जैसे कोई फैक्ट्री बनाता है तो उद्देश्य पैसा कमाना होता है, कोई चुनाव लड़ता है तो उद्देश्य पद का होता है, ऐसे ही भगवान का उद्देश्य क्या है ?
भगवान ने हमें दास बनाने के लिए अथवा संसारी पिट्ठू बनने के लिए जन्म नहीं दिया। हमने अपनी अक्ल-होशियारी से, अपने बलबूते से यह शरीर नहीं बनाया। हमने अपने-आप यह नहीं रचा है और शरीर जिनसे रचा गया वे हमारी अपनी वस्तुएँ नहीं हैं। यह सृष्टिकर्ता की सृष्टि प्रक्रिया की व्यवस्था है। तो क्या उद्देश्य होगा उसका जिसने शरीर दिया है ?
उस शरीर को पालने की जिम्मेदारी भी होती है। हम जन्मेंगे तो क्या पियेंगे, क्या खायेंगे, कैसे मिलेगा इसकी न हमने, न माँ-बाप ने चिंता की। तो शरीर को पोषित करने की व्यवस्था की जिम्मेदारी भगवान की है, बिल्कुल सच्ची बात है। अन्न, जल और श्वास से हमारा निर्वाह होता है, उस निर्वाह की व्यवस्था ईश्वर ने अपने जिम्मे ले रखी है। किंतु वासना-निर्वाह हो, जैसे – कपड़े हों तो ऐसे हों, आवास हो तो ऐसा बढ़िया हो – इस वासनापूर्ति का उसने ठेका नहीं ले रखा। निर्वाह का उसका ठेका है और निर्वाह सभी का होता है, अनपढ़ का भी, पढ़े हुए का भी। पुण्यात्मा का भी और पापी का भी निर्वाह होता है। शरीर का निर्वाह सहज में होता है। इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। ‘बेटी का क्या होगा, बेटे का क्या होगा, हमारा क्या होगा ?….’ निर्वाह की जिम्मेदारी ईश्वर की है। ईश्वर का उद्देश्य है कि ‘हमारा जीवन रसमय, सुखमय एवं तृप्त हो।’ जैसे बच्चा दूध पीकर तृप्त होता है। मनुष्य अन्न और गाय भैंस चारा खाकर तृप्त होते हैं। तो निर्वाह से तृप्ति की जिम्मेदारी ईश्वर की है। ऐसे ही हम अपनी दुर्वासनाओं से बचने के लिए अगर ईश्वर-सत्ता को स्वीकार करें, ईश्वर करूणा को स्वीकार करें, ईश्वर के उद्देश्य में हम अपनी हाँ मिला दें तो मुक्ति पाना सहज है। शराबी, जुआरी, भँगेड़ी अपने संग में आने वाले को अपने रंग से रंग डालते हैं, ऐसे ही ईश्वर मुक्त हैं, आनंदस्वरूप हैं, उनका चिंतन करने वाला भी मुक्तात्मा, आनंदस्वरूप हो जाता है। हम अपनी तरफ से बाधा छोड़ दें तो मुक्ति तो मुफ्त में ही है।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चितो युक्त आसीत मत्परः।। (गीताः 6.14)
प्रशांतात्मा प्र उपसर्ग है – आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक – ये मानसिक शांतियाँ नहीं – परम शांति मिल जाती है।
जैसे ब्रह्मचारी गुरु के आश्रम में विद्या के लिए ठहरता है और फिर सेवा करता है तथा विद्या के लिए तत्पर होता है। ऐसे ही भगवान की जो ब्रह्मविद्या है, भगवान हमें जो ब्रह्मविद्या देना चाहते हैं, प्रेमाभक्ति के दवारा ज्ञानयोग के द्वारा, सेवायोग के द्वारा उसमें हम अड़चन न बनें। हम अपनी कल्पना न करें कि ‘भगवान ऐसे हैं अथवा भगवान ऐसा कर दें, ऐसा दें दें।’ नहीं-नहीं, ‘तेरी मर्जी पूरण हो। वाह प्रभु ! वाह !!’ अपमान हो गया, वाह ! अनुकूलता आ गयी, वाह ! प्रतिकूलता आ गयी, वाह ! थोड़े दिन यह प्रयोग करके देखो, आपको लगेगा कि ‘हम तो खामखाह परेशान हो रहे थे।’ यशोदा यश दे रही है ठाकुरजी को। नंदबाबा विवेक हैं तो यशोदा जी यशदात्री हैं। व विवेक का तो हाथ पकड़ते हैं श्रीकृष्ण लेकिन यशदात्री मति के तो हृदय से लगते हैं। यशोद कृष्ण को हृदय से लगाती रहती हैं। आप ईश्वर की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ करते जाओ। यश उसे देते जाओ, ‘वाह प्रभु ! बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया।’ तो आपके हृदय से भगवान चिपके रहेंगे। कठिन नहीं है। कठिनाई, अड़चन तो तब बनती है जब इस बदलने वाले मिथ्या व्यवहार, मिथ्या जगत को सच्चा मानते हैं और अबदल अंतरात्मा कृष्ण को दूर मानते हैं, दो हाथ-पैरवाला मानते हैं, तब हम अड़चन की तानाबुनी करते हैं।
गोपियों का क्या भाग्य रहा होगा ! अरे, हम भी तो ग्वाल-गोपियाँ ही हैं। ‘गो’ माने इन्द्रियाँ। इन्द्रियों के द्वारा जो भगवद् रस पी ले वह गोपी है और गोप है। योगी समाधि से शांति रस पीता है, ध्यान रस पीता है लेकिन जो भगवान को धन्यवाद देकर अपनी पकड़, वासना छोड़ देता है वह गोपी है। अभी आप ईश्वर को धन्यवाद देते जाओः ‘क्या तेरी लीला है ! क्या तेरा आनंद है !’ और ‘तेरा-तेरा’ अभी कह रहे हैं, कुछ समय बीतेगा तो अपना ‘मैं’पन मिटेगा तो ईश्वर का ‘तेरा’पन भी मिटेगा। हम न तुम, दफ्तर गुम ! दूरी मिट जायेगी। साधन में शुरुआत में ‘वे भगवान हैं, दयालु हैं, वे ऐसे हैं’, तृतीय पुरुष सर्वनाम चलता है। फिर द्वितीय पुरुष सर्वनाम – ‘तुम दयालु हो, तुम ऐसे हो, तुम मेरे हो’ और फिर आगे चलकर ‘तुम-तुम’ क्या, हम न तुम दफ्तर गुम…. ‘वह मेरा ही स्वरूप है।’
सौ बार तेरा दामन, हाथों में मेरे आया।
जब आँख खुली देखा, अपना ही गिरेबाँ है।।
आपका भाव उस रूप में हो जाता है। भाव की गहराई में जाओ तो आपका परेश्वर ही आपका आत्मा है। दूर नहीं, दुर्लभ नहीं !
आप केवल ठान लो। आप ठान लो कि ‘यह शरीर हम नहीं है।’ वास्तव में जब तुम किसी को देखते तो शरीर दिखता है कि अविनाशी तत्त्व ! तो हम आपको मानना पड़ेगा कि शरीर दिखता है। भगवान कहते हैं कि ‘शरीर को जिससे देखते हो वह ‘मैं’ हूँ। कितना निकट हूँ ! कहाँ रहा मैं तुमसे दूर !’ ऐसे ही आप भगवान को देखते हो कि भगवान की मूर्ति को देखते हो ? भगवान की मूर्ति जिससे दिखती है वही तो भगवान है ! वह छुपाछुपी के खेल में दूर लगता है वरना हाजरा-हुजूर, जागंदी ज्योत… ज्ञानस्वरूप है, चैतन्यस्वरूप है, आनंदस्वरूप है, अपना-आपा है और वह अपने-आप की याद दिलाता रहता है। जैसे निर्वाह की उसकी जिम्मेदारी, ऐसे अपने स्वरूप का प्रसाद देने की भी उसकी जिम्मेदारी है। जैसे माँ-बाप की जिम्मेदारी होती है न, कि बच्चे का पालन-पोषण करें। केवल पालन-पोषण नहीं, पढ़ाना-लिखाना भी वे करते हैं। ऐसे ही अपनी विद्या देने को भी परमात्मा की अपनी जिम्मेदारी है। हम उसके हैं। हम अपनी तरफ से जब वासना के आवेग में आते हैं तो वह बोला है, ‘अच्छा, कर लो बेटे !’ जब समझते हैं कि अपनी वासना के चक्कर में आ-आकर कीट-पतंग बनना, नीच योनियों में जाना है। ‘नहीं बाबा ! तेरी मर्जी पूरण हो। ऐ वासना दूर हट !….’ वासना को हटाने के लिए ऊँची वासना की जाती है। ‘यह मिल जाय, वह मिल जाय….’ – इस वासना को मिटाने के लिए ‘हे परमेश्वर ! मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि तुममें विश्रांति पाऊँगा ?’ ऐसे काँटे से काँटा निकालो। सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाकर, उनके उद्देश्य से अपना उद्देश्य मिलाकर मुक्तात्मा हो जाओ, यही भगवान का उद्देश्य है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 225
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