पूज्य बापू जी की अमृतवाणी
गणेशपुरी (महाराष्ट्र) में मुक्तानंद बाबा हो गये। उनके गुरु का नाम था नित्यानंद स्वामी। नित्यानंद जी के पास एक भक्त दर्शन करने के लिए आता था। उसका नाम था देवराव। वह काननगढ़ में मास्टर था। देवराव खूब श्रद्धा-भाव से अपने गुरु को एकटक देखता रहता था।
सन् 1955 की घटना है। वह नित्यानंद जी से पास आया और कुछ दिन रहा। बाबा जी से बोलाः
“बाबा ! अब मैं जाता हूँ।”
बाबा ने कहाः “नहीं-नहीं, अभी कुछ दिन और रहो, सप्ताह भर तो रहो।”
“बाबा ! परीक्षाएँ सामने हैं, मेरी छुट्टी नहीं है। जाना जरूरी है, अगर आज्ञा दो तो जाऊँ।”
“आज नहीं जाओ, कल जाना और स्टीमर में बैठो तो फर्स्ट क्लास की टिकट लेना। ऊपर बैठना, तलघर में नहीं, बीच में भी नहीं, एकदम ऊपर बैठना।”
“जो आज्ञा।”
एक शिष्य ने पूछाः “बाबा ! साक्षात्कार का सबसे सरल मार्ग कौन-सा है ? हम जैसों के लिए संसार में ईश्वरप्राप्ति का रास्ता कैसे सुलभ हो ?”
बाबा ने कहाः “सद्गुरु पर दृढ़ श्रद्धा बस !” गुरुवाणी में आता हैः
सति पुरखु जिनि जानिआ
सतिगुरु तिस का नाउ।
तिस कै संगि सिखु उधरै
नानक हरिगुन गाउ।।
जिसने अष्टधा प्रकृति के द्रष्टा सत्पुरुष को पहचाना है, उसी को सद्गुरु बोलते हैं। उसके संग से सिख (शिष्य) का उद्धार हो जाता है। बाबा ने अपने सिर से एक बाल तोड़कर उसके एक छोर को अपनी उँगली में लगाकर दिखाते हुए बोलेः “सद्गुरु के प्रति इतनी भी दृढ़ श्रद्धा हो तो तर जायेगा। जिसने सत् को जाना है, ऐसे सद्गुरु के प्रति बाल भर भी पक्की श्रद्धा हो, उनकी आज्ञा का पालन करो तो बस हो जायेगा। कठिन नहीं है।”
संत कबीर जी ने भी कहा हैः
सद्गुरु मेरा सूरमा, करे शब्द को चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।
कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।।
भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग, योगमार्ग और एक ऐसा मार्ग है कि जो महापुरुषों के प्रति श्रद्धा हो और उनके वचन माने तो वह भी तर जाता है। इसको बोलते हैं संत-मत।
देवराव ने गुरु जी की आज्ञा मानी। स्टीमर में एकदम ऊपरी मंजिल की टिकट करायी। स्टीमर दरिया में चला। कुछ दूर चलने पर स्टीमर डूबने के कगार पर आ गया। कप्तान ने वायरलेस से खबर दी और मदद माँगी। मदद के लिए गोताखोर, नाव और जहाज आदि पहुँचे, उसके पहले ही तलघर में पानी भर गया।, बीचवाले भाग में भी पानी भर गया लेकिन देवराव ने तो अपने गुरु की बात मानकर ऊपर की टिकट ली थी तो ऊपर से देखते रहे। इतने में मददगार आ गये और वे सही सलामत बच गये। गुरु लोग वहाँ (परलोक) का तो ख्याल रखते हैं लेकिन यहाँ (इहलोक) का भी ख्याल रखते हैं। अगर कोई उनकी आज्ञा मानकर चले तो बड़ी रक्षा होती है। योग्यता का सदुपयोग करे, संसार की चीजों की चाह को महत्त्व न दे और धन, सत्ता आदि किसी बात का अभिमान न करे। बाल के अग्रभाग जितना भी यदि दृढ़तापूर्वक गुरु आज्ञा का पालन करे तो शिष्य भवसागर से पार हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 223
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