एक-ही-एक
(पूज्य बापू जी के मुखारविंद से निःसृत ज्ञानगंगा)
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य
जन्तोर्निहितो गुहायाम।
ʹइस जीवात्मा की हृदयरूपी गुफा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अति सूक्ष्म और महान से भी महान है।ʹ (कठोपनिषद, द्वितिय वल्लीः 20)
उसके विषय में कहा गया हैः
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोઽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
ʹयह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है फिर न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है।ʹ (गीताः 2.20)
शरीर के मरने पर भी जो शुद्ध ʹमैंʹ है वह मरता नहीं है। देखा जाय तो शरीर भी वास्तव में नहीं मरता है। मृत्यु के बाद शरीर को जला दो तो उसका जो जलीय भाग है वह वाष्प हो जायेगा और बादल बनकर नहीं बरसेगा। जो पृथ्वी का भाग वह राख होकर मिट्टी में मिल जायेगा, उससे कोई पौधा उगेगा। जो तेज का अंश है, अग्नि का भाग है, वह महाअग्नि में मिल जायेगा। उसमें जो आकाश-तत्त्व है वह महाकाश में मिल जायेगा।
नाश तो कुछ होता नहीं है, रूपांतरित होता है। हमारी आँखों से कोई ओझल होता है तो हम समझते हैं वह मर गया। वास्तव में कोई मरता नहीं है। जब कोई मरेगा नहीं तो जन्मेगा कैसे ? उन पंचमहाभूतों का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा इकट्ठा होकर शरीर दिखता है, तब कहते हैं, ʹजन्म हुआʹ। वह जियेगा 60-70 साल, फिर वे पाँच भूत अलग-अलग व्यापक पाँच महाभूतों में मिल जाते हैं, उसे कहते हैं ʹमर गयाʹ। वास्तव में तो
न कोई जन्मे, न कोई मरे।
न कोई भाई, न कोई बाप।
आप ही लाड़ी, आप ही लाड़ा,
जहाँ देखो वहाँ आप-ही-आप।।
कहीं तो वह लाड़ी के रूप में दिख रहा है, कहीं लाड़ा दिख रहा है किंतु है तो वही चैतन्य आत्मा। अनेक रूपों में वही एक है। संसार के सारे क्रिया कलापों का आधार भी वही है। जैसे सिनेमा में आप देखते हैं कि एक ही प्रकाश है पर प्लास्टिक (फिल्म) की पट्टियों पर पड़ता है तो अनेक रूप-रंग और क्रियाएँ देखने को मिलती हैं। कहीं मोटरगाड़ी भागी जा रही है तो कहीं रेलगाड़ी दौड़ रही है। कहीं नायिका को गुंडों ने पकड़ा है, कहीं बस्ती में आग लगायी जा रही है तो कहीं उत्सव मनाया जा रहा है। इस प्रकार देखोगे कि आग भी उसी में, बस्ती भी उसी में, नायिका भी वहीं और गुंडे भी वहीं, उसी पर्दे पर। सब प्रकाश का ही चमत्कार है।
एक ही प्रकाश अऩेक रूपों में दिखता है। ऐसे ही अनेक रूपों में छिपा हुआ एक-का-एक जो तत्त्व है वही सबका आधार है। वह एक ही तत्त्व अनेक रूपों में भासता है। यह ज्ञान समझ में आ जाय तो फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मेरा-तेरा सब छूट जायेगा। ये गुलाब, गेंदा, चमेली, सेब-संतरे सब अलग-अलग दिखते हैं लेकिन तत्त्वदृष्टि से देखो तो सब एक है। ऐसे ही जिसको तत्त्व की बात समझ में आ जाय वह चांडाल, कुत्ता, गाय, ब्राह्मण और हाथी में छुपे हुए एक तत्त्व को जानकर सबको समभाव से देखता है।
जिसने भी उस तत्त्व को जान लिया है, तत्त्व का ज्ञान पा लिया है, उसे तो सर्वत्र वही, आकाश से भी सूक्ष्म चिदानंदघन परमेश्वर नजर आता है। वह अपने-आपको भी वहीरूप जान लेता है। उसके रोम-रोम से ʹसर्वोઽहम्ʹ के आंदोलन स्वाभाविक रूप से फैलते रहते हैं।
तुम कितने भी भयानक हो, कितने भी डरावने हो, तुम्हें देखकर छोटे-बड़े डर जायें लेकिन तुम अपने-आपको देखकर कभी नहीं डरोगे। मान लो तुम्हारा रूप इतना सुहावना है कि तुम्हें देखकर कई लोग तुम्हारे पीछे दीवाने हो जायें, पर तुम अपने को देखकर दीवाने होओगे क्या ? नहीं। दूसरे को देखकर काम होगा, दूसरे को देखकर क्रोध होगा, दूसरे को देखकर मोह होगा। अपने को देखकर काम, क्रोध, मोह थोड़े ही होगा ! अगर आप सबमें, अपना-आपा देख लोगे तो फिर आप ही आप बचोगे, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, चिंता सब शान्त हो जायेगा। यह ज्ञान समझ में आ जाय तो जपी का जप सफल हो जाय, तपी का तप सफल हो जाय। ऐसा अदभुत ज्ञान है यह आत्मज्ञान।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 231
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