कर्म व विचार भी पैदा करते हैं दिव्य तरंगें

कर्म व विचार भी पैदा करते हैं दिव्य तरंगें


(पूज्य बापूजी की पावन अमृतवाणी)

कानपुर में एक बाई हो गयी, वृद्ध थी। स्वामी राम (जिनका देहरादून में आश्रम है) के गुरु की वह शिष्या थी। उसको गुरु का ज्ञान मिल गया था। उसका बेटा मशहूर डॉक्टर था – डॉ ए. एन. टंडन। उसने अपने पुत्र को बुलाया और बोलीः “अपने परिवार को बुलाओ, अब मैं संसार से जा रही हूँ। तुम रोना पीटना नहीं। जो जानना था वह मैंने गुरुकृपा से जान लिया है। मेरी मौत नहीं होती, शरीर बदलता है। पाँच भूतों से शरीर बना है, पाँच भूतों में मिल जायेगा। मिट्टी से घड़ा बना है और मिट्टी में मिल जायेगा, आकाश महाकाश से मिल जायेगा, ऐसे ही आत्मा परमात्मा से मिल जायेगा। तुम रोना-धोना नहीं। गुरु की कृपा से मेरी मोह-ममता मिट गयी है।”

टंडनः “माँ ! तुम क्या कह रही हो ? तुम कैसे जाओगी ! हमारा रहेगा कौन ?”

फिर तो माँ हँसने लगीः “बेटे ! तू अब से धो के, ʹमाँ-माँʹ करके मेरे को फँसा नहीं सकता। यह सब धोखा है। ʹयह मेरी माँ है, यह मेरा बेटा…ʹ यह सदा टिकता नहीं और जो वास्तव में है वह कभी मिटता नहीं। जो कल्पना में है वह कभी टिकता नहीं। कितने जन्मों के बेटे, कितने जन्मों के बाप, कितने जन्मों के पत्नियाँ-पति मानती थी, वे सब छूट गये, अभी भी छूटने वाले ही हैं। यह मेरा मकान…. न तो मकान रहेगा, न मकानवाला रहेगा। कभी-न-कभी दोनों का वियोग होगा। ये तो सब ऐसे ही हैं।”

ʹअरे, मेरा मकान चला गया….ʹ जाने वाला ही था। ʹमेरा बाप भी चला गया, दादा भी चला गया….ʹ यहाँ सब जाने वाले ही आते हैं।

बोलेः ʹमहाराज ! मेरे मन में ऐसा है, ऐसा है।ʹ अरे, तेरा एक मन क्या है, हजारों लाखों मन जिसमें है तू वह आत्मा है। एक मन की क्या सोचता है ! ʹमेरा मन ऐसा है, ऐसा हो जाय….ʹ अपने को जान ! मन को तू मन समझ और शरीर को शरीर, बुद्धि को बुद्धि समझ। दुःख व सुख को आऩे जाने वाला समझ और उसको जानने वाले को ʹमैंʹ रूप में जान ले तो अभी ईश्वरप्राप्ति… यूँ ! इतनी सरल है !

सरल है इसलिए राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति हो गयी थी। राजा परीक्षित को सात दिन में भगवान मिल गये थे। हमने भगवान को खोजने के लिए खूब दर-दर के चक्कर लगाये। फिर कोई बोलेः ʹअयोध्या में जहाँ बहुत साधु रहते हैं, वहाँ चले जाओ।”

अयोध्या में तो पाँच हजार साधु रहते हैं। अब पाँच हजार साधुओँ में से दस-दस साधुओं को एक-एक दिन में मिलें तो भी डेढ़ साल लग जायेगा। मैंने पाँच हजार साधुओं में से जो खूब पहुँचे हुए थे उनके नाम खोज लिये तो चार नाम आये। बोलेः “बहुत बड़ी उम्र के हैं, पहुँचे हुए हैं, त्यागी हैं।”

मैंने कहाः “चार में से जो सबसे विशेष हों उनके बारे में बताओ।”

तो बताया गयाः “वे जो घास-फूस की झोंपड़ी में रहते हैं, लँगोटी पहने रहते हैं वे बहुत पहुँचे हुए हैं।”

मैं उनके पास गया और कहाः “ईश्वरप्राप्ति के सिवाय मेरे को कुछ नहीं चाहिए।” तो उन्होंने साधन बताया – 12 साल नाभि में धारणआ कर जप करो, 12 साल नाभि से ऊपर, 12 साल हृदय में और 12 साल अन्य स्थान पर… ऐसे करके 48 साल साधना करनी होगी। मैंने कहाः “मैं तो एक साल भी नहीं रह सकता ईश्वरप्राप्ति के बिना। 48 साल ये सब साधन मैं नहीं कर पाऊँगा।”

मैं तो वहाँ से चला और जब साँईं लीलाशाह जी बापू के पास गया तो मेरे को 40 दिन में परमात्मा की प्राप्ति हो गयी। कहाँ तो बोले 48 साल के कोर्स के बाद भगवान मिलेंगे और कहाँ 40 दिन में मिल गये !

तो जैसे गुरु होंगे वैसा ही रास्ता दिखायेंगे। मेरे गुरूजी साँईं लीलाशाहजी बापू तो समर्थ थे। उन्होंने सत्संग सुना के 40 दिन में ब्राह्मी स्थिति करा दी। बात में अयोध्या गया तो वही साधु जिसको मैं गुरु बनाने की सोचता था और जिसने 48 साल का कोर्स बताया था उसने पहचाना ही नहीं, वही मेरा सत्कार करने लग गया। बोला  “अच्छा आशाराम जी ! तुम्हारा तो  बड़ा नाम है, तुम मेरे को मदद कर सकते हो ?”

उसको पता नहीं कि डेढ़ साल पहले यही लड़का मेरे आगे हाथ जोड़कर उछल कूद कर रहा था कि ʹमहाराज ! ईश्वरप्राप्ति करनी है, कृपा कर दो…..।ʹ वही आशाराम बापू हो गये। जब समर्थ गुरु मिल जाते हैं और अपनी तत्परता होती है तो झट से काम हो जाता है। कोई कठिन नहीं है।

तो कानपुर की उस बाई को ईश्वरप्राप्ति की लगन थी और उसके पास गुरु का ज्ञान था। बोलीः “बेटे ! ईश्वर को पाना है। मैं तो अभी शरीर छोड़ रही हूँ लेकिन जो कभी न छूटे उस परमेश्वर से एक होना है।”

बेटाः “माँ….माँ…..” (रोने लगा।)

तो माँ हसने लगी, बोलीः “तू अब अज्ञान और ममता से मुझे फँसा नहीं सकता। रोओ-धोओ मत ! कमरा छोड़ के बाहर जाओ, मैं अकेले में ईश्वर में लीन हो रही हूँ। कुंडी बंद नहीं करूँगी। एकाध घंटे के बाद दरवाजा खोल देना।”

एकाध घंटे के बाद देखा तो माँ एकदम प्रसन्नचित्त लेकिन प्राण ईश्वर में लीन हो गये थे।

तो उसका जो कुछ अग्नि-संस्कार करना था, किया। बाद में जिस कमरे में वह बाई रहती थी, ध्यान-भजन करती थी, उस कमरे में जिस मंत्र का वह जप करती थी उस मंत्र की ध्वनि आने लगी।

चैतन्य महाप्रभु ने भी जब शरीर छोड़ा तो जिस कमरे में वे रहा करते थे, उस कमरे से ʹहरि ૐ…. हरि ૐ….ʹ की ध्वनि आती थी। टी.बी. (क्षयरोग) का मरीज मरता है न, तो जिस कमरे में वह रहता था उसी कमरे में कोई रहे तो उसको भी टी.बी. लग जाती है। ऐसे ही कोई भक्ति में, भगवान में एकाकार होकर शरीर छोड़ गया तो उस जगह पर दूसरों को भी भक्ति मिलती है। जहाँ जितना ऊँचा कर्म होता है, वहाँ उतनी ऊँची तरंगें होती हैं।

ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 6,7

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