गीता जयंतीः 23 दिसम्बर 2012
श्रीमद् भगवदगीता ने कमाल का भी कमाल कर दिया ! गीता यह नहीं कहती कि तुम ऐसी वेशभूषा पहनो, ऐसा तिलक करो, ऐसा नियम करो, ऐसा मजहब पालो। नहीं-नहीं, गीता (18-57) में आता है।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।
ʹसमबुद्धिरूप योग का अवलम्बन लेकर मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो।ʹ
बुद्धियोग से मेरी उपासना करके मेरे में चित्त लगाकर मेरे सुख को, आनंद को, माधुर्य को पा लो। गीता का ज्ञान जिसने थोड़ा भी पाया, बीते हुए का शोक सदा के लिए गया। जो बीत जाता है उसका शोक कर करके लोग परेशान हो रहे हैं। बेटा मर गया, 6 साल हो गये, अभी रो रहे हैं। पति मर गया, 3 साल हो गये, अभी रो रहे हैं। पत्नी मर गयी है, 5 साल हो गये, अभी भी रो रहे हैं, मूर्खता है।
बीते हुए का शोक गीता हटा देती है। भविष्य के भय को उखाड़ फेंकती है और वर्तमान की विडम्बनाओं को दूर कर गीता तुम्हें ज्ञान के प्रकाश से सम्पन्न बना देती है। तुम रस्सी को साँप, अजगर या और कुछ समझकर परेशान थे, ठूँठे को चोर, डाकू या साधु समझकर प्रभावित हो रहे थे अथवा विक्षिप्त हो रहे थे-यह सारी नासमझी गीता-ज्ञान के प्रकाश से हटा देती है।
गीता आपके जीवन में ज्ञान की शुद्धि, कर्म की शुद्धि और भाव की शुद्धि ले आती है। बस तीन की शुद्धि हो गयी तो आपका आत्मा और ईश्वर का आत्मा एक हो जायेगा, आप निर्दुःख हो जायेंगे। आप युद्ध करेंगे लेकिन कर्मबन्धन नहीं होगा। आप रागी जैसे लगेंगे किंतु अंदर से निर्लेप रहेंगे। आप खिन्न जैसे लगेंगे परंतु अंदर से बड़े शांत रहेंगे। ʹहाय सीते ! सीते ! हाय लक्ष्मण !ʹ करते हुए दिखते हैं रामजी लेकिन वसिष्ठजी के शुद्ध ज्ञान से रामजी वही हैं-
उठत बैठत ओई उटाने,
कहत कबीर हम उसी ठिकाने।
मृत्यु कब आये, कहाँ आये कोई पता नहीं इसलिए मौत आये उसके पहले अपना क्रियाशुद्धि, भावशुद्धि और ज्ञानशुद्धि का खजाना पा लेना चाहिए। मैं लंकापति रावण हूँ… आग लगी तेरे अहंकार को ! ज्ञान की अशुद्धि हो गयी। ब्राह्मण थे, पुलस्त्य कुल में पैदा हुए थे। भाव की अशुद्धि हो गयी सीता जी को ले आये। कर्म की अशुद्धि हो गयी, करा-कराया चौपट हो गया। शबरी भीलन को मतंग ऋषि का सत्संग मिला है, ज्ञान की शुद्धि है। ʹतुमको कोई मिटा नहीं सकता और शरीर को कोई टिका नहीं सकताʹ – यह शुद्ध ज्ञान है। लेकिन अमिट (आत्मा) मिटने वाले शरीर को ʹमैंʹ मानकर मृत्यु के भय से डर रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान की शुद्धि करते हुए कहाः
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोઽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
ʹजैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नये शरीरों को प्राप्त होता है।ʹ (गीता 2-22)
अतः मृत्यु से डरो मत और डराओ मत। डरने से तुम जीवित नहीं रहोगे, बुरी तरह मरोगे लेकिन निर्भय होने से अच्छी तरह से अमरता की यात्रा करोगे।
एक सवाल पूँछूँगा, जवाब जरूर दोगे।
एक किलो रूई है। उसको जलाना हो तो कितनी दियासिलाई लगेंगी ? एक। अगर 10 किलो रूई जलानी हो तो 10 दियासिलाइयाँ लगेंगी क्या ? हजार किलो या लाख किलो रूई कोक जलाना हो तो दियासिलाइयाँ कितनी लगेंगी ? सौ लगेंगी ? लाख लगेंगी ? दो लगेंगी ? नहीं, एक ही काफी है। ऐसे ही कितने जन्मों के कर्म हों, कितने ही पाप-ताप हों, नामझी और ज्ञान की अशुद्धि हो किंतु एक बार गुरुमंत्र मिल गया और लग गये आत्मज्ञान के रास्ते तो बेड़ा पार हो जायेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं-
यथैधांसि समिद्धोઽग्निर्भस्मात्कुरुतेઽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।
ʹहे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।ʹ (गीताः 4.37)
अपि चेदसी पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः….
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, दुराचारियों में आखिरी नम्बर का है, सर्वज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि। तो भी तू गुरु के ज्ञान की नाव में बैठकर निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा। फिर पानी 50 फुट गहरा हो चाहे 5 हजार फुट गहरा हो, तू बेड़े में बैठा है तुझे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।
श्रीकृष्ण चाहते हैं कि आपकी समझ की शुद्धि हो, ज्ञान की शुद्धि हो – मरने वाले शरीर को ʹमैंʹ मत मानो, यह ʹमेराʹ शरीर है। बदलने वाला मन है, चिन्तन करने वाला चित्त है, इस सबको देखने वाला ʹमैंʹ हूँ।
हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप।
सारी परिस्थितियाँ आ आकर बदल जाती हैं, मौत भी आकर चली जाती है। इसलिए ज्ञान की शुद्धि करो। जल्दी मरने की जरूरत नहीं है और मरने वाले शरीर को अमर करने के चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है। न मरने वाले को अमर करो, न मरने वाले को परेशान करके जल्दी मरो। स्वस्थ जीवन, सुखी जीवन, सम्मानित जीवन का प्राकृतिक नियम जान लो।
भाव की शुद्धि, कर्म की शुद्धि और ज्ञान की शुद्धि पर गीता ने बड़ा भारी जोर दिया है। तुम्हें ईश्वर को बनाना नहीं है, ईश्वर के पास जाना नहीं है, ईश्वर को बुलाना नहीं है। कण-कण में क्षण-क्षण में अंतरात्मा ईश्वर है। उसका आनंद, उसका सामर्थ्य, उसका ज्ञान हँसते-खेलते पाना है। ऐसा गीताकार ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को अनुभव करा दिया है।
जगत में कर्म की प्रधानता है इसलिए कर्म को ऐसे करो कि करने का अहं नहीं, लापरवाही नहीं, हलकी वासना नहीं। दूसरों के भले के लिए, भगवान की प्रसन्नता के लिए किया गया आपका कर्म ʹकर्मयोगʹ हो जायेगा।
ज्ञान की शुद्धि तत्त्वज्ञान से होती है। मरने वाला शरीर मैं नहीं हूँ। बदलने वाला मन मैं नहीं हूँ। इन सबकी बदलाहट को जो जानता है ʹʹૐʹ उसमें शांत होना सीखो। जितने शांत होते जाओगे उतने ईश्वरीय प्रेरणा और ईश्वरीय सामर्थ्य के धनी होते जाओगे।
भगवान कहते हैं- तुम्हारे ज्ञान को तत्त्वज्ञान से दिव्य करो। भगवान के सत्संग से और ध्यान से तुम्हारी भावनाओं को शुद्ध करो और धर्म के नियम से तुम्हारे कर्मों को शुद्ध करो।
गीता का धर्म, गीता की भक्ति और गीता का ज्ञान ऐसा है कि वह प्रत्येक समस्या का समाधान करता है। जब गीता का अमृतमय ज्ञान मिल जाता है, तब सारी भटकान मिटाने की दिशा मिल जाती है, ब्रह्मज्ञान को पाने की युक्ति मिल जाती है और वह युक्ति मुक्ति के मंगलमय द्वार खोल देती है। कितना ऊँचा ज्ञान है गीता का !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अँक 240
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