Monthly Archives: September 2010

महात्मा गाँधी की सेवानिष्ठा


(महात्मा गाँधी जयंतीः 2 अक्तूबर)

(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

महात्मा गाँधी के पास एक डॉक्टर सेवक था, जो कि विदेश होकर आया था। एक माई बड़ी बीमार थी, वह गाँधी जी के पास आयी। गाँधी जी ने उस डॉक्टर से कहाः “इस गरीब माई को नीम की पत्तियाँ खिलाओ और छाछ पिलाओ, ठीक हो जायेगी।”

डॉक्टर उस माई को इलाज बताकर आ गया। दो-चार घंटे के बाद गाँधी जी ने पूछाः “उस माई को नीम की पत्तियाँ दीं ?”

डॉक्टरः “जी ! ले ली होंगी उसने।”

गाँधी जीः “छाछ पिलायी ?”

डॉक्टरः “हाँ ! पी होगी।”

गाँधी जीः “तो तू डॉक्टर काहे का बना ! पी होगी। वह माई गरीब है, उसने पी कि नहीं पी तुमने जाँच की ? डॉक्टर केवल नब्ज देखकर, दवा लिखकर आ जाय ऐसा नहीं होता। जब तक मरीज ठीक नहीं हो जाता तब उसे क्या-क्या तकलीफें हैं, उन्हें दूर करना इसकी जिम्मेदारी डॉक्टर की होती है।”

गाँधी जी स्वयं उस गरीब महिला के पास गये और उससे पूछाः “माता जी ! तुमने छाछ पी ?”

माई बोलीः “बापू जी ! पैसे नहीं हैं। एक गिलास छाछ के लिए एक पैसा तो चाहिए न ! वह कहाँ से लाऊँ ?”

उस माई की ऐसी गरीब हालत देखकर गाँधी जी को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने डॉक्टर को डाँटते हुए कहाः “तू गाँव से माँगकर या अपने पैसे से खरीदकर एक प्याली छाछ नहीं पिला सकता था !”

गाँधी जी ने उस माई को नीम की पत्ती खिलायी और छाछ पिलायी, जिससे वह एकदम ठीक हो गयी।

गरीबों के प्रति कितना प्रेम, अपनापन, दया व करूणा से भरा था गाँधी जी का हृदय ! तभी तो आज करोड़ों हृदय उन्हें महात्मा के रूप में याद करते हैं।

महात्मा गाँधी की सूझबूझ

एक दिन गाँधी जी रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे। बाहर का दृश्य बड़ा मनोरम था। वे दरवाजे के पास खड़े होकर भारत की प्राकृतिक सुषमा का अवलोकन कर रहे थे। उसी समय उनके एक पैर की चप्पल रेलगाड़ी से नीचे गिर गयी। गाड़ी तीव्र गति से अपनी मंजिल की तरफ भाग रही थी। गाँधी जी ने बिना एक पल गँवाये दूसरे पैर की चप्पल भी नीचे फेंक दी। उनके साथी ने पूछाः “आपने दूसरे पैर की चप्पल क्यों फेंक दी ?”

गाँधी जी ने कहाः “वह मेरे किस काम की थी ? मैं तो उसे पहन नहीं सकता था और नीचे गिरी चप्पल को पाने वाला भी उसका उपयोग न कर पाता अब दोनों पैर की चप्पल पाने वाला ठीक से उपयोग तो कर सकता है !” प्रश्नकर्ता इस परोपकारिता भरी सूझबूझ से प्रभावित और प्रसन्न हुआ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 28, अंक 213

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लालबहादुर ही क्यों ?


(लालबहादुर शास्त्री जयंतीः 2 अक्टूबर)

लालबहादुर शास्त्री जी के बाल्यकाल की एक घटना है। एक दिन वे सोचने लगे कि परिवार में सभी लोगों का नाम प्रसाद व लाल पर है लेकिन माँ ने मेरा नाम ‘बहादुर’ क्यों रखा।

बालक माँ के पास गया और बोलाः “माँ ! मेरा नाम लालबहादुर क्यों रखा है, जबकि हमारे यहाँ तो किसी का नाम बहादुर पर नहीं है ? अपने रिश्तेदारों में भी तो सभी लाल या प्रसाद हैं, फिर मेरा नाम इतना खराब क्यों है ? मुझे यह नाम अच्छा नहीं लगता।”

पास ही बैठे उनके मामा ने कहाः “क्यों नहीं है, देखो इलाहाबाद के नामी वकील है तेज बहादुर।”

तभी माँ रामदुलारी देवी हँसी और बोलीं- “नन्हें का नाम ‘वकील बहादुर’ बनने के लिए तुम्हारे जीजा जी ने नहीं रखा है बल्कि उन्होंने ‘कलम बहादुर’ बनाने के लिए और मैंने अपने नन्हें को ‘करम बहादुर’ बनाने के लिए इसका नाम लालबहादुर रखा है। मेरा लाल ‘बहादुर’ बनेगा अपनी हिम्मत व साहस का….।”

और इतना कहते-कहते उनकी आँखें डबडबा आयीं। पति की स्मृति उनके मानस-पटल पर आ गयी। उन्होंने अपने ‘लाल बहादुरि’ को गोद में बैठाकर अनेकानेक आशीष दे डाले। ये ही आशीर्वाद जेल-जीवन की यातनाओं तथा पारिवारिक समस्याओं में उनका साहस बढ़ाते रहे। माता के आशीर्वाद फलीभूत हुए और इतिहास साक्षी है कि वे सहनशीलता, शालीनता, विनम्रता और हिम्मत में कितने बहादुर हुए। उनका धैर्य, साहस, संतोष तथा त्याग असीम था।

बाल्यावस्था बहुत नाजुक अवस्था होती है, इसमें बच्चों को आप जैसा बनाना चाहते हैं, वे वैसे बन जायेंगे। आवश्यकता है तो बस अच्छे संस्कारों के सिंचन की।

लालबहादुर एक बार बालमित्रों के साथ मेला देखने जा रहे थे। उनके पास नाविक को देने के लिए पैसे नहीं थे। स्वाभिमान के धनी ‘लाल’ यह बात किसी को कैसे बताते ! वे गंगा जी की वेगवती धारा में कूद पड़े और तैरकर ही उस पार पहुँच गये।

एक बार लालबहादुर शास्त्री इलाहाबाद की नैनी जेल में थे। घर पर उनकी बेटी पुष्पा बीमार थी और गम्भीर हालत में थी। साथियों ने उन पर दबाव डाला कि ‘आप घर जाकर बेटी की देखभाल करें।’ वे राजी भी हो गये। उनका पेरोल भी मंजूर हो गया परंतु उन्होंने उस पेरोल पर छूटने से मना कर दिया क्योंकि उसके अनुसार उन्हें यह लिखकर देना था कि वे जेल के बाहर आन्दोलन के समर्थन में कुछ न करेंगे। उधर बेटी जीवन और मौत की लहरों में गोते खाने लगी, इधर शास्त्री जी अपने स्वाभिमान पर दृढ़ थे। आखिर जिलाधीश इनकी नैतिक, चारित्रिक दृढ़ता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इन्हें बिना किसी शर्त के मुक्त कर दिया।

शास्त्रीजी घर पहुँचे पर उसी दिन बेटी ने शरीर छोड़ दिया। शास्त्री जी अग्नि संस्कार करके लौटे। घर के भीतर किसी से मिलने भी नहीं गये, सामान उठाकर ताँगे में बैठ गये। लोगों ने बहुत कहाः ”अभी तो पेरोल बहुत बाकी है।” शास्त्री जी ने उत्तर दियाः “मैं जिस कार्य के लिए पेरोल पर छूटा था, वह खत्म हो गया है। अतः सिद्धान्ततः अब मुझे जेल जाना चाहिए।” और वे जेल चले गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 213

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जीवन-संजीवनी – श्री परमहंस अवतारजी महाराज


भोजन सत्त्वगुणी, हलका और कम खाओ तो श्वास सरलता से चलेंगे और भजन में सहयोग प्राप्त होगा।

शारीरिक रोग अथवा कष्ट तो गुरुमुख पर भी आते हैं लेकिन वह मालिक (ईश्वर) के नाम में इतना लवलीन रहता है कि उसे दुःखों का आभास ही नहीं होता।

गुरुमति का मूल्य है मनमति का त्याग। इसके बिना भक्तिमार्ग में सफलता प्राप्त करना असम्भव है।

किसी की भी निंदा न करो क्योंकि उससे तुम्हारी भी हानि होगी। तुम्हारे सब शुभ कर्मों का फल उसके पास चला जायेगा। जिसकी तुम निंदा कर रहे हो।

जिस सेवक का सदगुरु के चरणों में प्रेम है वह नाम का अभ्यास करे। नाम का अर्थ है ‘मैं’ नहीं हूँ। संतों का फरमान है कि भगवान को अहंकार नहीं सुहाता। जहाँ नाम होगा वहाँ अहंकार नहीं होगा। सेवक को अपनी सुरति नाम से ऐसी जोड़नी चाहिए कि केवल ‘तू-ही-तू’ रह जायि और ‘मैं-मैं’ भूल जाय, इसी को कहते हैं सच्चा प्रेम।

आत्मिक लाभ-हानि की पूर्ण जानकारी सदगुरु को होती है। जीव की प्रायः यही दशा होती है कि थोड़ा भजन या सेवा करके स्वयं को कुछ समझने लगता है, इसलिए हानि की ओर जाता है और समझता यही है कि मैं लाभ की ओर जा रहा हूँ। यदि हृदय में दीनता धारण करोगे तो सुरक्षित रहोगे।

जिसको प्रभुप्राप्ति की अभिलाषा हो, उसे अन्य सभी इच्छाएँ त्याग देनी चाहिए।

यदि स्वयं को प्रेम-रंग में रँगना चाहते हो तो पहले मोह-ममता की मैल को सत्संगरूपी सरोवर पर जाकर धोओ।

सुमिरन में महान शक्ति है। जैसे लोहा लोहे से काटा जाता है, उसी प्रकार नाम के सुमिरन से अन्य सभी मायावी विचारों को काट दो।

घण्टे दो घण्टे तीन घण्टे भजन नियम करके शेष समय सेवा, सत्संग, स्वाध्याय में अपने मन को लगाकर मालिक से दिल का तार जोड़े रखोगे तो आत्मिक शांति बनी रहेगी।

जिस मनरूपी शत्रु ने कई जन्मों ने तुम्हें धोखा दिया है, उस पर विश्वास न करो। गुरु शब्द पर दृढ़ विश्वास करके उस पर विजय प्राप्त कर लो।

जो बीती सो बीती, शेष श्वास मालिक को अर्पण करो।

शांति के अमृत से जीवन को मधुर बनाओ।

जैसे परीक्षा के दिन निकट आने पर बालक अधिक पढ़ाई करते हैं, वैसे ही सेवक को भी चाहिए कि जैसे-जैसे जीवन के दिन व्यतीत होते जायें, वैसे-वैसे अभ्यास के लिए समय और पुरुषार्थ बढ़ाता चले।

मन का सुमिरन करने का स्वभाव तो है ही, फिर क्यों न उससे लाभ उठाया जाय। जैसे चलती हुई रेल का काँटा बदलने से रेल एक ओर से दूसरी ओर चली जाती है, इसी प्रकार मन के सुमिरन का काँटा विषय-विकारों से बदल कर नाम-सुमिरन में लगाया जायेगा तो चौरासी से बचकर परम पद को प्राप्त करोगे।

पूर्ण एकाग्रता से सुमिरन करो तो अथाह शक्ति उपलब्ध होगी। सासांरिक दुःख आपके सम्मुख ठहर ही नहीं सकेंगे।

सदैव प्रसन्न रहने का प्रयत्न करो। प्रसन्नता सदा सत्पुरुषों का संगति से ही मिलती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 11, अंक 213

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