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जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाती है ‘गीता’


(श्रीमदभगवदगीता जयंतीः 17 दिसम्बर 2010)

(पूज्य बापू जी की सारगर्भित अमृतवाणी)

‘यह मेरा हृदय है’ – ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा तो वह गीता का ग्रंथ है। गीता में हृदयं पार्थ। ‘गीता मेरा हृदय है।’ अन्य किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने यह नहीं कहा है कि ‘यह मेरा हृदय है।’

भगवान आदिनारायण की नाभि से हाथों में वेद धारण किये ब्रह्माजी प्रकटे, ऐसी पौराणिक कथाएँ आपने-हमने सुनी, कही हैं। लेकिन नाभि की अपेक्षा हदय व्यक्ति के और भी निकट होता है। भगवान ने ब्रह्माजी को तो प्रकट किया नाभि से लेकिन गीता के लिए कहते हैं।

गीता में हृदयं पार्थ। ‘गीता मेरा हृदय है।’

परम्परा तो यह है कि यज्ञशाला में, मंदिर में, धर्मस्थान पर धर्म-कर्म की प्राप्ति होती है लेकिन गीता ने गजब कर दिया – धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे… युद्ध के मैदान को धर्मक्षेत्र बना दिया। पद्धति तो यह थी कि एकांत अरण्य में, गिरि-गुफा में धारणा, समाधि करने पर योग प्रकट हो लेकिन युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया। परम्परा तो यह है कि शिष्य नीचे बैठे और गुरू ऊपर बैठे। शिष्य शांत हो और गुरू अपने-आप में तृप्त हो तब तत्त्वज्ञान होता है लेकिन गीता ने कमाल कर दिया है। हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ता से आक्रान्त मतिवाला अर्जुन ऊपर बैठा है और गीताकार भगवान नीचे बैठे हैं। अर्जुन रथी है और गीताकार सारथी हैं। कितनी करूणा छलकी होगी उस ईश्वर को, उस नारायण को अपने सखा अर्जुन व मानव-जाति के लिए ! केवल घोड़ागाड़ी ही चलाने को तैयार नहीं अपितु आज्ञा मानने को भी तैयार ! नर कहता है कि ‘दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को ले चलो।’ रथ को चलाकर दोनों सेनाओं के बीच लाया है। कौन ? नारायण। नर का सेवक बनकर नारायण रथ चला रहा है और उसी नारायण ने अपने वचनों में कहाः

गीता में हृदयं पार्थ।

पौराणिक कथाओं में मैंने पढ़ा है, संतों के मुख से मैंने सुना है, भगवान कहते हैं- “मुझे वैकुण्ठ इतना प्रिय नहीं, मुझे लक्ष्मी इतनी प्रिय नहीं, जितना मेरी गीता का ज्ञान कहने वाला मुझे प्यारा लगता है।” कैसा होगा उस गीताकार का गीता के प्रति प्रेम !

गीता पढ़कर 1985-86 में गीताकार की भूमि को प्रणाम करने के लिए कनाडा के प्रधानमंत्री मि. पीअर टुडो भारत आये थे। जीवन की शाम हो जाये और देह को दफनाया जाये उससे पहले अज्ञानता को दफनाने के लिए उन्होंने अपने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और एकांत में चले गये। वे अपने शारीरिक पोषण के लिए एक दुधारू गाय और आध्यात्मिक पोषण के लिए उपनिषद् और गीता साथ में ले गये। टुडो ने कहा हैः “मैंने बाइबल पढ़ी, एंजिल पढ़ी और अन्य धर्मग्रन्थ पढ़े। सब ग्रंथ अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं किंतु हिन्दुओं का यह श्रीमद भगवदगीता ग्रंथ तो अदभुत है। इसमें किसी मत-मजहब, पंथ या सम्प्रदाय की निंदा स्तुति नहीं है वरन् इसमें तो मनुष्य मात्र के विकास की बाते हैं। गीता मात्र हिन्दुओं का ही धर्मग्रन्थ नहीं है, बल्कि मानवमात्र का धर्मग्रन्थ है।”

गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं कि अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कही। और उन्नति कैसी ? एकांगी नहीं, द्विअंगी नहीं, त्रिअंगी नहीं सर्वांगीण उन्नति। कुटुम्ब का बड़ा जब पूरे कुटुम्ब की भलाई का सोचता है तब ही उसके बड़प्पन की शोभा है। और कुटुम्ब का बड़ा तो राग-द्वेष का शिकार हो सकता है लेकिन भगवान में राग-द्वेष कहाँ ! विश्व का बड़ा पूरे विश्व की भलाई सोचता है और ऐसा सोचकर वह जो बोलता है वही गीता का ग्रंथ बनता है।

पर कैसा है यह ग्रंथ ! थोड़े ही शब्दों में बहुत सारा ज्ञान बता दिया और युद्ध के मैदान में भी किसी विषय को अछूता ने छोड़ा। है तो लड़ाई का माहौल और तंदरूस्ती की बात भी नहीं भूले !

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

‘दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।’

(गीताः 6.17)

केवल शरीर का स्वास्थ्य नहीं, मन का स्वास्थ्य भी कहा है।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।

सुखद स्थिति आ जाये चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों। दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है। दृष्टि दिव्य बन जाये, फिर आपके सभी कार्य दिव्य हो जायेंगे। छोटे से छोटे व्यक्ति को अगर सही ज्ञान मिल गया और उसने स्वीकार कर लिया तो वह महान बन के ही रहेगा। और महान से महान दिखता हुआ व्यक्ति भी अगर गीता के ज्ञान के विपरीत चलता है तो देखते देखते उसकी तुच्छता दिखाई देने लगेगी। रावण और कंस ऊँचाइयों को तो प्राप्त थे लेकिन दृष्टिकोण नीचा था तो अति नीचता में जा गिरे। शुकदेव जी, विश्वामित्र जी साधारण झोंपड़े में रहते हैं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं लेकिन दृष्टिकोण ऊँचा था तो राम लखन दोनों भाई विश्वामित्र की पगचम्पी करते हैं।

गुरु तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।

(श्री रामचरित. बा.कां. 226)

विश्वामित्रजी जगें उसके पहले जगपति जागते हैं क्योंकि विश्वामित्रजी के पास उच्च विचार है, उच्च दृष्टिकोण है। ऊँची दृष्टि का जितना आदर किया जाय उतना कम है। और ऊँची दृष्टि मिलती कहाँ से है ? गीता जैसे ऊँचे सदग्रंथों से, सतशास्त्रों से और जिन्होंने ऊँचा जीवन जिया है, ऐसे महापुरुषों से। बड़े-बड़े दार्शनिकों के दर्शनशास्त्र हम पढ़ते हैं, हमारी बुद्धि पर उनका थोड़ा सा असर होता है लेकिन वह लम्बा समय नहीं टिकता। लेकिन जो आत्मनिष्ठ धर्माचार्य हैं, उनका जीवन ही ऐसा ऊँचा होता है कि उनकी हाजिरीमात्र से लाखों लोगों का जीवन बदल जाता है। वे धर्माचार्य चले जाते हैं तब भी उनके उपदेश से धर्मग्रन्थ बनता है और लोग पढ़ते-पढ़ते आचरण में लाकर धर्मात्मा होते चले जाते हैं।

मनुष्यमात्र अपने जीवन की शक्ति का एकाध हिस्सा खानपान, रहन-सहन में लगाता है और दो तिहाई अपने इर्द गिर्द के माहौल पर प्रभाव डालने की कोशिश में ही खर्च करता है। चाहे चपरासी हो चाहे कलर्क हो, चाहे तहसीलदार हो चाहे मंत्री हो, प्रधानमंत्री हो, चाहे बहू हो चाहे सास हो, चाहे सेल्समैन हो चाहे ग्राहक हो, सब यही कर रहे हैं। फिर भी आम आदमी का प्रभाव वही जल में पैदा हुए बुलबुले की तरह बनता रहता है और मिटता रहता है। लेकिन जिन्होंने स्थायी तत्त्व में विश्रांति पायी है, उन आचार्यों का, उन ब्रह्मज्ञानियों का, उन कृष्ण का प्रभाव अब भी चमकता-दमकता दिखाई दे रहा है।

ख्वाजा दिल मुहम्मद ने लिखाः “रूहानी गुलों से बना यह गुलदस्ता हजारों वर्ष बीत जाने पर भी दिन दूना और रात चौगुना महकता जा रहा है। यह गुलदस्ता जिसके हाथ में भी गया, उसका जीवन महक उठा। ऐसे गीतारूपी गुलदस्ते को मेरा प्रणाम है। सात सौ श्लोकरूपी फूलों से सुवासित यह गुलदस्ता करोड़ों लोगों के हाथ गया, फिर भी मुरझाया नहीं।”

कनाडा के प्रधानमंत्री टुडो एवं ख्वाजा-दिल-मुहम्मद ही इसकी प्रशंसा करते हैं ऐसी बात नहीं, कट्टर मुसलमान की बच्ची और अकबर की रानी ताज भी इस गीताकार के गीत गाय बिना नहीं रहती।

सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम।

दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूँगी मैं।।

देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूँ भुलानी।

तजे कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी मैं।।

साँवला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिये।

तेरे नेह दाग में, निदाग हो रहूँगी मैं।।

नन्द के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै।

हूँ तो मुगलानी, हिन्दुआनी ह्वै रहूँगी मैं।।

अकबर की रानी ताज अकबर को लेकर आगरा से वृंदावन आयी। कृष्ण के मंदिर में आठ दिन तक कीर्तन करते-करते जब आखिरी घड़ियाँ आयीं, तब ‘हे कृष्ण ! मैं तेरी हूँ, तू मेरा है…’ कहकर उसने सदा के लिए माथा टेका और कृष्ण के चरणों में समा गयी। अकबर बोलता हैः “जो चीज जिसकी थी, उसने उसको पा लिया। हम रह गये….”

इतना ही नहीं महात्मा थोरो भी गीता के ज्ञान से प्रभावित हो के अपना सब कुछ छोड़कर अरण्यवास करते हुए एकांत में कुटिया में बनाकर जीवन्मुक्ति का आनन्द लेते थे। उनके शिष्य आकर देखते कि उनके गुरू के आसपास कहीं साँप घूमते हैं तो कहीं बिच्छू, फिर भी उन्हें कुछ भय नहीं, चिंता नहीं, शोक नहीं ! एक शिष्य ने आते ही प्रार्थना की कि “गुरूवर ! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपको सुरक्षित जगह पर ले जाऊँ।”

जिनका साहित्य गांधी जी भी आदर से पढ़ते थे, ऐसे महात्मा थोरो हँस पड़े। बोलेः “मेरे पास गीता का अदभुत ग्रंथ होने से मैं पूर्ण सुरक्षित हूँ और सर्वत्र आत्मदृष्टि से निहारता हूँ। मैंने आत्मनिष्ठा पा ली है, जिससे सर्प मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गीता के ज्ञान की ऐसी महिमा है कि मैं निर्भीक बन गया हूँ। वे मुझसे निश्चिंत है और मैं उनसे निश्चिंत हूँ।”

जीवन का दृष्टोकोण उन्नत बनाने की कला सिखाती है गीता ! युद्ध में जैसे घोर कर्मों में भी निर्लप रहना सिखाती है गीता ! कर्तव्यबुद्धि से ईश्वर की पूजारूप कर्म करना सिखाती है गीता ! मरने के बाद नहीं, जीते जी मुक्ति का स्वाद दिलाती है गीता !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 215

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कैंसर की गांठ तो क्या, अज्ञान-ग्रन्थि से भी मुक्त करा रहे हैं गुरुवर


परम पूज्य गुरूदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम !

मैं एक शिक्षिका हूँ और झारखण्ड में रहती हूँ। मेरा भाई रथीनपाल मैंगलोर (कर्नाटक) में एक एल्यूमीनियम की फैक्ट्री में कार्यरत है। वह पिछले तीन वर्षों से गले और जीभ के घाव से बहुत पीड़ित था। कुछ भी खाने पीने में उसे बहुत तकलीफ होती थी। काफी इलाज के बावजूद भी उसके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो रहा था। डॉक्टरों ने बताया कि यह गले का कैंसर है। भाई ने रोते हुए मुझे बताया कि ‘मुझे कैंसर है और मेरा जीवन समाप्त हो रहा है। अब मेरे छोटे छोटे बच्चों का क्या होगा ?’ मैंने सुनते ही पूज्य बापू जी से प्रार्थना की और भाई के जीवन की रक्षा का भार उन्हें सौंप दिया।

मुझ पर गुरुवर की कृपा हुई और सुबह चार बजे पूज्य बापू जी ने मुझे सपने में आदेश दिया कि ‘भाई को सात दिन तक रोज सुबह ग्यारह तुलसी के पत्ते खिला दे, ठीक हो जायेगा।’ सुबह होते ही मैंने भाई को फोन करके यह प्रयोग बताया। उसने खूब श्रद्धापूर्वक बापू जी की इस आज्ञा का पालन किया। सात दिन में ही गले की जलन तथा दर्द दूर हो गया। यह प्रयोग उसने 21 दिन तक किया। अब वह एकदम ठीक है। घाव का नामोनिशान तक नहीं है। कैसे समर्थ, दयालु और उदार हैं मेरे बापू जी, जो सपने में भी मार्गदर्शन देकर भक्तों की रक्षा करते हैं। ऐसे सर्वसमर्थ, भक्तवत्सल, करूणा-वरूणालय सदगुरू परम पूज्य बापू जी के श्रीचरणों में बारम्बार प्रणाम !

श्रीमती कृष्णा साव इचड़ासोल

जि. पूर्वी सिंहभूम, झारखण्ड।

मो. 09431341381

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सन 2007 की बात है। मेरे गले में कैंसर की गाँठ हो गयी थी, जिससे खाने-पीने, बोलने में काफी तकलीफ होती थी। इलाज चालू करवाया। केस बहुत सीरियस था। डॉक्टर ने कहा कि ‘ऐसे केस में ऑपरेशन सम्भव नहीं है।’

तब मैं मोटेरा स्थित बापू जी के आश्रम में गया और अपने गले के कैंसर की बात पूज्य गुरुदेव को बतायी। गुरुदेव ने मुझे आरोग्य मंत्र दिया। मैंने खूब श्रद्धापूर्वक उस मंत्र का जप शुरू किया। ‘श्री आसारामायण के 108 पाठ किये और आश्रम के धन्वंतरी आरोग्य केन्द्र से दवा ली। उससे चमत्कारि लाभ हुआ। गले की गाँठ धीरे-धीरे मिट गयी। यह देखकर डॉक्टरों को भी आश्चर्य हुआ। अभी मैं पूज्य बापू जी की कृपा से पूर्ण स्वस्थ हूँ। पूज्य बापू जी की महिमा का वर्णन कैसे करूँ ? मैं तो बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि गले की गाँठ तो क्या, वे हमें जन्मों-जन्मों से भटकाती आयी अज्ञान की गाँठ से भी मुक्त करा रहे हैं।

पूज्य गुरूदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।

हरेन्द्र कुमार चुनीलाल, नरोड़ा

अहमदाबाद (गुजरात)।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 32, अंक 215

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वीर्य कैसे बनता है ?


वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है। श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा हैः

रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।

मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।।

जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पाँच दिन बाद रक्त से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है। स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे ‘रज’ कहते हैं। इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है और 800 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है।

आकर्षक व्यक्तित्व का कारण

वीर्य के संयम से शरीर में अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने ‘ओज’ कहा है। यही ओज मनुष्य को परम लाभ-आत्मदर्शन कराने में सहायक बनता है। आप जहाँ-जहाँ भी किसी के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो वीर्यरक्षण का ही चमत्कार है।

एक स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 800 ग्राम भोजन के हिसाब से 40 दिन में 32 किलो भोजन करे तो उसकी कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी। महीने कि करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में खर्च होता है।

माली की कहानी

एक माली ने अपना तन मन धन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुंदर बगीचा तैयार किया, जिसमें भाँति-भाँति के मधुर सुगंधयुक्त पुष्प खिले। उन पुष्पों से उसने बढ़िया इत्र तैयार किया। फिर उसने क्या किया, जानते हो ? उस इत्र को एक गंदी नाली (मोरी) में बहा दिया। अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को, जिसकी सुगंध से उसका घर महकने वाला था, उसने नाली में बहा दिया ! आप कहेंगे कि ‘वह माली बड़ा मूर्ख था, पागल था…..’ मगर अपने-आप में ही झाँककर देंखें, उस माली को कहीं और ढूँढने की जरूरत नहीं है, हममें से कई लोग ऐसे ही माली हैं।

वीर्य बचपन से लेकर आज तक, यानी 15-20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज, बल और स्फूर्ति देता रहा। अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी, उसे यों ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ! क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो-चार बार यह भूल करने के बाद किसी के समझाने पर संभल भी गया होगा, फिर वही की वही भूल नहीं दोहरायी होगी परंतु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं। अंत में पश्चाताप ही हाथ लगता है। क्षणिक सुख के लिए व्यक्ति कामांध होकर बड़े उत्साह से इस मैथुनरूपी कृत्य में पड़ता है परंतु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है। होगा ही, उसे पता ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला केवल सुखाभास हुआ परंतु उसमें उसने 30-40 दिन की अपनी कमाई खो दी।

युवावस्था आने तक वीर्य संचय होता है। वह शरीर में ओज के रूप में स्थित रहता है। वीर्यक्षय से वह तो नष्ट होता ही है, साथ ही अति मैथुन से हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है, जिससे युवक अत्यधिक कमजोर होकर नपुंसक भी बन जाते हैं। फिर वे किसी के सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते। उनका जीवन नारकीय बन जाता है। वीर्यरक्षण का इतना महत्त्व होने के कारण ही कब मैथुन करना, किससे करना, जीवन में कितनी बार करना आदि निर्देश हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में दे रखे हैं।

सृष्टि क्रम के लिए मैथुनः एक प्राकृतिक व्यवस्था

शरीर से वीर्य-व्यय यह कोई क्षणिक सुख के लिए प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। संतानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है। यह सृष्टि चलती रहे इसके लिए संतानोत्पत्ति जरूरी है। प्रकृति में हर प्रकार की वनस्पति व प्राणिवर्ग में यह काम-प्रवृत्ति स्वभावतः पायी जाती है। इसके वशीभूत होकर हर प्राणी मैथुन करता है व उसका सुख भी उसे मिलता है किंतु इस प्राकृतिक व्यवस्था को ही बार-बार क्षणिक सुख का आधार बना लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ! पशु भी अपनी ऋतु के अनुसार ही कामवृत्ति में प्रवृत्त होते हैं और स्वस्थ रहते हैं तो क्या मनुष्य पशुवर्ग से भी गया बीता है ? पशुओं में तो बुद्धितत्त्व विकसित नहीं होता पर मनुष्य में तो उसका पूर्ण विकास होता है।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।

भोजन करना, भयभीत होना, मैथुन करना और सो जाना – ये तो पशु भी करते है। पशु-शरीर में रहकर हम यह सब करते आये हैं। अब मनुष्य-शरीर मिला है, अब भी यदि बुद्धि विवेकपूर्वक अपने जीवन को नहीं चलाया व क्षणिक सुखों के पीछे ही दौड़ते रहे तो अपने मूल लक्ष्य पर हम कैसे पहुँच पायेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 214

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