Monthly Archives: September 2010

पहले डॉक्टर फिर आई.ए.एस. बनी


जब मैं 8वीं कक्षा में पढ़ती थी तभी मैंने पूज्य बापू जी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा ली थी। नियमित मंत्रजप, ध्यान के साथ-साथ पूज्य बापू जी के द्वारा आयोजित विद्यार्थी शिविरों में भी मैं भाग लेती रही। सत्संग में पूज्य बापू जी के श्रीमुख से सुनाः

उठो जागो और तब तक मत रूको जब तक उद्देश्य प्राप्त नहीं हो जाता। अनुशासन, तत्परता व बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास और आत्मविश्वास ही सफलता की कुँजी है।

गुरुदेव के इन प्रभावशाली वचनों ने मेरे मन को उत्साह और उमंग से भर दिया। मुझे लगा कि मैं जो चाहूँ बन सकती हूँ, जीवन के हर क्षेत्र में अवश्य सफल हो सकती हूँ क्योंकि पूज्य बापूजी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र एवं उनकी कृपा हमारे साथ है। मैंने डॉक्टर बनने का उद्देश्य बनाया और बापू जी की कृपा से सहज में ही डॉक्टर (एम.बी.बी.एस.) बन भी गयी। अब भी मैं समय निकाल कर बापू जी का सत्संग सुनती हूँ। सत्संग पर आधारित सत्साहित्य का अध्ययन करने से मुझे पीड़ित मानवता की सेवा करने की प्रेरणा हुई। मुझे लगा कि डॉक्टर बनने से मैं अधिक लोगों की सेवा नहीं कर पाँऊगी। फिर मैंने आई.ए.एस. की परीक्षा दी। संयम, तत्परता, धैर्य एवं सफलता की कुंजी देने वाले पूज्य बापू जी के आशीर्वाद से मेरा चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) में हो गया है। अब तो पूज्य बापूजी के श्रीचरणों में मेरी यही विनती है कि आपकी कृपा से मैं समाज-सेवा का कार्य खूब अच्छी तरह से कर सकूँ।

डॉ. प्रीति मीणा (आई.ए.एस.), बारां (राजस्थान)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 29 अंक 213

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

परिवर्तन नहीं परिमार्जन


(पूज्य बापूजी का सत्संग-वचनामृत)

अर्जुन के सामने भगवान श्रीकृष्ण खड़े हैं, फिर भी उनका भय नहीं गया, शोक नहीं गया। जब उसने श्रीकृष्ण का सत्संग सुना और उस अनुसार अपने आत्मा का ज्ञान जगाया तो अर्जुन का भय भी नहीं रहा, शोक भी नहीं रहा, दुःख भी नहीं रहा और युद्ध जैसा घोर कर्म किया किंतु उसके ऊपर बंधन नहीं रहा, मुक्तात्मा हो गया।

तो गीता का ज्ञान तुम्हे ऐरी-गैरी चीजों में आसक्ति करके भोगी नहीं बनाना चाहता, ऐरी गैरी परिस्थितियों का गुलाम बनाकर तुम्हें जगत का पिट्ठू नहीं देखना चाहता। लोग क्या करते हैं कि परिवर्तन चाहते हैं। दुःख आया है…. अब दुःख मिटे, सुख आयें। रोग आया है… रोग मिटे, तंदुरूस्ती आये। निंदा आयी है, अभी सराहना आ जाय, परिवर्तन… परिवर्तन करते-करते खुद परिवर्तित होकर मौत के मुँह में चले जाते हैं लेकिन गीता कहती है कि परिवर्तन के चक्कर में मत आओ। दुःख को सुख से दबाओ मत। दुःख की जड़ उखाड़ के फेंक दो। निंदा को प्रशंसा से दबाओ मत, निंदा और प्रशंसा की गहराई में तुम एकरूप हो – ऐसी ज्ञान की समझ जगाओ। बीमारी में और तंदुरुस्ती में तुम एकरस हो। बचपन, जवानी, बुढ़ापा – यह सब बदलता है, फिर भी जो नहीं बदलता वह है तुम्हारा अपना आप, हर परिस्थिति का बाप ! गुरु की कृपा से ऐसे अनुभव की कुंजी पा लो। शब्दों की डींग मत हाँकना। वास्तविक अनुभव में सदगुरु का प्यारा सत्शिष्य ही पहुँच सकता है।

अपने जीवन में परिवर्तन की इच्छा मत करो। जैसे यूरोप, अमेरिका, और देश परिवर्तन, परिवर्तन में लगे हैं। नया पैक, नया फैशन, गाड़ी नयी, मॉडल नया, कार्पेट नया, रंग-रोगन नया.. नया, नया, नया… परिवर्तन, परिवर्तन….. यहाँ तक कि पत्नी बदलो, पति बदलो, मकान बदलो…. फिर भी अभागे लोग दुःखी हैं। गीता कहती है प्रकृति के परिवर्तन में मत पड़ो। तुम तो अपनी बुद्धि का परिमार्जन करो। सारे परिवर्तन तुम्हें उलझा रहे हैं। तुम परिवर्तन के आधारस्वरूप परमात्मा में सुलझकर अभी सुखी हो जाओ, अभी निश्चिंत हो जाओ, अभी निर्णय हो जाओ।

मर जायेंगे फिर हमें श्मशान में, कब्र में डालकर आयेंगे। कोई पैगम्बर आकर हमारे लिए सिफारिश करेगा, फिर हमें बिहिश्त मिलेगा, अप्सराएँ मिलेंगी, शराब के चश्मे मिलेंगे। यहाँ शराब की बोतल तबाही कर देती है, अपनी पत्नी के सिवाय रावण जैसा भी यदि दूसरे की पत्नी के प्रति बुरी नजर करता है तो उसकी दुर्दशा होती है तो वे अप्सराएँ क्या दे देंगी ! सोचते हैं, ‘यहाँ बुढ़िया है, मर जायेंगे तो अप्सराएँ मिलेंगी।’ शराब के चश्मे, हूरें और हूरों का विलास तुम्हें नोच लेगा बेटे ! सावधान हो जाओ, ऐसी ख्वाहिश मत करो। इश्क मिजाजी, इश्क इलाही, इश्क नुरानी में अभी लग जाओ। जिसे प्रेमाभक्ति, अनुरागा भक्ति, पराभक्ति भी कहते हैं।

मदभक्तिं लभते पराम्।

श्रीकृष्ण के वचनों को रहीम खानखाना ने और अकबर की बेगम ताज ने अनुभव किया, मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने, कबीर जी ने और लीलाशाह प्रभुजी ने, राजा जनक ने जो प्रेमाभक्ति का परम स्वाद पाया और बाँटा उसी में तुम आ जाओ।

सब दुःखों की एक दवाई,

पराभक्ति पा लो भाई।

वह प्रभु तुमसे दूर नहीं, तुम उससे दूर नहीं।

आदि सचु जुगादि सचु।

है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

तो गीता परिवर्तन नहीं परिमार्जन करती है, समझ बदल देती है परिवर्तन प्रकृति में होगा।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।

‘हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।’

(गीताः 2.15)

परमात्मा तो नित्य और एकरस है। जो भी होगा हमारे विकास के लिए होगा। सिनेमा में सुंदर मकान, बगीचे दिखते हैं। हो-हो के चले जाते हैं। जो मूर्ख है, उन्हें रोके रखना चाहता है वह दुःखी होगा। जो अपने ढंग का देखना चाहता है वह भी दुःखी होगा। जो दिख रहा है, दिख रहा है… बदल रहा है, बदल रहा है। जो आता है आने दो, जाता है जाने दो। बनता है बनने दो बिगड़ता है बिगड़ने दो। जो धन मिल गया, मिल गया। जो चला गया, उसके लिए रोते क्यों हो ! जो मान मिल गया मिल गया, चला गया तो चला गया। इसी का नाम तो दुनिया है।

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।

यह नाव दो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।।

तो काहे को रोयें ! वाह-वाह ! क्यों न करें ! अपनी बुद्धि में भगवान के ज्ञान का प्रकाश ले आओ। जो बीत गया उसको याद करके शोक मत करो। मैं पहले ऐसा सुखी था, यह दुःख मिला, अभी ऐसा है। नहीं, नहीं, जो बीत गया, अभी हमारे पास नहीं है उसके पीछे क्यों मरें !

भविष्य हमारे पास नहीं है, वर्तमान में आनंदित करो, परिमार्जित करो अपने मन को रसमय जीवन… जिह्वा में भगवदरस में, मन में भगवदरस भरो। मधुर बोलेंगे, सारगर्भित बोलेंगे, स्नेहयुक्त बोलेंगे, गीता के ज्ञान से भरकर वाणी बोलेंगे। हो गया परिमार्जन ! मन में किसी का बुरा नहीं सोचेंगे, किसी का बुरा नहीं चाहेंगे और कोई भी हमारा बुरा करे को वह व्यक्ति सदा के लिए ऐसा नहीं है, ऐसी समझ जाग्रत रखेंग। कोई किसी को दुःख देता है तो दुःख सामने वाले को मिले न मिले, दुःख देने वाले का दिल तो दुःख देने के विचार से गंदा होता है और कोई किसी को सुख देता है या भला करता है तो सामने वाले का कब-कितना भला हो भगवान जानें लेकिन भलाई के विचार से उसका खुद का दिल तो भला होता है न !

जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा यह नियम प्रभु का है। हम मन के चाहे पर अड़ जाते हैं इसीलिए दुःख होता है, तनाव होता है। बच्चा मनचाही चाहता है इसीलिए दुःखी होता है। माँ बच्चे को रगड़-रगड़ के शुद्ध करना चाहती है लेकिन बच्चे को अच्छा नहीं लगता, स्कूल भेजना चाहती है लेकिन अच्छा नहीं लगता फिर भी रोते-रोते भी स्नान तो करना पड़ता है, रोते-रोते भी स्कूल जाना तो पड़ता है। तो आप अपना मनचाहा परिवर्तन मत करो, परिमार्जन होने दो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 213

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पपीहे जैसा नियम हो तो प्रभुप्राप्ति इसी जन्म में हो जाय


जयदयालजी गोयन्दका

कोई भी मनुष्य यदि दृढ़ निश्चय कर ले कि आज भगवान अवश्य मिलेंगे तो इसमें कोई संदेह नहीं कि उसे भगवान आज मिलेंगे। ऐसा निश्चय करना तो अपना काम है। इसमें भगवान की दया को भी निमित्त बना लें। जैसे कोई परम मित्र के पहुँचने का तार आ जाय तो हम उसके स्वागत के लिए कितनी व्यवस्था करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं, ऐसे ही प्रभुप्राप्ति की प्रतीक्षा करनी चाहिए। प्रभु इस बात को जानते हैं कि कौन उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। आज उन्हें सच्चे मन से पुकारेंगे तो आज ही आपसे मिलनि की उन्हें फुर्सत मिल जायेगी।

उसमें दो प्रकार की दशाएँ होती हैं – एक तो आर्तभाव, परम व्याकुलता जैसे मछली को जल से अलग होने पर होती है जड़ तो जड़ है, प्रभु चैतन्य हैं, वे बड़े दयालु हैं। दूसरा भाव प्रेम का है। जैसे मित्र के आने का दृढ़ निश्चय होता है, उसमें प्रसन्नता एवं प्रतीक्षा होती  है इसी प्रकार प्रभु में प्रेम होने पर वे अवश्य पहुँच जाते हैं। नियम और प्रेम दोनों रखें। नियम पपीहे का होता है, वह स्वाति की बूँद से ही अपनी प्यास बुझाना चाहता है। बादल बरसें तब भी उसका नियम नहीं टूटता, प्रेम में कमी नहीं आती। यहाँ तक कि उसके प्राण भी चले जायें, तब भी वह नियम नहीं तोड़ता। इसमें बादल तो जड़ हैं, वैसे ही बरस जाते हैं। प्रभु तो चैतन्य हैं और बड़े दयालु हैं, वे अपने प्रेमी को मरने नहीं देते।

इसी प्रकार हम भी नियम ले लें कि सिवाय प्रभु के और कुछ भी नहीं चाहिए। किसी का चिंतन न करें तो हमें प्रभु अवश्य ही मिलेंगे। ‘हमें कैसे मिलेंगे ?’ पहले से ही ऐसा विपरीत निश्चय नहीं करना चाहिए। दृढ़ विश्वास होना चाहिए।

कई लोग सोचते हैं कि अमुक महाराज दया कर दें, कह दें तो हमको ईश्वरप्राप्ति हो जायेगी, भगवान मिल जायेंगे। ऐसी अवस्था में भगवान से मिलने की आवश्यकता ही क्या है, जब किसी के कहने से मिलें।

करोड़ों में कोई एक भगवत्प्राप्त मनुष्य होता है और उनमें भी कोई विरला ही होता है जो भगवान को मिला सके। कोई कहे कि भगवत्प्राप्त पुरुष मार्ग तो बतला सकते हैं। यह ठीक है तो फिर लोग इतने अच्छे मार्ग पर क्यों नहीं चलते ? इसका उत्तर यही है कि इस विषय में उन्हें विश्वास नहीं है। इसी कारण समस्त संसार की यह दशा हो रही है।

बात रही महापुरुष की दया की, भगवान की दया की वह तो सतत रहती ही है। फिर भी काम नहीं होता तो यह मानना पड़ेगा कि हमें उनकी दया में विश्वास नहीं है। हमने उनकी दया को माना नहीं है, बात वास्तव में यही है।

गजेन्द्र, द्रौपदी आदि ने विश्वास से भगवान को बुलाया तो भगवान इनके पास अतिशीघ्र पहुँच गये। यद्यपि इनको दुःख-निवारण की ही आवश्यकता थी।

केवल भगवान से मिलने के लिए भगवान को चाहे तो वह तो बात ही कुछ और होती है। ऐसे भक्त से शीघ्र मिलने की भगवान की भी इच्छा हो जाती है, इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि प्रभु की इच्छा तो पूरी होगी ही। हमारी इच्छा पूरी हो इसमें हम लाचार हैं, पर प्रभु की इच्छा पूरी न हो ऐसा नहीं हो सकता।

जब हमारी इच्छा केवल और केवल उनसे मिलने की हो जायेगी तो सारा भार भगवान पर आ जायेगा और ऐसे प्रेमी भक्त के वश होकर भगवान उससे मिल जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 17,19 अंक 213

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ