कुछ महात्मा होते हैं जो संकेत करते हैं, कुछ आज्ञा करते हैं। जैसे आप गये और महात्माओं ने पूछाः “साधन-भजन चल रहा है न ?
यह संकेत कर दिया कि अगर नहीं करते हो तो करना चालू कर दो और करते हो तो उसे बढ़ाओ। ʹʹसाधन-भजन चल रहा है, बढ़ा दो !” कहा तो यह आज्ञा हो गयी।
“बढ़ा दिया लेकिन मन लगता नहीं है, फिर भी ईमानदारी से किया है।”
“मन नहीं लगता है तो कोई बात नहीं, मन न लगे फिर भी किया करो !” – यह आज्ञा हो गयी।
“मन नहीं लगता है।”
“अरे ! लग जायेगा चिंता न करो।”
यह उनका आशीर्वाद है, वरदान है। इसमें कोई डट जाय तो बस ! लेकिन फिर ऐसा नहीं कि रोज-रोज उनका सिर खपाना शुरु कर दें कि “मन नहीं लगता, मन नहीं लगता… हताश हो जाता हूँ।” छोटी-छोटी बात को रोज-रोज नहीं बोलना चाहिए। वे तो सब जानते हैं, हृदय से प्रार्थना कर दी, बस छूट गया। फिर संकेत, आदेश, आज्ञा, आशीर्वाद, वरदान इस प्रकार से कई लाभ होते रहते हैं। इससे करोड़ों-करोड़ों जन्मों के संस्कार कटते रहते हैं। अपनी तीव्रता होती है इसी जन्म में काम बन जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, अंक 237, पृष्ठ संख्या 13
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