(शरद ऋतुः 22 अगस्त 2012 से 21 अक्तूबर 2012 तक)
शरद ऋतु में पित्त कुपित व जठराग्नि मंद रहती है, जिससे पित्त-प्रकोपजन्य अनेक व्याधियाँ उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। अतः इस ऋतु में पित्तशामक आहार लेना चाहिए।
पथ्य आहारः इस ऋतु में मधुर, कड़वा, कसैला, पित्तशामक तथा लघु मात्रा में आहार लेना चाहिए। अनाजों में जौ, मूँग, सब्जियों में पका पेठा, परवल, तोरई, गिल्की, पालक, खीरा, गाजर, शलगम, नींबू, मसालों में जीरा, हरा धनिया, सौंफ, हल्दी, फलों में अनार, आँवला, अमरूद, सीताफल, संतरा, पका पपीता, गन्ना, सूखे मेवों में अंजीर, किशमिश, मुनक्का, नारियल सेवनीय हैं। घी व दूध उत्तम पित्तशामक हैं।
शरद पूनम की रात को चन्द्रमा की शीतल चाँदनी में रखी दूध-चावल की खीर पित्तशामक, शीतल व सात्त्विक आहार है।
हितकर विहारः शरद ऋतु में रात्रि-जागरण व रात्रि-भ्रमण लाभदायी है। रात्रि जागरण 12 बजे तक ही माना जाता है। अधिक जागरण कर दिन में सोने से त्रिदोष प्रकुपित होते हैं।
त्याज्य आहार-विहारः पित्त को बढ़ाने वाले खट्टे, खारे, तीखे, तले, पचने में भारी पदार्थ, बाजरा, उड़द, बैंगन, टमाटर, मूँगफली, सरसों, तिल, दही, खट्टी छाछ आदि के सेवन से बचें। अधिक भोजन, अधिक उपवास, अधिक श्रम, दिन में शयन, धूप का सेवन आदि वर्जित है।
कुछ विशेष प्रयोगः
पित्तजन्य विकारों से रक्षा हेतु हरड़ में समभाग मिश्री मिलाकर दिन में 1-2 बार सेवन करें। इससे रसायन के लाभ भी प्राप्त होते हैं।
धनिया, सौंफ, आँवला व मिश्री समभाग लेकर पीस लें। 1 चम्मच मिश्रण 2 घंटे पानी में भिगोकर रखें फिर मसलकर पियें। इससे अम्लपित्त (एसिडिटी), उलटी, बवासीर, पेशाब व आँखों में जलन आदि पित्तजन्य अनेक विकार दूर होते हैं।
एक बड़ा नींबू काटकर रात भर ओस में पड़ा रहने दें। सुबक उसका शरबत बनाकर उसमें काला नमक डाल के पीने से कब्ज दूर होता है।
दस्त लगने पर सौंफ व जीरा समभाग लेकर तवे पर भून लें। 3 ग्राम चूर्ण दिन में तीन बार पानी के साथ लें। खिचड़ी में गाय का शुद्ध घी डाल के खाने से भी दस्त में आराम होता है।
पापनाशक, बुद्धिवर्धक स्नान
(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)
जो लोग साबुन या शैम्पू से नहाते हैं वे अपने दिमाग के साथ अन्याय करते हैं। इनसे मैल तो कटता है लेकिन इनमें प्रयुक्त रसायनों से बहुत हानि होती है। तो किससे नहायें ?
नहाने का साबुन तो लगभघ 125 से 200 रूपये किलो मिलता है। मैं तुमको घरेलु उबटन बनाने की युक्ति बताता हूँ। उससे नहाओगे तो साबुन से नहाने से सौ गुना ज्यादा फायदा होगा और सस्ता भी पड़ेगा। जो आप कर सकते हो, जिससे आपको फायदा होगा मैं वही बताता हूँ।
गेहूँ, चावल, जौ, तिल, चना, मूँग और उड़द – इन सात चीजों को समभाग लेकर पीस लो। फिर कटोरी में उस आटे का रबड़ी जैसा घोल बना लो। उसे सबसे पहले थोड़ा सिर पर लगाओ, ललाट पर त्रिपुंड लगाओ, बाजुओं पर, नाभि पर, बाद में सारे शरीर पर मलकर 4-5 मिनट रूक के सूखने के बाद स्नान करो। यह पापनाशक और बुद्धिवर्धक स्नान होगा। इससे आपको उसी दिन फायदा होगा। आप अनुभव करेंगे की ʹआहा ! कितना आनंद, कितनी प्रसन्नता ! इतना फायदा होता है !ʹ
होली, शिवरात्रि, एकादशी, अमावस्या या अपने जन्मदिन पर देशी गाय का मूत्र और गोबर अथवा केवल गोमूत्र रगड़कर स्नान करने से पाप नष्ट और स्वास्थ्य बढ़िया होता है। अगर गोमूत्र से सिर के बालों को भिगोकर रखें और थोड़ी देर बाद धोयें तो बाल रेशम जैसे मुलायम होते हैं।
गोदुग्ध से बने दही को शरीर पर रगड़कर स्नान करने से रूपये-पैसे में बरकत आती है, रोजी-रोटी का रास्ता निकलता है।
पुष्टिदायक सिंघाड़ा
सिंघाड़ा आश्विन-कार्तिक (अक्तूबर नवम्बर) मास में आने वाला एक लोकप्रिय फल है। कच्चे सिंघाड़े को दुधिया सिंघाड़ा भी कहते हैं। अधिकतर इसे उबाल कर खाया जाता है। सिंघाड़े को फलाहार में शामिल किया गया है अतः इसकी मींगी सुखा-पीसकर आटा बना के उपवास में सेवन की जाती है।
100 ग्राम सिंघाड़े में पोषक तत्त्वः
ताजा सिंघाड़ा | सूखा सिंघाड़ा | |
प्रोटीन (ग्राम) | 4.7 | 13.4 |
कार्बोहाइड्रेटस (ग्राम) | 23.3 | 69.8 |
कैल्शियम (मि.ग्रा.) | 20 | 70 |
फास्फोरस (मि.ग्रा.) | 150 | 440 |
आयरन (मि.ग्रा.) | 1.35 | 2.4 |
साथ ही इसमें भैंस के दूध की तुलना में 22 प्रतिशत अधिक खनिज व क्षार तत्त्व पाये जाते हैं।
दाह, रक्तस्राव, प्रमेह, स्वप्नदोष, शरीर के क्षय व दुर्बलता में तथा पित्त प्रकृतिवालों को विशेष रूप से इसका सेवन करना चाहिए।
औषधि-प्रयोग
गर्भस्थापक व गर्भपोषकः सिंघाड़ा सगर्भावस्था में अत्यधिक लाभकारी होता है। यह गर्भस्थापक व गर्भपोषक है। इसका नियमित और उपयुक्त मात्रा में सेवन गर्भस्थ शिशु को कुपोषण से बचाकर स्वस्थ व सुंदर बनाता है। यदि गर्भाशय की दुर्बलता या पित्त की अधिकता के कारण गर्भ न ठहरता हो, बार-बार गर्भस्राव या गर्भपात हो जाता हो तो सिंघाड़े के आटे से बने हलवे का सेवन करें।
श्वेतप्रदर व रक्तप्रदरः श्वेतप्रदर में पाचनशक्ति के अनुसार 20-30 ग्राम सिंघाड़े के आटे से बने हलवे तथा रक्तप्रदर में इसके आटे से बनी रोटियों का सेवन करने से रोगमुक्ति के साथ शरीर भी पुष्ट होता है।
मूत्रकृच्छता, पेशाब की जलन व मूत्रसंबंधी अन्य बीमीरियों में सिंघाड़े के क्वाथ का प्रयोग लाभकारी है।
धातु-दौर्बल्यः इसमें 5 से 10 ग्राम सिंघाड़े का आटा गुनगुने मिश्रीयुक्त दूध के साथ सेवन करने से पर्याप्त लाभ होता है।
सिंघाड़ा ज्ञानतंतुओं के लिए विशेष बलप्रद है।
दाह, ज्वर, रक्तपित्त या बेचैनीः इनमें प्रतिदिन पाचनशक्ति के अनुसार 10-20 ग्राम सिंघाड़े के रस का सेवन करें।
मात्राः सिंघाड़ा सेवन की उचित मात्रा 3 से 6 ग्राम है।
सावधानियाँ- सिंघाड़ा पचने में भारी होता है, अतः उचित मात्रा में ही इसका सेवन करना चाहिए। वात और कफ प्रकृति के लोग इसका सेवन अल्प मात्रा में करें।
कच्चा व आधा उबला सिंघाड़ा न खायें।
सिंघाड़ा खाकर तुरंत पानी न पियें। कब्ज हो तो इसका सेवन न करें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 29, 30 अंक 237
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