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भगवत्प्राप्त महापुरुषों की मनोहर पुष्पमालिका के दिव्य पुष्पः प्रातःस्मरणीय पूज्य संत श्री आसारामजी बापू


(अवतरण दिवसः 23 अप्रैल 2011)

मानवमात्र आत्मिक शांति हेतु प्रयत्नशील है। जो मनुष्य-जीवन के परम-लक्ष्य परमात्मप्राप्ति तक पहुँच जाते हैं, वे परमात्मा में रमण करते हैं। जिनका अब कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया है, जिनको अपने लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है, जिनका अस्तित्वमात्र लोक-कल्याणकारी बना हुआ है, वे संत-महापुरुष कहलाते हैं, क्योंकि उनमें परमात्म-तत्त्व जगा है। महान इसलिए क्योंकि वे सदैव महान तत्त्व ‘आत्मा’ में अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में स्थित होते हैं।

यही महान तत्त्व, आत्मतत्त्व जिस मानव-शरीर में खिल उठता है वह फिर सामान्य शरीर नहीं कहलाता। फिर उन्हें कोई भगवान व्यास, आद्य शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, संत कबीर तो कोई भगवत्पाद पूज्य लीलाशाहजी महाराज कहता है। फिर उनका शरीर तो क्या, उनके सम्पर्क में रहने वाली जड़ वस्तुएँ वस्त्र, पादुकाएँ आदि भी पूज्य बन जाती हैं !

इस अवनितल पर विशेषकर इस भारतभूमि का तो सौभाग्य ही रहा है कि यहाँ अति प्राचीनकाल से लेकर आज तक ऐसी दिव्य विभूतियों का अवतरण होता ही रहा है। आधुनिक काल में भी संत-अवतरण की यह दिव्य परम्परा अवरुद्ध नहीं हुई है। आज भी ऐसे महान संतों से यह तपोभूमि भारत वंचित नहीं है, यह हमारे और मानव-जाति के लिए परम सौभाग्य की बात है।

पूज्य संत श्री आसारामजी बापू भी संतों की ऐसी मनोहर पुष्पमालिका के एक पूर्ण विकसित, सुरभित, प्रफुल्लित पुष्प हैं। पूज्य श्री अमाप आत्मिक प्रेम के स्रोत हैं। उनके चहुँओर ओर एक ऐसा प्रेममय आत्मीयतापूर्ण वातावरण हर समय रहता है कि आने वाले भक्त-श्रद्धालुजन निःसंकोच अपने अंतर से वर्षों से दबे हुए दुःख, शोक तथा चिंताओं की गठरी खोल देते हैं और हलके हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं- “बापू जी ! आपके पास न मालूम ऐसा कौन सा जादू है कि हम फिर-फिर से आये बिना नहीं रह पाते।”

पूज्यश्री कहते हैं- “भाई ! मेरे पास ऐसा कुछ भी जादू या गुप्त मंत्र नहीं है। जो संत तुलसीदास जी, संत कबीरजी के पास था वही मेरे पास भी है। वशीकरण मंत्र प्रेम को…..

बस इतना ही मंत्र है। सबको प्रेम चाहिए। वह प्रेम मैं लुटाता हूँ। सब कुछ तो पहले ही लुटा चुका हूँ इसलिए मुझे ऐसा अखूट प्रेम का धन ‘आत्मधन’ मिला है कि उसे कितना भी लुटाओ, खुटता नहीं, समाप्त नहीं होता। लोग अपने-अपने स्वार्थ को नाप-तौलकर प्रेम करते हैं किंतु इधर तो कोई स्वार्थ है नहीं। हमने सारे स्वार्थ उस परम प्यारे प्रभु के स्वार्थ के साथ एक कर दिये हैं। जिसके हाथ में सबके प्रेम और आनन्द की चाबी है उस प्रभु को हमने अपना बना लिया है, इसलिए मुक्तहस्त प्रेम बाँटता हूँ। आप भी सबको निःस्वार्थ भाव से, आत्मभाव से देखने और प्रेम करने की यह कला सीख लो।”

ऐसे महापुरुष जिस ईश्वरीय आनंद में सदा मग्न रहते हैं, वही आनंद वे अपने आसपास भी लुटाते रहते हैं। जो ठीक ढंग से उन्हें थोड़ा भी समझ पाते हैं, वे उनसे लाभ लेकर साधना में आगे बढ़ते रहते हैं।

जिनका अहं गल गया है, जो भीतर से मिटे हैं, जिनका देहाध्यास विसर्जित हो चुका है ऐसे महापुरुषों के द्वारा ही विश्व में महान कार्यों का सृजन होता रहता है। ऐसे संतों के कारण ही इस पृथ्वी में रस है और दुनिया में जो थोड़ी-बहुत खुशी और रौनक देखने को मिलती है वह भी ऐसे महापुरुषों के प्रकट या गुप्त अस्तित्त्व के कारण ही है। ‘जिस क्षण विश्व से ऐसे महापुरुषों का लोप होगा, उसी क्षण दुनिया घिनौना नरक बन जायेगी और शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी।’ – ऐसा स्वामी विवेकानन्द ने कहा था।

विनोद-विनोद में ऐसे महापुरुष मनुष्यों को आत्मज्ञान का जो अमृत परोसते जाते हैं, उसका संसार में कोई मुकाबला नहीं है।

पूज्य बापू जी का जीवन इस धरती पर मनुष्य जाति के लिए दिव्य प्रेरणा स्रोत है, आनंद का अखूट झरना है। उनका सान्निध्य संसार के लोगों के हृदयों में ज्ञान की वर्षा करता है, उन्हें शांतिरस से सींचता है, प्रेम को पल्लवित करता है, सूझबूझ को सात्त्विक रस से खींचता है, समत्व की सुरभि, विवेक का प्रकाश तथा श्रद्धा और सजगता का सत्त्व भरता है। उनके सत्संग-सान्निध्य और आत्मिक दृष्टिपातमात्रक से लोगों के हृदय में स्फूर्ति तथा नवजीवन का संचार होता है। उनकी हर अँगड़ाई तथा क्रिया में मानव का हित छिपा रहता है। उनके दर्शनमात्र से जीवन से निराश और मुरझाये हुए लाखों-लाखों हृदय नवीन चेतना लेकर खिल उठते हैं। जैसे विशाल समुद्र में कोई जहाज भटक जाय, उसी प्रकार संसार की भूलभुलैया में भटके हुए लोगों के लिए पूज्य श्री का जीवन एक दिव्य प्रकाश-स्तम्भ है। उनके सान्निध्य में आने वाला हर व्यक्ति उनकी महस के महक उठता है।

पूज्य बापू जी एक ऐसे विशाल वटवृक्ष की भाँति इस धरती पर फैले हुए खड़े हैं, जिसके नीचे हजारों-हजारों यात्राओं तथा दुःखों के ताप से, संसार से तप्त हुए लोग विश्राम ले-लेकर अपने वास्तविक गंतव्य स्थान की ओर गति कर रहे हैं। देवर्षि नारद जी कहते हैं-

संसारतापे तप्तानां योगः परमौषधः।

संसार के त्रिविध तापों से तपे हुए लोगों के लिए पूज्य बापू जी का सत्संग-योग परम अमृत का काम करता है। रंक से लेकर राजा तक और बाल से लेकर वृद्ध तक सभी पूज्य श्री की कृपा के पात्र बनकर अपने जीवन को ईश्वरीय सुख की ओर ले जा रहे हैं। अमीर-गरीब, सभी जाति, सभी सम्प्रदाय, सभी धर्मों के लोग उनके ज्ञान का, आत्मानंद का, आत्मानुभव और योग-सामर्थ्य का प्रसाद लेते हैं। वह स्थान धन्य है जिनकी कोख से वे प्रकट हुए हैं। वह मनुष्य बड़भागी हैं जो उनके सम्पर्क में आता है। वह वाणी धन्य है जो उनका स्तवन करती है। वे आँखें धन्य हैं जो उनका दर्शन करती है और वे कान धन्य हैं जिनको उनके उपदेशामृत-पान करने का अवसर मिलता है।

वे सदैव परमात्मा में स्थित रहते हुए जगत के अनंत दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए ज्ञान, भक्ति, योग, कीर्तन, ध्यान, आनंद-उल्लास की धारा बहाते रहते हैं, समस्त दुःखों के मूल अज्ञान का नाश करते हैं। उनकी वाणी से निरंतर ज्ञानामृत झरता है। वे जो उपदेश देते हैं वह पावन शास्त्र हो जाता है। उनके नेत्रों से प्रेममयी, शीतल, सुखद ज्योति निकलती है। उनके हृदय से प्रेम तथा आत्मानंद के स्रोत(झरने) फूटते हैं। उनके मस्तिष्क से विश्व-कल्याण के विचार प्रसूत होते हैं। जिस पर उनकी दृष्टि पड़ती है, उसके मन, बुद्धि, अंतःकरण पावन होने लगते हैं। जो उनके सम्पर्क में आ जाता है, वह पाप-ताप से मुक्त होकर पवित्रात्मा होने लगता है। उपनिषद कहती हैः

यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।

स्थावराणापिमुच्यंते किं पुनः प्राकृता जनाः।।

‘ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !’

उन महापुरुषों के भीतर इतना आनंद भरा होता है कि उन्हें आनंद हेतु संसार की ओर आँख खोलने की भी इच्छा नहीं होती। जिस सुख के लिए संसार के लोग अविरत भागदौड़ करते हैं, रात दिन एक कर देते हैं, एड़ी से चोटी तक का पसीना बहाते हैं फिर भी वास्तविक सुख नहीं ले पाते केवल सुखाभास ही उन्हें मिलता है, वह सच्चा सुख, वह आनन्द उन महापुरुषों में अथाह रूप से हिलोरें लेता है और उनका सत्संग-दर्शन करने वालों पर भी बरसता रहता है।

धन्य है ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपने सब स्वार्थों की, मोह-ममता की, अहं की होली जला दी और परमात्म-ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचकर दुस्तर माया से पार हो गये तथा मनुष्य-जीवन के अंतिम लक्ष्य उस परम निर्भय आत्मपद में आरूढ़ हो गये। लाख-लाख बंदन हैं ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों को जो संसार के त्रिताप से तपे लोगों को उस परम निर्भय पद की ओर ले चलते हैं। कोटि-कोटि प्रणाम हैं ऐसे महापुरुषों को जो अपने एकांत को न्योछावर करके, अपनी ब्रह्मानंद की मस्ती को छोड़कर भी दूसरों की भटकती नाव को किनारे ले जा रहे हैं। हम स्वयं आत्मशांति में तृप्त हों, आत्मा की गहराई में उतरें, सुख-दुःख के थपेड़ों को सपना समझकर उनके साक्षी सोऽहं स्वभाव का अनुभव करके अपने मुक्तात्मा जितात्मा, तृप्तात्मा स्वभाव का अनुभव कर पायें, उसे जान पायें – ऐसी उन महापुरुष के श्रीचरणों में प्रार्थना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 220

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थोड़ा रुको, बुद्धि से विचारो !


भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज

ब्रह्मचारी इन्सान शेर जैसे हिंसक जानवर को भी कान से पकड़ लेते हैं। वीर्य की शक्ति द्वारा ही परशुरामजी ने कई बार क्षत्रियों का नाश किया था, ब्रह्मचर्य के बल पर ही हनुमानजी ने लंका पार करके माता सीता की जानकारी प्राप्त की थी। इस ब्रह्मचर्य के बल द्वारा ही भीष्म पितामह कई महीनों तक तीरों की सेज पर सो सके थे। इसी शक्ति द्वारा लक्ष्मण जी ने मेघनाद पर विजय प्राप्त की थी।

दुनिया में जो भी सुधारक, ऋषि मुनि, महात्मा, योगी हुए हैं उन सभी ने ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही लोगों के दिल जीते हैं। अतः वीर्यरक्षा ही जीवन और उसका नाश मृत्यु है।

आजकल युवा पीढ़ी की हालत देखकर हमें अफसोस होता है। सयोंग से कोई ऐसा नौजवान होगा जो वीर्यरक्षा का ध्यान रखते हुए सिर्फ संतानोत्पत्ति हेतु स्त्री से मिलन करता होगा। आजकल के नौजवान तो जोश में आकर स्वास्थ्य व शरीर की परवाह किये बिना विषय भोगने में अपनी बहादुरी समझते हैं। ऐसे नौजवानों को मैं नामर्द कहूँगा।

जो नौजवान अपनी वासना के वश में हो जाते हैं, वे दुनिया में जीने के योग्य नहीं हैं। वे सिर्फ थोड़े दिनों के मेहमान हैं। उनके खाने की ओर दृष्टि दौड़ायेंगे तो केक, विस्कुट, अंडे, आइसक्रीम आदि उनकी प्रिय वस्तुएँ हैं, जो वीर्य को कमजोर तथा रक्त को दूषित बनाती हैं।

आज से 20-25 वर्ष पहले छोटे-बड़े, नौजवान व बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी दूध, मक्खन व घी खाना पसन्द करते थे पर आजकल के नौजवान स्त्री-पुरुष दूध पीना पसंद नहीं करते। यह देखकर विचार होता है कि ऐसे लोग कैसे अच्छी संतान पैदा करके समाज को दे सकेंगे ! स्वस्थ माता-पिता से स्वस्थ संतान पैदा होती है।

अब थोड़ा रुको तथा बुद्धि से विचार करो कि ‘कैसे अपने स्वास्थ्य व शरीर की रक्षा हो सकेगी ?’ जिस इन्सान ने संसार में आकर ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत किया है, उसका इस संसार में आना ही व्यर्थ है।

मेरा नम्र निवेदन है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि इस दुनिया में आकर अपने बचपन के बाद अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने की कोशिस करे तथा शरीर को शुद्ध व मजबूत बनाने के लिए दूध, घी, मक्खन, मलाई, सादगीवाला भोजन प्राप्त करने का प्रयत्न करे, साथ ही प्रभु से प्रार्थना करे कि ‘हे प्रभु ! सादा भोजन खाकर शुद्ध बुद्धि व सही राह पर चलूँ।’

आध्यात्मिक व भविष्य की उन्नति की बुनियाद ब्रह्मचर्य ही है। वीर्य सेनापति की भाँति कार्य करता है तथा दूसरी धातुएँ सिपाहियों की भाँति अपना कर्तव्य पूरा करती हैं। देखो, जब सेनापति मारा जाता है तब दूसरे सिपाहियों की हालत खराब हो जाती है। इसी प्रकार वीर्य के नष्ट होने से शरीर तेजहीन हो जाता है। शास्त्रों ने शरीर में परमात्मा का निवास माना है। अतः उसे पवित्र रखना प्रत्येक स्त्री व पुरुष का कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य का पालन वही कर सकेगा, जिसने मन व इन्द्रियों को नियंत्रण में किया हो, फिर चाहे वह गृहस्थी हो अथवा त्यागी।

मैं जब अपनी बहनों को देखता हूँ, तब मेरा दिल दर्द से फट जाता है कि ‘कहाँ हैं वे पहलेवाली माताएँ ?’

दमयंती, सीता, गार्गी, लीलावती, विद्याधरी।

विद्योत्तमा, मदालसा थीं शास्त्र शिक्षा से भरी।।

ऐसी विदुषी स्त्रियाँ भारत की भूषण हो गयीं।

धर्म् व्रत छोड़ा नहीं चाहे जान अपनी खो गयी।।

कहाँ हैं ऐसी माताएँ जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी, लक्ष्मण, भीष्म पितामह तथा भगवान श्रीकृष्ण जैसे महान तथा प्रातः स्मरणीय पुरुषों को जन्म दिया था ?

व्यास मुनि, कपिल मुनि तथा पतंजली जैसे ऋषि कहाँ हैं, जिन्होंने हिमालय की गुफाओं में रह, कंदमूल खाकर वेदांत, तत्त्वज्ञान पर पुस्तकें लिख के या सिद्धान्त जोड़ के दुनिया को अचम्भे में डाल दिया ?

आजकल के नौजवानों की हालत देखकर अफसोस होता है। उन्होंने अपने महापुरुषों के नाम पर कलंक लगाया है। हम ऐसे आलसी व सुस्त हो गये हैं कि हमें एक या दो मील पैदल चलने में थकावट महसूस होती है। हम डरपोक तथा कायर हो गये हैं।

मुझे ऐसा लगता है कि भारत के वीरों को यह क्या हो गया है जो वे ऐसे कमजोर तथा कामचोर हो गये हैं ? वे ऐसे डरपोक कैसे हो गये हैं ? क्या हिमालय के वातावरण में ऐसी शक्ति नहीं रही है ? क्या भारत की मिट्टी में ऐसी शक्ति नहीं रही है कि वह अच्छा अनाज पैदा कर सके ? नहीं यह सब तो पहले जैसा है।

आखिर क्या कारण है जो हममें से शक्ति तथा शूरवीरता निकल गयी है कि अर्जुन व भीम जैसी मूर्तियाँ हम पैदा नहीं कर सकते ?

मैं मानता हूँ कि शक्ति, शूरवीरता, स्वास्थ्य व बहादुरी ये सब मौजूद हैं परंतु कुदरत ने जो नियम बनाये हैं हम उन पर अमल नहीं करते, हम उनका पालन नहीं करते। हम उनसे उलटा चलते हैं एवं हर समय भोग भोगने व शरीर के बाहरी सौंदर्य में मग्न रहते हैं और अपने स्वास्थ्य का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते।

अच्छे भोग भोगना यह प्रजापति का कार्य है। आप कौन-सी प्रजा पैदा करेंगे ? कवि ने कहा हैः

जननी जणे तो भक्त जण, कां दाता कां शूर।

नहि तो रहेजे वांझणी, मत गुमावीश नूर।।

आजकल के युग में मिलाप को भोग-विलास का साधन बना रखा है। वे मनुष्य कहलाने के लायक नहीं हैं। क्योंकि संयमी जीवन से ही दुनिया में महान, पुरुष, महात्मा, योगिराज, संत, पैगम्बर व ऋषि-मुनि अपना तेजस्वी चेहरा बना सके हैं। उन भूले भटकों को अपनी पवित्र वाणी द्वारा तथा प्रवचनों द्वारा सत्य का मार्ग दिखाया है। उनकी मेहरबानी व आशीर्वाद द्वारा कई लोगों के हृदय कुदरती प्रकाश से रोशन हुए हैं।

मनुष्य को चाहिए कि कुदरती कानून व सिद्धान्तों पर अमल करे, उनके अनुसार चले। सबमें समान दृष्टि रखते हुए जीवन व्यतीत करे। अंतःकरण में शुद्धता रखकर कार्य में चित्त लगाना चाहिए, इससे हमारा कार्य सफल होगा। मिलन के समय यदि विचार पवित्र होंगे तो आपकी संतान भी अच्छे विचारोंवाली होगी और संतान दुःख-सुख के समय आपको सहायता करेगी।

 

यदि आप दुनिया में सुख व शांति चाहते हो तो अपने अंतःकरण को पवित्र व शुद्ध रखकर दूसरों को ज्ञान दो। जो मनुष्य वीर्य की रक्षा करेंगे, वे ही सुख व आराम की जिंदगी जी सकेंगे और उन्हीं लोगों के नाम दुनिया में सूर्य की रोशनी की भाँति चमकेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 219

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स्मृति जैसा मूल्यवान और कुछ नहीं पूज्य बापू जी


स्मृति ऐसी नहर है कि जहाँ चाहे इसको ले जा सकते हैं। इस स्मृति को चाहे संसार में ले जाओ – बेचैनी ले आओ, चाहे उसी से आनन्द ले आओ अथवा उसी से परमात्मा को प्रकट करो। जीवन में स्मृति जैसा मूल्यवान और कुछ नहीं है और स्मृति जैसा खतरनाक भी और कुछ नहीं है। स्मृति दुःख की करो तो दुःखद प्रसंग न होते हुए भी आदमी दुःखी हो जाता है। स्मृति विकार की करो तो स्त्री न होते हुए, विकारी चीज न होते हुए भी आदमी विकारों की चपेट में आ जाता है। गुलाब की शय्या बनी हो, इत्र छँटे हों, अप्सरा आ के कंठ लगे, कामदेव का सब वातावरण हो लेकिन हमारी स्मृति परमात्मा में लगी है तो विकार कुछ नहीं कर सकता।

हम भीड़ भड़ाके में हों, नगाड़े बजते हों लेकिन हमारी वृत्ति किसी और चिंतन में लगी है तो हमको उसका ख्याल नहीं होता। हम मंदिर में बैठे हैं, आरती हो रही है, अगरबत्ती जल रही है, धूप-दीप से भक्त लोग भगवान की आराधना कर रहे हैं लेकिन हमारी स्मृति किसी गंदी जगह पर है तो हम वही हैं, मंदिर में नहीं ! हम अच्छे, पवित्र वातावरण में हैं लेकिन स्मृति मन में द्वेष की हो रही है, राग की हो रही है, शंका की हो रही है तो वातावरण में शांति के स्पंदन होते हुए भी हम उसका अनुभव नहीं कर सकते हैं, उसकी गरिमा को नहीं छू सकते हैं। हमारी स्मृति अगर शंकाशील है, इधर-उधर की है अथवा हमारे मन में कोई सांसारिक समस्या है तो ‘हमको बाबाजी कब बुलायें, हमसे कब बात करें ?’ – ऐसी स्मृति बनी रहेगी और सत्संग ग्रहण नहीं हो पायेगा।

स्मृति में बड़ी शक्ति है। स्मृति एक ऐसी धारा है, जो रसोईघर में भी जाती है, पूजागृह में भी जाती है, स्नानागार में भी जाती है और शिवालय में, शिवाभिषेक में भी जाती है।

जीवन एक बाढ़ की धारा है। जीवन तो पसार हो रहा है लेकिन स्मृति के प्रवाह को खींचकर उचित जगह पर ले जायें। जैसे हिमालय से गंगाजल आता है, सागर की तरफ बहता है। जो पानी खारा होने को जा रहा है, नहरें बनाकर उससे ही गन्ना पैदा किया जाता है। वही पानी कई जगहों पर औषधियों के काम आता है और उसी की एक शाखा तीर्थों में जाती है और लोग ‘गंगे हर’ करके आनन्दित होते हैं, पूजा करते हैं। ऐसे ही हमारी स्मृतियाँ हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाती है, इसलिए स्मृति जैसी-तैसी बात में लगाना नहीं, जैसी तैसी बातों को स्मृति में भरकर बेचैन होना नहीं। कई लोग थोड़ा-सा दुःख होता है लेकिन उस दुःख का सुमिरन करके अपने को ज्यादा दुःखी बना लेते हैं।

सुमिरन कर-करके घबरा जाना, सुमिरन कर-करके दुःखी हो जाना यह भी सुमिरन के अधीन है और सुमिरन करके दुःखी न होन, सुमिरन करके उचित मार्ग निकाल के निश्चिंत होना यह भी सुमिरन के अधीन है। जहाँ से स्मरण होता है, उस परमात्म-स्वभाव को ‘मैं’ रूप में जानना, यह साक्षात्कार है।

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा ओठ।।

विश्रांति योग…..स्मरण करते-करते स्मरण के मूल में पहुँच गये। शिवोऽहम्….चैतन्योऽहम्…..विश्रान्ति….. यह भी एक अवस्था है। अवस्था स्थिर नहीं है। उस परमेश्वर में छोटी मोटी अवस्थाएँ और यह ऊँची अवस्था शिवोऽहम् वाली अध्यस्थ हैं। लेकिन परमात्म-तत्त्व तो सबका अधिष्ठान, आधार है, उसको ‘मैं’ रूप में जानने वाले कितने महान आत्मा, कितने परम पुरुष दिव्य हैं !

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम।।

अवस्था का प्रकाशक सत्य है। सत्य की प्रकाशक अवस्था नहीं है।

‘मुझे घाव हो गया। अरे ! मैं मर गया। अब मेरा क्या होगा ? हाय रे ! घाव हो गया।’ – ऐसा सुमिरन करके मैं घाव के दुःख को सहयोग दूँ, यह भी स्मृति से होगा और उसी वृत्ति से सोचूँ कि ‘इसको रोगप्रतिकारक दवाओं से धो लेना चाहिए, कोई मलहम लगा देना चाहिये’, यह भी तो स्मृति से होता है। तो इस प्रकार स्मृति का उपयोग तो कर लिया लेकिन फिर इस स्मृति को और ऊँची बनायें कि ‘शरीर में घाव हुआ है, इस शरीर को रोगप्रतिकारक दवाएँ लग रही हैं लेकिन जिस वक्त शरीर में घाव हुआ था उस वक्त भी चेतना मेरे परमात्मा की ही थी, इस वक्त उसको देखने वाला भी वही है, रोग मिट जायेगा तब भी देखने वाला वही मेरा परमात्मा सत्य है। वही मैं हूँ। मेरी सत्ता से स्मृतियाँ होती हैं। हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति और स्मृति के बाप ! जिसकी सत्ता से स्मृतियाँ होती हैं, वही मैं साक्षी सत्य हूँ। हरि ॐ तत् सत्, और सब गपशप’ तो मैंने स्मृति का एकदम ऊँचा उपयोग किया।

समझो मैं दुकान पर गया, ऑफिस में गया दिलचस्पी से धंधा-व्यवहार किया, ऑफिस का काम किया लेकिन दिलचस्पी से काम करते समय भी अगर मेरी स्मृति परमात्मा के प्रति है तो मैं धंधा-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की भक्ति कर ली। समझ लो मैं महिला हूँ, घर की रसोई बनाती हूँ। रसोई बनाते-बनाते अगर मेरी स्मृति परमात्मा के प्रति है तो मैंने रोटी बनाते हुए भी परमात्मा की भक्ति कर ली। यदि मैं घंटी बजा रहा हूँ और मुझे स्मृति किसी विकार की हो तो मैंने पूजा नहीं की, मैंने विकार की स्मृति को महत्त्व दिया।

स्मृति का बहुत मूल्य है। तुम बाहर से क्या करते हो, उसकी कोई ज्यादा कीमत नहीं है। तुम्हारी स्मृति का तुम कैसा उपयोग करते हो, तुम्हारे चिंतन का तुम कैसा उपयोग करते हो, उसी पर तुम्हारा भविष्य बन जाता है। ऐसा नहीं कि कोई देवी-देवता कहीं बैठकर तुम्हारा भाग्य बना रहा है, तुम्हारी जैसी-जैसी स्मृतियाँ अंदर पड़ी हैं, जैसे-जैसे संस्कार पड़े हैं, जैसी-जैसी मान्यताएँ पड़ी हैं अथवा जैसी तुम बनाते हो, जिनको तुम महत्त्व देते हो ऐसा ही तुम्हारा भविष्य बनता है। जैसे कैसेट चलती है तो जहाँ जो टोन, जहाँ जो शब्द, उपदेश, तरंगे उसने रिकॉर्ड कर रखी है, वह जगह जब आती है तो वह ध्वनि हम सुनते हैं, ऐसे ही हमारी स्मृति है। उसमें अनन्त जन्मों के संस्कार पड़े हैं, वातावरण के संस्कार, माता-पिता, नाना-नानी, दादा-दादी के संस्कार ये सब स्मृति में जुड़ जाते हैं, फिर उसके अनुसार हम जगत को देखने लग जाते हैं। अब बहादुरी यह है कि इन सबको नगण्य मानकर नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्ध्या….. शरीर को ‘मैं’ संस्कारों को ‘मेरा’ और स्वयं को संस्कारों की कठपुतली न मानकर संस्कारों को नष्ट करके जैसे अर्जुन ने स्मृति जगायी, ऐसे ही अपने स्वरूप में जागो।

घर से निकले, आश्रम तक पहुँचे। आँखों ने तो बहुत लोग देखे होंगे लेकिन किसी की स्मृति नहीं, जिससे तुम्हारा परिचय था उसकी स्मृति रही कि ‘फलाना भाई मिला था’ और जिससे तुम्हारा द्वेष था वह भी स्मृति में रह गया कि ‘अरे ! अपशकुनी का मुँह देखा तो मजा नहीं आया।’ ये दोनों स्मृति में रह गये, बाकी के कोई गहरे नहीं रहे।

आपने 40 साल, 30 साल, 20 साल में जो कुछ कमाया उसे छोड़कर दरिद्र होना है तो एक क्षण में हो सकते हैं। ऐसे ही कई जन्मों की वृत्तियाँ, कई जन्मों की स्मृतियाँ, कई जन्मों के संस्कार आप सँभालकर रखेंगे तो कई जन्म और मिलेंगे। लेकिन मुक्त होना हो तो सब वृत्तियाँ परमात्मा को समर्पित करके जो परमात्मा वृत्तियों का उदगम्-स्थान, ‘साक्षी’ है, उस साक्षीभाव में आ जाओ… बेड़ा पार हो जाय। बड़ा आसान है। ईश्वर हमसे दूर होना चाहे, हमसे अलग होना चाहे तो उस के बस की बात नहीं है लेकिन हम लोगों का दुर्भाग्य है कि हमारी स्मृति संसार में फैल गयी। हमारी स्मृति की धारा देह और देह की अनुकूलता में चली गयी और जहाँ से स्मृति, वृत्ति प्रकट होती है, वहाँ हम अंतर्मुख नहीं होते इसीलिए हमको दुःख भोगने पड़ते हैं।

अगर हमारे पास परमात्मा के लिए थोड़ी भी तड़प है, जिज्ञासा है और संसार की नश्वरता का ज्ञान है तो हम उसी स्मृति को परमात्मा में लगाकर जीवन्मुक्त भी हो सकते हैं।

‘महाभारत’ में आता है कि

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।

विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवै प्रभविष्णवे।।

‘जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य आवागमनरूप बंधन से छूट जाता है, सबको उत्पन्न करने वाले उस परम प्रभु श्रीविष्णु (जो सबमें बस रहा है, सबरूप है) को बार बार नमस्कार है।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 219

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