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नूतन वर्ष पर पुण्यमय दर्शन


(नूतन वर्षः 7 नवम्बर  2010)

पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

दीपावली का दिन वर्ष का आखिरी दिन है और बाद का दिन वर्ष का प्रथम दिन है, विक्रम सम्वत् के आरम्भ का दिन है (गुजराती पंचांग अनुसार)। उस दिन जो प्रसन्न रहता है, वर्ष भर उसका प्रसन्नता से जाता है।

‘महाभारत’ भगवान व्यास जी कहते हैं।

यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।

हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।

‘हे युधिष्ठिर ! आज नूतन वर्ष के प्रथम दिन जो मनुष्य हर्ष में रहता है, उसका पूरा वर्ष हर्ष में जाता है और जो शोक में रहता है, उसका पूरा वर्ष शोक में व्यतीत होता है।’

दीपावली के दिन, नूतन वर्ष के दिन मंगलमय चीजों का दर्शन करना भी शुभ माना गया है, पुण्य प्रदायक माना गया है। जैसेः

उत्तम ब्राह्मण, तीर्थ, वैष्णव, देव-प्रतिमा, सूर्यदेव, सती स्त्री, संन्यासी, यति ब्रह्मचारी, गौ, अग्नि, गुरु, गजराज, सिंह, श्वेत अश्व, शुक, कोकिल, खंजरीट (खंजन), हंस, मोर, नीलकंठ, शंख पक्षी, बछड़े सहित गाय, पीपल वृक्ष, पति-पुत्रवाली नारी, तीर्थयात्री, दीपक, सुवर्ण, मणि, मोती, हीरा, माणिक्य, तुलसी, श्वेत पुष्प, फल, श्वेत धान्य, घी, दही, शहद, भरा हुआ घड़ा, लावा, दर्पण, जल, श्वेत पुष्पों की माला, गोरोचन, कपूर, चाँदी, तालाब, फूलों से भरी हुई वाटिका, शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा, चंदन, कस्तूरी, कुंकुम, पताका, अक्षयवट (प्रयाग तथा गया स्थित वटवृक्ष), देववृक्ष (गूगल), देवालय, देवसंबंधी जलाशय, देवता के आश्रित भक्त, देववट, सुगंधित वायु, शंख, दुंदुभि, सीपी, मूँगा, स्फटिक, मणि, कुश की जड़, गंगाजी की मिट्टी, कुश, ताँबा, पुराण की पुस्तक, शुद्ध और बीजमंत्रसहित भगवान विष्णु का यंत्र, चिकनी दूब, रत्न, तपस्वी, सिद्ध मंत्र, समुद्र, कृष्णसार (काला) मृग, यज्ञ, महान उत्सव, गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोधूलि, गौशाला, गोखुर, पकी हुई खेती से भरा खेत, सुंदर (सदाचारी) पद्मिनी, सुंदर वेष, वस्त्र एवं दिव्य आभूषणों से विभूषित सौभाग्यवती स्त्री, क्षेमकरी, गंध, दूर्वा, चावल और अक्षत (अखंड चावल), सिद्धान्न (पकाया हुआ अन्न) और उत्तम अन्न-इन सबके दर्शन से पुण्यलाभ होता है।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्म खंड, अध्यायः 76 एवं 78)

लेकिन जिनके हृदय में परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे साक्षात् कोई लीलाशाहजी बापू जैसे, नरसिंह मेहता जैसे संत अगर मिल जायें तो समझ लेना चाहिए कि भगवान की हम पर अति-अति विशेष, महाविशेष कृपा है।

कबिरा दर्शन संत के साहिब आवे याद।

लेखे में वो ही घड़ी बाकी के दिन बाद।।

जिनको देखकर परमात्मदेव की याद आ जाय, ऐसे हयात महापुरुष अगर मिल जायें तो वह परम लाभकारी, परम कल्याणकारी माना जाता है। चेतन परमात्मा जिनके हृदय में प्रकट हुआ है, ऐसे संत का, सदगुरु का दर्शन जिनको मिल जाता है, उनको तो शिवजी के ये वचन याद करने चाहिएः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोदभवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

हे पार्वती ! उनकी माता धन्य है, उनके पिता धन्य हैं, उनका कुल और गोत्र धन्य है, कुलोदभवः अर्थात् जो उनके कुल में उत्पन्न होंगे वे भी धन्य हैं, क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी-ब्रह्मवेत्ता संतों का दर्शन, उनके वचन और भगवन्नाम के उच्चारण का लाभ उन्हें मिलता है, जिससे अंतःकरण की प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने लगती है।

भगवान श्री कृष्ण ने कहाः

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।

‘अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और इस प्रसन्न चित्तवाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।’ गीताः2.65

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 214

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नूरे – इलाही, शाहों के शाह


न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।

न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

‘आत्मवेत्ता गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं है, गुरु से अधिक कोई तप नहीं है और गुरु से विशेष कोई ज्ञान नहीं है। ऐसे श्री गुरुदेव को मेरा नमस्कार है।’

गुरुतत्त्व में जगे हुए महापुरुष परमात्मा का प्रकट रूप होते हैं। अंतर्यामी परमात्मा के अंतर्यामित्व का दर्शन करना हो तो ऐसे महापुरुषों के जीवन में ही उसे देख सकते हैं। एक तेजस्वी महापुरुष किसी जंगल में एकांतवास के लिए ठहरे हुए थे। तब एक मुसलमान माली उन्हें रोज देखता था। उनके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर माली के मन में होता कि ‘इन साधु को कुछ खिलाऊँ।’ परंतु मन ही मन शंका होती कि क्या पता, ये हिन्दू साधु मुसलमान के हाथ का कुछ खायेंगे कि नहीं !’ इस प्रकार कितने ही दिन बीत गये।

एक दिन वह मूली धो रहा था। इतने में तो वे साधु उसके आगे आकर खड़े हो गये और बोलेः “जो खिलाना हो, खिला। रोज-रोज सोचता रहता है तो आज अपनी इच्छा पूरी कर।”

वह मुसलमान माली तो आश्चर्यचकित हो उठा कि ‘इन साधु को मेरे मन की बात का पता कैसे चला !’ वह तो उन महापुरुष के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर कहने लगाः “सचमुच, आप नूरे इलाही हो ! आप शाहों के शाह हो ! मुझे दुआ करो।” ऐसा कहकर उसने बड़ी श्रद्धा और भावपूर्ण हृदय से दो मूली साफ करके, धोकर महाराज को दीं। संत श्री ने भी बड़े प्रेम से उन मूलियों को खाया। वह दृश्य देखने वालों को तो भगवान श्रीरामजी और शबरी भीलन के बेरों की याद आ गयी।

जानते हैं, वे अंतर्यामी, आत्मारामी स्वामी कौन थे ? वे थे भक्तवत्सल योगिराज स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज !

(भगवत्पाद स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज महानिर्वाण तिथिः 15 नवम्बर)

यदि वह संकल्प चलाये….

संसार-ताप से तप्त जीवों में शांति का संचार करने वाले, अनादिकाल से अज्ञान के गहन अन्धकार में भटकते हुए जीवों को ज्ञान का प्रकाश देकर सही दिशा बताने वाले, परमात्म-प्राप्तिरूपी मंजिल को तय करने के लिये समय-समय पर योग्य मार्गदर्शन देते हुए परम लक्ष्य तक ले जाने वाले सर्वहित चिंतक ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महिमा अवर्णनीय है।

वे महापुरुष केवल दिशा ही नहीं बताते वरन् चलने के लिए पगडंडी भी बना देते हैं, चलना भी सिखाते हैं, उंगली भी पकड़ाते हैं। जैसे माता पिता अपने बालक को कंधे पर उठाकर यात्रा पूरी करवाते हैं, वैसे ही वे कृपालु महापुरुष हमारी आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण कर देते हैं। भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज के जीवन की एक कृपापूर्ण घटना इस प्रकार हैः

स्वामी लीलाशाहजी ने स्वामी राम अवतार शुक्ला के गीता-व्याख्यान की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। अतः एक दिन वे उनसे मिलने उनके घर चल दिये। स्वामी राम अवतार जी की आयु 75 वर्ष के आसपास थी और उस दिन वे इस दुनिया से विदा लेने की तैयारी में थे। कुछ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था तो कुछ उस समय वहाँ मौजूद थे। स्वामी जी उनके सम्मुख खड़े होकर कहने लगेः “राम अवतारजी ! मैं इस विचार से आया हूँ कि आपके मुखारविंद से श्रीमद् भगवदगीता सुनूँ।”

उनकी नाजुक हालत देखकर स्वामी जी ने उनके परिवारवालों से कहाः “इन्हें एक गिलास पानी में नींबू का रस व शहद मिलाकर पिलाओ, ठीक हो जायेंगे।”

वहाँ पर खड़े डॉक्टरों ने कहाः “इनका अंतिम समय आ चुका है, नींबू शहद का पानी पीने से तो ये और जल्दी दुनिया से चले जायेंगे।”

राम अवतार जी ने धीरे से कहाः

“ठीक है, पिलाओ।”

लीलाशाहजी महाराज ने कमण्डलु से थोड़ा जल हाथ में लिया, उसमें निराहार संकल्प करके दे दिया। पानी में नींबू-शहद मिलाकर पिलाया गया। स्वामी जी ने चलते चलते राम अवतार जी से कहाः “परसों सुबह मेरे पास आना।” और आश्चर्य ! वे कुछ ही घंटों में एकदम ठीक हो गये।

संत जब अपने ब्रह्मस्वभाव में स्थित होकर कुछ कह दें तो वह बाह्यदृष्टि से विपरीत परिणामवाला होने पर भी श्रद्धावान के लिए अनुकूल हो जाता है। आज्ञानुसार राम अवतारजी श्रीचरणों में पहुँचे और स्वामी जदी को अष्टांग प्रणाम करके गीता पर व्याख्यान किया। उस दिन से राम अवतार जी प्रतिदिन नियम से पूज्यपाद स्वामी श्रीलीलाशाहजी महाराज को श्रीमद भगवदगीता सुनाने आते थे।

ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करने के बाद संतों को शास्त्र पढ़ने-सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे जो बोलते हैं, वह शास्त्र बन जाता है। फिर भी दूसरों के कल्याण के निमित्त जो घटना घटती ह, वह उनकी लीला होती है। फिर चाहे वह लीला सत्संग सुनने की हो या सुनाने की हो, मौज है उनकी ! माता पिता की तरह कदम-कदम पर हमारी सँभाल रखने वाले, सर्वहितचिंतक, समता के सिंहासन पर बैठाने वाले ऐसे परम दयालु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों को कोटि-कोटि वंदन….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,17 अंक 214

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मधुर चिंतन


(आत्ममाधुर्य से ओतप्रोत बापू जी की अमृतवाणी)

वशीभूत अंतःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित और अपनी वशीभूत इन्द्रियों के द्वारा विषयों मे विचरण करता हुआ भी प्रसन्नता को प्राप्त होता है। वह उनमें लेपायमान नहीं होता, उसका पतन नहीं होता। जिसका चित्त और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वह चुप होकर बैठे तो भी संसार का चिंतन करेगा। ज्ञानी संसार में बैठे हुए भी अपने स्वरूप में डटे रहते हैं।

भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. श्री राधाकृष्णन् अच्छे चिंतक माने जाते हैं। उन्होंने एक कहानी लिखी हैः

एक भट्ठीवाला था। उसको हररोज स्वप्न आता कि मैं चक्रवर्ती सम्राट हूँ। वह अपना काम निपटाकर जल्दी जल्दी सो जाता, उस मधुर स्वप्नलोक में जाने के लिए। बाहर के जगत में तो वह भट्ठीवाला था, उसके पास खाने-पीने को भी पर्याप्त नहीं था। गुजारा चलाने के लिए उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ता था परंतु धीरे-धीरे वह स्वप्न में सुखी होना लगा तो बाहर के जगत में रूचि कम होने लगी।

प्रतिदिन स्वप्न में देखता कि ‘मैं चक्रवर्ती सम्राट बन गया हूँ। छोटे-छोटे राजा लोग मेरी आज्ञा में चलते हैं। छनन छनन करते हीरे जवाहरात के गहनों से सजी ललनाएँ चँवर झुला रही हैं।

एक दिन स्वप्न में वह पेशाब करने के लिए उठा तो पास में जलती हुई भट्ठी में पैर पड़ गया। जलन के मारे वह चिल्ला उठा। सो तो रहा था भट्ठियों के बीच लेकिन स्वप्न देख रहा था कि सम्राट है, इसलिए वह सुखी था।

किसी भी परिस्थिति में आदमी का मन जैसा होता है, सुख-दुःख उसे वैसे ही प्रतीत होते हैं। ज्ञानी का मन परब्रह्म में होता है तो वे संसार में रहते हुए, सब व्यवहार करते हुए भी परम सुखी हैं, ब्रह्मज्ञान में मस्त हैं।

मनुष्य का शरीर कहाँ है, इसका अधिक मूल्य नहीं है। उसका चित्त कहाँ है, इसका अधिक मूल्य है। चित्त परमात्मा में है और आप संसार में रहते हैं तो आप संसार में नहीं हैं, परमात्मा में हैं। प्रभातकाल में जब उठो तब आँख बंद करके ऐसा चिंतन करो कि ‘मैं गंगा किनारे गया। पवित्र गंगा मैया में गोता लगाया। किसी संत के चरणों में सिर झुकाया। उन्होंने मुझे मीठी निगाहों से निहारा।

पाँच मिनट ऐसा मधुर चिंतन करो। आपका हृदय शुद्ध होने लगेगा, भाव पवित्र होने लगेंगे। सुबह उठकर देखे हुए सिनेमा के दृश्य याद आयें- ‘आहाहा…. वह मेरे पास आयी, मुझसे मिली….’ आदि-आदि तो देखो, सत्यानाश हो जायेगा। कल्पना तो मन से होगी किंतु तन पर भी प्रभाव पड़ जायेगा। कल्पना में कितनी शक्ति है ! संत-महात्मा-सदगुरु परमात्मा के साथ विचरते हैं, समाधि लगाते हैं, उनका स्मरण-चिंतन करते हैं तो हृदय आनंदित होता है।

बुल्ला साहब नाम के एक बड़े प्रसिद्ध संत हो गये। जब वे घर में रहते थे तब उनका नाम था बुलाकीराम। गरीब, अनपढ़ बुलाकीराम उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में जमींदार गुलाल साहब के यहाँ हल चलाने का काम करते थे।

बुलाकी राम ने भगवान को पाने का इरादा बना लिया। जिसे भगवान को पाना हो उसे संतों का दर्शन, सत्संग व उनकी सेवा करनी चाहिए।

बुलाकी राम खेत में हल चलाते-चलाते थोड़ी देर रुकते ताकि बैलों को आराम मिले। एक दिन दोपहर का समय था। वे खेत के किनारे मेंड़ पर बैठे आँखें बंद करके ध्यान कर रहे थे। गुलाल साहब आये तो देखा कि ‘बैल तो ऐसे ही खड़े हैं ! इन हल में जुते बैलों की छुट्टी करके, उन्हें बाँध के बुलाकीराम कहाँ चला गया ?’ जैसे नौकर काम के समय काम न करे, और कहीं बैठा हो तो सेठ को गुस्सा आता है, ऐसे ही गुलाल साहब को गुस्सा आया। वे चिल्लाने लगेः “बुलाकीराम ! बुलाकीराम !! ओ बुलाकी राम !!!…” अब बुलाकीराम तो ध्यानमग्न थे। इधर-उधर देखते-देखते गुलाल साहब जब निकट पहुँचे तो देखा कि बुलाकीराम मेंड़ पर बैठा है और हाथ में लोटा पकड़े हुए हैं। जमींदार को आया गुस्सा कि ‘मैं इतना चिल्लाता हूँ तो भी जवाब नहीं देता है !’ उसने उनकी पीठ पर जोर से एक लात मारी तो लोटा टेढ़ा हो गया, ‘अरे ! मैंने लात मारने से पहले देखा था तो लोटे में पानी था। फिर यह अचानक दही कैसे बन गया !’

बुलाकीराम ने आँखें खोलीं और देखा कि मेंड़ पर दही गिरा हुआ है। जमींदार ने पूछाः

“बुलाकीराम ! यह क्या है ?”

बोलेः “मैं ध्यान-ध्यान में संतों को मानसिक भोजन करा रहा था। दाल बनायी, रोटी सब्जी बनायी फिर सोचा कि गर्मी है तो संतों को दही चाहिए। यह पानी लेकर इस भावना से कि यह दही है, मन नही मन मैं संतों के पास दही परोसने जाना चाहता था। दही परोसना ही चाहता था कि इतने में आपकी लात लगी और दही ढुल गया।”

भगवान का चिंतन करने वाले के मन में यह कैसा सामर्थ्य है कि पानी में से दही बना दे ! लोफर में से भक्त बना दे ! चंचल में से साधक बना दे ! भगवान में मन लगाने वाले के मन में बड़ी अदभुत कला, लीला, योग्यता होती है।

वह जमींदार गुलाल साहब बुलाकीराम के चरणों पर गिर पड़ा और बुलाकीराम का शिष्य बन गया। नौकर बुलाकीराम फिर नौकर नहीं रहे, भगवान की तरफ ऐसे चले की संत बुल्ला साहब हो गये। यह घटित घटना है।

कहाँ तो हल चलानेवाला, रूखी रोटी खाने वाला एक गरीब और भक्तिभाव से भगवान को, संतों को भोग लगात है तो पानी में से दही बन जाता है ! जो भगवान को चाहता है, भगवान उनके अनुकूल हो जाते हैं और उनके पाँच भूत भी उसके अनुकूल हो जाते हैं। हो गये न पाँच भूत अनुकूल ! हुए कि नहीं हुए ? लेकिन हम भगवान से चाहते हैं कि ‘फैशन से, आराम से रहें। यह हो जाये, वह हो जाय…..’ तो वह तो हो जाता है लेकिन फिर वही आदत पड़ जाती है और भगवान छूट जाते हैं। हम भगवान से संसारी चीजें माँगकर संसार के खड्ढे में गिर जाते हं। आप तो प्रभु में रहो और दूसरों को प्रभु में लगाओ। जब एक गरीब इतना महान संत बन सकता है तो तुम नहीं बन सकते क्या ! अवश्य बन सकते हो ! संकल्प में, शुद्ध चिंतन में अमोघ शक्ति है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 214

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