Monthly Archives: July 2010

।।गूरूपूर्णिमा।।


गुरुदेव कह रहे हैं- “हे जीव ! हे वत्स ! अब तू तेरे निज शिव-स्वभाव की ओर जा। अब तू प्रगति कर। ऊपर उठ। कब तक प्रकृति, जन्म-मृत्यु और दुःखों की गुलामी करता रहेगा !

गुरुपूर्णिमा का यह उत्सव उत्थान के लिए आयोजित किया गया है। तू विलम्ब किये बिना इस उत्सव में आकर अत्यन्त आनंदपूर्वक भाग ले। आ जा…. आ जा…. तू तेरे अपने सिंहासन पर आकर बैठ जा। साधक कोई डरपोक सियार या गरीब बकरी नहीं है, साधक तो सिंह है सिंह ! आध्यात्मिक सत्संग में उमंगपूर्वक आने वाले साधक के लिए तो गुरु का हृदय ही सिंहासन है। उस सिंहासन पर तू आरूढ़ हो। तू अपनी महिमा में आ जा। तू आ जा अपने आत्मस्वभाव में….

वत्स ! तू तेरे उत्कृष्ट जीवन में ऊपर उठता जा। प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा। दृढ़ निश्चय कर कि अब अपना जीवन दिव्यता की तरफ लाऊँगा।”

दया के सागर, कृपासिंधु वेदव्यासजी को हम नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं। ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं को हम व्यास कहते हैं। उन्होंने मानव-जाति का परम हित करने के लिए ऐश-आराम, ऐन्द्रिक आकर्षण का, सबका त्याग करके जीवनदाता के साथ एकत्व साधा और जीवन के सभी पहलुओं को देख लिया। उन्होंने जीवन का उज्जवल पक्ष भी देखा और अंधकारमय पक्ष भी देखा। आसुरी भावों को भी देखा, सात्त्विक भावों को भी देखा और इन दोनों भावों को सत्ता देने वाले भावातीत, गुणातीत तत्त्व का भी साक्षात्कार किया। ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों से लाभ लेने का पर्व, उनके और निकट जाने का पर्व है गुरूपूर्णिमा।

दूसरे उत्सव तो हम मनाते हैं किंतु गुरूपूर्णिमा का पर्व हमारे उत्कर्ष के लिए मनाता है।

गुरूदेव कहते हैं- “हे बंधु ! हे साधक ! तू कब तक संसार के गंदे खेलों को खेलता रहेगा ! कब तक इन्द्रियों की गुलामी करता रहेगा ! कब तक तू इस संसार का बोझ वहन करता रहेगा ! कब तक अपने अनमोल जीवन को मेरे तेरे के कचरे में नष्ट करता रहेगा ! जाग… जाग…. जाग… अब तो जाग…. अहंकार को लगा दे आग और निजस्वरूप में जाग… लगा दे विषय-विकारों को आग और निजस्वरूप में जाग ! लगा दे जीवत्व को आग और शिवस्वरूप में जाग !

तू अभी जहाँ है वहीं से प्रगति कर। उठ, ऊपर उठ। जैसे वायुयान पृथ्वी को छोड़कर गगन में विहार करता है, ऐसे ही तू मन से देहाध्यास छोड़कर ब्रह्मानंद के विराट गगन में प्रवेश करता जा। ऊपर उठता जा। विशालता की तरफ आगे बढ़ता जा।

अरे ! कब तक इन जंजीरों में जकड़ा रहेगा ! जंजीर लोहे की हो या ताँबे की या फिर भले सोने की हो परंतु जंजीर तो जंजीर है। स्वतन्त्रता से वंचित रखने वाली पराधीनता की बेड़ी ही है।

हे वत्स ! दीन-हीन बनकर कब तक गुलामी की जंजीरी में जकड़ता रहेगा ! गुलाम को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। कल्पनाओं की जंजीरें खींचने से न टूटती हो तो ॐ की शक्तिशाली गदा मारकर इन्हें तोड़ डाल। ॐ….. ॐ…..

अब तक जन्म-मरण के चक्कर को काट डाल। चौरासी लाख शीर्षासनों की परम्परा को तोड़ दे। तुझमें असीम बल है, असीम शक्ति है, अनंत वेग है, असीम सामर्थ्य है। ॐ… ॐ…. ऊपर उठता जा, आगे बढ़ता जा।”

गुरुतत्त्व की प्रेरक सत्ता में निमग्न होने वाले साधक, सत्शिष्य के अंदर गुरुवाणी का गुंजन होने लगा। अंदर से गुरुवाणी का प्रकाश प्रकट होने लगा और गुरु ने प्रेरणा दी कि ‘हे वत्स ! तू जाग…. लगा दे अपने बंधनों को आग ! निजस्वरूप में जाग ! सब चिंताओं एवं शंकाओं को छोड़ दे। इसलिए तो तुझे यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है।

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।’

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।’

यह सचमुच में पावन उत्सव है, सुहावना उत्सव है, हमारे परम कल्याण का सामर्थ्य रखने वाला उत्सव है। अन्य देवी-देवताओं का पूजन करने के बाद भी कोई पूजा बाकी रह जाती है, किंतु उन आत्मारामी महापुरुष की पूजा के बाद फिर कोई पूजा बाकी नहीं रहती।

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय।।

दुनिया भर के काम करने के बाद भी कई काम करने बाकी रहे जाते हैं। सदियों तक भी वे पूरे नहीं होते। किंतु जो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा बताया गया काम उत्साह से करता है, उसके सब काम पूरे हो जाते हैं। शास्त्र कहते हैं-

स्नातं तेन सर्वं तीर्थदातं तेन सर्व दानम्।

कृतं तेन सर्व यज्ञं येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

जिसने एक क्षण के लिए भी ब्रह्मवेत्ताओं के अनुभव में अपने मन को लगा दिया, उसने समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया, सब दान दे दिये, सब यज्ञ कर लिये, सब पितरों का तर्पण कर लिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 2,5 अंक 211

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गुरु की आवश्यकता क्यों ?


बात दो टूक, पर है सच्ची !

स्वामी श्रीअखंडानंदजी सरस्वती

यूँ तो प्रत्येक ज्ञान में गुरु की अनिवार्य उपयोगिता है परंतु ब्रह्मज्ञान के लिए तो दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। गुरु के बिना उपासना-मार्ग के रहस्य मालूम नहीं होते और न उसकी अड़चनें दूर होती है। जो उपासना करना चाहता है, वह गुरु के बिना एक पग भी नहीं बढ़ सकता। गुरु के संतोष में ही शिष्य की पूर्णता है। एक दृष्टांत कहता हूँ – मेरे बचपन का एक मित्र था। हम दोनों वर्षों से मिले नहीं किंतु पत्र-व्यवहार चलता था। एक बार मैं उसके घर गया पर उसने पहचाना नहीं। मैंने अपना नाम नहीं बताया और उसके साथ खुला व्यवहार करने लगा। वह तो हैरान हो गया। इतने में किसी ने मेरा नाम ले दिया तो आकर गले से लिपट गया। अब देखो कि मैं उसके सामने प्रत्यक्ष था परंतु नेत्रों के सामने होना एक बात है और पहचानना दूसरी वस्तु है।

हमारा आत्मा जो ब्रह्म है, हमसे कहीं दूर नहीं है। सदा सोते-जागते, उठते-बैठते अपने साथ है। यह नित्य प्राप्त है। इसमें वियोग की सम्भावना नहीं है। परंतु ऐसे नित्य प्राप्त आत्मा को हम पहचान नहीं रहे हैं। यदि इसमें स्थित होने से इसकी पहचान होती तो सुषुप्ति में, समाधि में हो जाती। पास रहते हम इसे पहचान नहीं रहे हैं तो बताने वाले की आवश्यकता है। जब तक कोई बतायेगा नहीं कि ‘वह ब्रह्म तो तू ही है’ तब तक उसका ज्ञान नहीं होगा।

उस ब्रह्म को आत्मरूप से जानने के लिए साधन-सम्पन्न जिज्ञासु हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु की शरण में जाय।

सदगुरु प्राप्त हो जायें तब क्या करें ?

तब उनकी विनय से सेवा करें और उसके प्रति प्रेम करें। उनमें दोष बुद्धि न करें और उनके महत्त्व को हृदयंगम करके उनसे ही अपने कल्याण की आशा करें। इस प्रकार सेवा और भक्ति से सदगुरु को अपने अनुकूल बनायें।

जब तक हम सदगुरु को भगवान के रूप में नहीं देख पाते, उनसे प्रवाहित होने वाले भगवदज्ञान को स्वीकार नहीं करते और उनकी प्रत्येक क्रिया हमें लीला के रूप में नहीं मालूम होने लगती, तब तक गुरुकरण नहीं हुआ है, ऐसा समझना चाहिए। सदगुरु मानने के पश्चात उन्हें भगवान से नीचे कुछ भी समझना पतन का हेतु है। इस भगवदस्वरूप में वे ही एक हैं, जगत के और जितने भी गुरु हैं वे मेरे गुरु के लीलाविग्रह हैं। सर्वत्र उन्हीं का ज्ञान और उन्हीं का अनुग्रह प्रकट हो रहा है।

मंत्रदान के पश्चात गुरु की मनुष्यरूप में प्रतीती होना, यह तो शिष्य की कल्पना है। वास्तव में गुरु परमात्मा ही हैं। इन गुरु की शरण और इनके करकमलों की छत्रछाया पाकर शष्य धन्य-धन्य हो जाता है।

सदगुरु के प्रति शिष्य के हृदय में जितनी श्रद्धा, प्रेम और उनके महत्त्व का ज्ञान होता है, उसी के अनुसार उनसे शिष्य का व्यवहार होता है। जिह्वा पर ‘गुरू’ शब्द के आते ही शिष्य गदगद हो जाता है। गुरु का स्मरण कराने वाली वस्तु को देखकर लोट-पोट होने लगता है। गुरू सबसे श्रेष्ठ हैं, गुरु साक्षात् भगवान हैं, गुरु की पूजा ही भगवत्पूजा है। गुरु, गुरुमंत्र और इष्टदेवता ये तीन नहीं एक हैं। शिष्य अधिकारहीन होने पर भी यदि सदगुरू की शरण में पहुँच जाय तो वे उसे अधिकारी बना लेते हैं। पारस तो लोहे को ही सोना बनाता है अन्य धातु को नहीं, पर सदगुरू अधिकारहीन को भी अधिकारी बनाकर परम पद दे देते हैं।

जिस शरीर से सदगुरु की प्राप्ति हुई है, उस शरीर के प्रति अपनी कृतज्ञता कैसे प्रकट की जाय ?

उस शरीर को परमात्मा की, सदगुरु की सेवा में लगा दिया जाय – यही कृतज्ञता है। सेवा क्या है ? पाँव दबाने का नाम सेवा नही है, न पानी भरने का, उनके विचार में अपना विचार, उनके संकल्प में अपना संकल्प, उनकी पसंदगी में अपनी पसंदगी मिला देने का नाम सेवा है, यह सच्ची सेवा है। सेवा अपने मन की पसंद नहीं है, जिसकी सेवा की जाती है उसकी पसंद है। सदगुरु के प्रति अपने जीवन को समर्पित कर देना ही कृतज्ञता है और  यही भगवान की भी सेवा है।

गुरू और इष्ट एक ही हैं – यह बुद्धि कैसे हो ?

आत्मा और परमात्मा एकी है, ज्यों-ज्यों इस बुद्धि के निकट पहुँचते जायेंगे त्यों-त्यों गुरू और परमात्मा की एकता समझ में आती जायेगी। ईमानदारी से देखो कि आप कितनी गहराई के साथ शालग्राम की शिला को परमात्मा समझते हो।  जयपुर से या वृंदावन से गढ़ी हुई जो मूर्तियाँ निकलती हैं, उनको आप कितनी ईमानदारी, कितनी गहराई से साक्षात् भगवान समझते हैं। जब हम अपने आत्मा को सच्चाई और ईमानदारी से हड्डी, मांस के शरीर से अलग, क्रिया-प्रक्रिया से अलग, इच्छाओं एवं भिन्न-भिन्न विचारों से अलग और जाग्रत, स्वप्न, सुषप्ति से भी अलग जितनी सूक्ष्मता से समझेंगे, उतनी ही सूक्ष्मता में गुरु को समझेंगे। और जितनी सूक्ष्मता में अपने को और गुरु को समझेंगे, उतनी ही सूक्ष्मता में परमात्मा को समझेंगे।

संत ज्ञानेश्वरजी ने ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ में आचार्योपासना की व्याख्या में कहा है- “आचार्य के ‘उप’ माने पास आसन लगाना। जहाँ तुम्हारे गुरु बैठते हैं वहाँ तुम बैठो। तुम्हारे गुरू ईश्वर से एकता का अनुभव करते हैं तो तुम भी वैसा ही अनुभव करो। जितनी गहराई में तुम्हारे गुरू बैठते हैं, उतनी ही गहराई में तुम भी अपना आसन लगाओ।”

बाहर जाकर ईश्वर के पास नहीं बैठा जाता है, बाहर से लौटकर भीतर, हृदय के भी हृदय में, अंतर्देश के भी अंतर्देश में, अपने-आपमें जब हम बैठते हैं, उतने ही हम गुरु के पास बैठते हैं। असल में गुरू और ईश्वर दो अलग-अलग अपने स्वार्थ के कारण ही मालूम पड़ते हैं। बात जरा दो टूक है, पर है सच्ची !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 4, 5, 8 अंक 211

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गुरू आज्ञा सम पथ्य नहीं


(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)

उज्जयिनी (वर्तमान में उज्जैन) के राजा भर्तृहरि से पास 360 पाकशास्त्री थे भोजन बनाने के लिए। वर्ष में केवल एक एक की बारी आती थी। 359 दिन वे ताकते रहते थे कि कब हमारी बारे आये और हम राजासाहब के लिए भोजन बनायें, इनाम पायें लेकिन भर्तृहरि जब गुरू गोरखनाथजी के चरणों में गये तो भिक्षा माँगकर खाते थे।

एक बार गुरू गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहाः “देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।” शिष्यों ने कहाः “गुरूजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहाँ 360 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आये हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभरहित हो गये !”

गुरू गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहाः “भर्तृहरि ! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियाँ ले आओ।” राजा भर्तृहरि नंगे पैर गये, जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।

गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहाः “जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझा गिर जाय।” चेले गये और ऐसा धक्का मारा कि बोझा गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गये। भर्तृहरि ने बोझा उठाया लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आँखों में आग के गोले, न होंठ फड़के।

गुरू जी ने चेलों से कहाः “देखा ! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।”

शिष्य बोलेः “गुरुजी ! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।”

थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। ललनाएँ नाना प्रकार के व्यंजन आदि लेकर आदर सत्कार करने लगीं। भर्तृहरि ललनाओं को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गये।

गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहाः “अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।”

शिष्यों ने कहाः “गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिये।”

गोरखनाथजी ने कहाः “अच्छा भर्तृहरि ! हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरूभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।”

भर्तृहरिः “जो आज्ञा गुरूदेव !”

भर्तृहरि चल पड़े। पहाड़ी इलाका लाँघते-लाँघते मरूभूमि में पहुँचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप… मरुभूमि में पैर रखो तो बस सेंक जाय। एक दिन, दो दिन….. यात्रा करते-करते छः दिन बीत गये। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से चेलों को भी साथ लेकर वहाँ पहुँचे।

गोरखनाथ जी बोलेः “देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूँ। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।”

अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो !

‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया ? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया ? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ – कूदकर दूर हट गये।

गुरु जी प्रसन्न हो गये कि देखो ! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’ गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए लेकिन और शिष्यों की मान्यता ईर्ष्यावाली थी।

शिष्य बोलेः “गुरुजी ! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।”

गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) आगे मिले, बोलेः “जरा छाया का उपयोग कर लो।”

भर्तृहरिः “नहीं, गुरु जी की आज्ञा है नंगे पैर मरुभूमि में चलने की।”

गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा ! कितना चलते हो देखते हैं।’ थोड़ा आगे गये तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कंटक-कंटक पैदा कर दिये। ऐसी कँटीली झाड़ी कि कंथा (फटे पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने ‘आह’ तक नहीं की।

तैसा अंम्रित1 तैसी बिखु2 खाटी।

तैसा मानु तैसा अभिमानु।

हरख सोग3 जा कैं नहीं बैरी मीत समान।

कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।

1.अमृत 2. विष 3 हर्ष-शोक

भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गये, ‘यह सब सपना है और गुरुतत्त्व अपना है। गुरु जी ने जो आज्ञा  की है वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

अंतिम परीक्षा के लिए गुरुगोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरुआज्ञा का भंग तो नहीं हो रहा है ?

उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिये। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोलेः “शाबाश भर्तृहरि ! वर माँग लो। अष्टसिद्धि दे दूँ, नवनिधि दे दूँ। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिये, ललनाएँ चरण-चम्पी करने को, चँवर डुलाने को तैयार थी, उनके चक्कर में भी नहीं आये। तुम्हें जो माँगना हो माँग लो।”

भर्तृहरिः “गुरूजी ! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है।”

भगवान शिव पार्वतीजी से कहते हैं-

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।

‘हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।’

“गुरुजी ! आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गये।”

“नहीं भर्तृहरि ! अनादर मत करो। तुमने कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ माँगना ही पड़ेगा।”

इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सुई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोलेः “गुरूजी ! कंथा फट गया है, सुई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंथा सी लूँ।”

गोरखनाथजी और खुश हुए कि ‘हद हो गयी ! कितना निरपेज्ञ है, अष्टसिद्धि-नवनिधियाँ कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ तो माँगो तो बोलता है कि सुई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया।’

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।

‘जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, दक्ष, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है – वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।’

(गीताः 12.16)

‘कोई अपेक्षा नहीं ! भर्तृहरि तुम धन्य हो गये ! कहाँ तो उज्जयिनी का सम्राट और कहाँ नंगे पैर मरुभूमि में ! एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गये।’

अभी भर्तृहरि की गुफा और गोपीचंद की गुफा प्रसिद्ध है।

कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य-जीवन में बहुत सारी ऊँचाइयों को छू सकते हैं।

एक बार नैनीताल में मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहाः “जाओ, इन लोगों को ‘चाइना पीक’ (वर्तमान नाम – नैना पीक, यह हिमालय पर्वत का एक प्रसिद्ध शिखर है) दिखा के आओ।”

चलने वाले आनाकानी कर रहे थे, बार-बार इनकार कर रहे थे। हम हाथा-जोड़ी करके उनको ‘चाइना पीक’ ले गये। वहाँ मौसम साफ हो गया। सूर्य उदय नहीं हुआ था हम लोग तब चले थे पैदल और शाम को सूर्य ढल गया तब आश्रम में पहुँचे।

गुरुजी ने पूछाः “ऐसा खराब मौसम था, ओले पड़ रहे थे, कैसे पहुँचे ?”

हमारे साथ जो लोग गये थे, वे बोलेः “आसाराम ने कहा कि ‘बापूजी ने आज्ञा दी है तो मैं आज्ञा का पालन करूँगा, आप चलो।’ हम नहीं जाना चाहते थे तो हमको हाथा-जोड़ी करे, कभी हमको समझाये, कभी सत्संग सुनाये। कैसे भी करके दो बजे हमको ‘चाइना पीक’ पहुँचा दिया, जहाँ कोई सैलानी नहीं थे, सब वापस भाग गये थे।”

गुरुजी खुश हुए, बोलेः “पीऊऽऽऽ ! जो गुरु की आज्ञा मानता है, प्रकृति उसकी आज्ञा मानेगी।” हमको तो वरदान मिल गया !

सर्प विषैले प्यार से वश में बाबा तेरे आगे।

बादल भी बरसात से पहले तेरी ही आज्ञा माँगें।।

हमने गुरु की आज्ञा मानी तो हमारी तो हजारों लोग आज्ञा मानते हैं। गुरु की आज्ञा मानने से मुझे तो बहुत फायदा हुआ। गुरु की आज्ञा मानने में जो दृढ़ रहता है, बस उसने तो काम कर लिया अपना।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 11, 12, 13 अंक 211

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