोजने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। अमेरिकी प्रशासन के दबाव में वेटिकन ने जयपाल का पता जाहिर किया। वेटिकन ने मामला आगे बढ़ता देख जयपाल को कैथोलिक चर्च से बाहर निकालने की सिफारिश की थी, लेकिन भारत स्थित आर्चविशप परिषद ने जयपाल की बर्खास्ती रोक दी। अमेरिकी प्रशासन जयपाल के प्रत्यर्पण की कोशिश कर रहा है, क्योंकि अमेरिकी प्रशासन पर मानवाधिकारवादियों का भारी दबाव है, लेकिन जयपाल ने अमेरिका जाकर यौन अपराधों का सामना करने से इनकार कर दिया है।

कैथलिक चर्च के भारतीय आर्चविशपों द्वारा बलात्कारी पादरी जयपाल का संरक्षण देना क्या उचित ठहराया जा सकता है? क्या इसमें भारतीय आर्चविशपों की सरंक्षणवादी नीति की आलोचना नहीं होनी चाहिए। कथित तौर पर कुकुरमुत्ते की तरह फैले मानवाधिकार संगठनों के लिए भी जयपाल कोई मुद्दा क्यों नहीं बना?

रंग लाएगी जनता की मुहिम

अमेरिका-यूरोप में पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के इस्तीफे की माग जोर से उठ रही है। जगह-जगह प्रदर्शन भी हुए हैं। इंग्लैंड सहित अन्य यूरोपीय देशों में पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की यात्राओं में भारी विरोध हुआ है। अनैतिक कृत्य को संरक्षण देने के लिए पोप से इस्तीफा देकर पश्चाताप करने का जनमत तेजी से बन रहा है। पोप के खिलाफ जनमत की इच्छा शायद ही कामयाब होगी। पोप के इस्तीफे का कोई निश्चित संविधान नहीं है। पर इस्तीफे जुड़े कुछ तथ्य हैं, लेकिन ये स्पष्ट नहीं हैं। वर्ष 1943 में पोप पायस बारहवें ने एक लिखित संविधान बनाया था, जिसका मसौदा था कि अगर पोप का अपहरण नाजियों ने कर लिया तो माना जाना चाहिए कि पोप ने त्यागपत्र दे दिया है और नए पोप के चयन की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। अब तक न तो नाजियों और न ही किसी अन्य ने किसी पोप का अपहरण किया है। इसलिए पोप पायस बारहवें के सिद्धात को अमल में नहीं लाया जा सका है।

पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर यह निर्भर करता है कि वे त्यागपत्र देंगे या नहीं, पर वेटिकन सिटी की विभिन्न इकाइयों और विभिन्न देशों के कैथोलिक चर्च इकाइयों में अंदर ही अंदर आग धधक रही है। कैथोलिक चर्च की छवि बचाने के लिए कुर्बानी देने के सिद्धात पर जोर दिया जा रहा है। जर्मन रोमन चर्च ने भी पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।

जर्मन रोमन चर्च का कहना है कि वेटिकन सिटी और पोप बेनेडिक्ट ने यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चों और उनके परिजनो के लिए कुछ नहीं किया है। वेटिकन सिटी में भी यौन शोषण के शिकार बच्चों के परिजनों ने प्रदर्शन और प्रेसवार्ता कर पोप बेनेडिक्ट के आचरणों की निंदा करने के साथ ही साथ न्याय का सामना करने के लिए ललकारा है।

दलदल में कैथोलिक चर्च

आरएल फ्रांसिस। आजकल कैथोलिक धर्मासन पर विराजमान लोग गहन चिंतन में पड़े हुए हैं। उनकी चिंता का मुख्य कारण है वर्तमान चर्च के ‘पुरोहितों में व्याप्त यौनाचार’। पुरोहितों में यौन कुंठाओं के पनपते रहने से वे मानसिक रूप से चर्च की अनिवार्य सेवाओं से मुंह मोड़ने लगे हैं। इसका असर कैथोलिक विश्वासियों में बढ़ते आक्रोश के रूप में देखा जा सकता है। विश्वासियों द्वारा चर्च की मर्यादाओं को बरकरार रखने की माग बढ़ती जा रही है और इस आदोलन ने अंतरराष्ट्रीय स्वरूप हासिल कर लिया है। इस आदोलन में कैथोलिक युवा वर्ग अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

अमेरिका के रोमन कैथोलिक चर्च के छह करोड़ 30 लाख अनुयायी हैं यानी अमेरिका की कुल जनसंख्या का एक चौथाई भाग कैथोलिक अनुयायियों का है। साथ ही यहा के बिशपों एवं कार्डीनलों का वेटिकन [पोप] पर सबसे अधिक प्रभाव है। जब कभी नए पोप का चुनाव होता है तो यहा के कार्डीनलों के प्रभाव को साफ देखा जा सकता है। यहा के कैथोलिक विश्वासी चर्च अधिकारियों की कारगुजारियों के प्रति अधिक सचेत रहते हैं। वर्तमान समय में विश्वभर के कैथोलिक धर्माधिकारियों, पुरोहितों में तीन ‘डब्ल्यू’ यानी वैल्थ, वाइन एंड वूमेन का बोलबाला है। इस प्रकार का अनाचार कैथोलिक चर्च के अंदर लगातार घर कर रहा है।

चारों और से सेक्स स्कैंडलों में घिरते वेटिकन ने अपने बचाव के लिए अमेरिका की यहूदी लाबी और इस्लामिक संगठनों को अपने निशाने पर ले लिया है। अब यह प्रश्न भी उठने लगा है कि वेटिकन एक राज्य है या केवल उपासना पंथ का एक मुख्यालय? क्यों पोप को एक धार्मिक नेता के साथ-साथ राष्ट्राध्यक्ष का दर्जा दिया जाता है? क्यों वेटिकन संयुक्त राष्ट्र संघ में पर्यवेक्षक है? क्यों वेटिकन को दूसरे देशों में अपने राजदूत नियुक्त करने का अधिकार मिला है? क्यों वेटिकन किसी भी देश के कानून से ऊपर है?

अब समय आ गया है कि वेटिकन को अपने साम्राज्यवाद को रोककर आत्मशुद्धि की तरफ बढ़ना चाहिए। अतीत में की गई अपनी गलतियों को मानते हुए भविष्य में उसे न दोहराने का कार्य करना चाहिए। अपने को राष्ट्र की बजाय धार्मिक मामलों तक सीमित रखना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 25,26,27 अंक 209

https://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_6377257/

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सात्विक श्रद्धा की ओर


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

सत्तवानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।

‘हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसे श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है।’ (भगवदगीताः 17.3)

भगवान श्रीकृष्ण की जगत-उद्धारिणी वाणी भगवदगीता विश्ववंदनीय ग्रंथ है। भगवदगीता भगवान के हृदय के अनुभव की पोथी कही गयी है। सत्रहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान स्वयं कहते हैं- हे अर्जुन ! हे भारत !! ‘भा’ माना ज्ञान, ‘रत’ माना उसमें रमण करने वाले लोग जिस देश में रहते हैं, उसको भारत बोलते हैं। अर्जुन को भी यहाँ सम्बोधन दिया- ‘भारत !’ ज्ञान में रत रहने वाले अर्जुन ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा अंतःकरण के अनुरूप होती है।

मनुष्य चाहे बाहर से कैसा भी दिखे किंतु भीतर उसकी जैसी आस्था होती है, ऐसी मान्यता बनती है, ऐसे कर्म होते हैं। एक ही माँ बाप की संतानें भिन्न-भिन्न मान्यतावाली और भिन्न-भिन्न कर्म करती हुई दिखती हैं। एक ही पक्ष के लोगों का आचरण भी भिन्न-भिन्न मान्यता और भिन्न-भिन्न कर्मवाला देखा जा सकता है। एक ही धर्म, मजहब, पंथ के लोगों में भी अपनी-अपनी श्रद्धा, मान्यता के अनुसार कर्मों में भिन्नता दिखती है।

श्रद्धा वास्तव में शुद्धस्वरूप सच्चिदानन्द परमात्मा की वृत्ति है परंतु गुणों के मेल से इसके तीन विभाग हैं – सात्त्विक श्रद्धा, राजस श्रद्धा, तामस श्रद्धा।

जिनकी सात्त्विक श्रद्धा है उनके जीवन में सात्त्विक आहार, कर्म, शास्त्र व गुरु की पसंदगी होगी और सात्त्विकता का परम फल है कि उनके हृदय में परमात्मप्राप्ति की रूचि जागेगी, जागेगी और जागेगी ! उनमें सुख-दुःख और परिस्थितियों में सामान्य, निगुरे लोगों की अपेक्षा शांति और समता अधिक होगी।

यदि यक्षों में, किन्नरों में, गन्धर्वों में, धन कमाने में, सत्ता पाने में श्रद्धा है तो यह राजसी श्रद्धा है। वह मौका पाकर अपने स्वार्थ के लिए कभी किसी का कुछ भी करवा लेगी। अगर किसी की धर्म व भगवान में श्रद्धा है और वह राजसत्ता चाहता है तो उसके द्वारा हत्याएँ नहीं होंगी, दूसरे कुकर्म नहीं होंगे। जिसकी श्रद्धा तामसी और राजसी है, वह शराब भी पी लेगा, कबाब भी खा लेगा, पिटाई भी करवा देगा, झगड़े भी करवा देगा, हत्या भी करवा देगा, झगड़े भी करवा देगा, हत्या भी करवा लेगा और चाहेगा कि मेरे को मनचाहा मिलना चाहिए। ‘मैं लंकापति रावण हूँ… सीता-हरण हो जाये तो हो जाये परंतु मैं अपनी चाह पूरी करूँगा’ – यह राजसमिश्रित तामसी वृत्ति है।

रजस् में और तमस् में श्रद्धा सदा के लिए टिकेगी नहीं। राजसी श्रद्धावाला बुरे कर्म कर लेता है पर अंत में पछताता है – यह उसकी सात्त्विक वृत्ति है। अच्छा हुआ तो मैंने किया और गड़बड़ हुई तो ‘क्या करें भाई ! तुम्हारा मुकद्दर ऐसा था, भगवान की मर्जी है’ – यह राजसी व्यक्ति का स्वभाव है। सात्त्विक श्रद्धावाला दूर की सोचता है, दूर की जानता है। अच्छा हुआ तो बोलेगा, ‘भगवान की कृपा’ और कुछ घटिया हुआ तो कहेगा, ‘मेरी असावधानी, लापरवाही रही होगी अथवा तो भगवान मेरे किन्हीं पापकर्मों का फल भुगताकर मुझे शुद्ध करना चाहते होंगे। जो हुआ अच्छा हुआ।’

सात्त्विक श्रद्धावाला सफलता में और विफलता में भी भगवान को धन्यवाद देगा। राजसी श्रद्धावाला सफलता में छाती फुलायेगा और विफलता में अन्य लोगों को, भगवान को कोसेगा। तामसी श्रद्धावाला अपने को भी कोसेगा और सामने वाले का भी कुछ भी करके नुकसान कराये बिना उसे चैन नहीं पड़ेगा। है तो सभी में वह चैतन्य परंतु श्रद्धा के प्रकार और श्रद्धा में प्रतिशत की भिन्नता होने से व्यक्ति के स्वभाव में, मान्यता में, खुशियों में, गम में फर्क पड़ता है।

कोई राजसी श्रद्धा में जीता है और उसका कोई प्रिय व्यक्ति मर गया तो सिर पटकेगा, खूब रोयेगा और तामसी श्रद्धावाला तो आत्महत्या करने को भी उत्सुक हो जायेगा अथवा तो शराब आदि कुछ पी के पड़ा रहेगा। सात्त्विक वाला बोलेगाः “इसमें क्या बड़ी बात है !”

तामसी और राजसी श्रद्धावाला व्यक्ति तो सुख-दुःख की खाई में जा गिरता है परंतु सत्संगी और सात्त्विक श्रद्धावाला व्यक्ति तो सुख को भी स्वप्न समझता है, उसका बाँटकर उपयोग करता है, दुःख को भी स्वप्न समझता है और उसे पैरों तले कुचलकर आगे बढ़ जाता है।

न खुशी अच्छी है न मलाल अच्छा है।

प्रभु जिसमें रख दे वह हाल अच्छा है।।

हमारी न आरजू है र जुस्तजू है।

हम राजी हैं उसमें जिसमें तेरी रजा है।।

इस प्रकार सात्त्विक  श्रद्धा का धनी सुख-दुःख, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, जीवन-मृत्यु को ऊपर उठने का साधन बनाते-बनाते साध्य की तरफ आगे बढ़ता है, परमात्म-समता में, परमात्मा में स्थिति कर लेता है।

इस त्रिगुणमयी सृष्टि में जैसे श्रद्धा तीन प्रकार की है, ऐसे ही भोजन भी तीन प्रकार का है। जौ, गेहूँ, चावल, घी, दूध, सब्जियाँ आदि रसयुक्त, चिकना, स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसा आहार सात्त्विक श्रद्धावाले को प्रिय लगेगा। जिसको कड़वा, खट्टा, खारा, बहुत गरम, तीखा, रूखा, दाहकारक और दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाला आहार प्यारा लगता है वे राजसी श्रद्धा वाले हैं। जिसको अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, जूठा तथा अंडा, मांस, मदिरा आदि अपवित्र आहार लेने की, इधर-उधर का मिश्रित करके भी मौज करने की रूचि होगी, वह तामसी विचार का व्यक्ति माना जाता है।

देवर्षि नारदजी कहते हैं- श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्माः…. श्रद्धा सब धर्मों (शास्त्रविहित कर्मों) मूल में है। तामसी, राजसी, सात्त्विक किसी भी साधना-पद्धति में सफलता पाने के लिए श्रद्धा चाहिए। अरे ! रोजी-रोटी, नौकरी-धंधा और पढ़ाई-लिखाई में भी श्रद्धा चाहिए की ‘मैं पढूँगा, पास होऊँगा और आई.ए.एस. बनूँगा।’ ऐसी श्रद्धा करके चलते हैं तभी आई.ए.एस. पदवी तक पहुँचते हैं। हालांकि सभी आई.ए.एस. जिलाधीश नहीं बनते।

श्रद्धा के बिना कोई नहीं रह सकता। वास्तव में श्रद्धा तो भगवदरूपा है। वे लोग बिल्कुल धोखे में हैं जो बोलते हैं कि हमें श्रद्धा से कोई लेना देना नहीं है, हम भगवान को अल्लाह को नहीं मानते हैं। श्रद्धा सभी धर्मों-कर्मों में पहले होती है। चाहे राजसी धर्म-कर्म हो, चाहे तामसी हो, चाहे सात्त्विक हो, उसके मूल में श्रद्धारूपी इंजन होता है तभी आदमी प्रवृत्ति करता है। अब आपको पौरूष क्या करना है ? तामसी श्रद्धा का प्रभाव कम करके राजसी बना दो और राजसी श्रद्धा के प्रभाव को कम करके सात्त्विक बना दो। जब आप दृढ़ सात्त्विक श्रद्धा प्राप्त कर लेंगे तो ब्रह्मज्ञानी सदगुरु का आत्मप्रसाद पचाने में सक्षम बनेंगे और पूर्णता की ओर तीव्र गति से यात्रा करेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 209

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