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महापुरुषों का आशीर्वाद – पूज्य बापू जी


कुछ महात्मा होते हैं जो संकेत करते हैं, कुछ आज्ञा करते हैं। जैसे आप गये और महात्माओं ने पूछाः “साधन-भजन चल रहा है न ?

यह संकेत कर दिया कि अगर नहीं करते हो तो करना चालू कर दो और करते हो तो उसे बढ़ाओ। ʹʹसाधन-भजन चल रहा है, बढ़ा दो !” कहा तो यह आज्ञा हो गयी।

“बढ़ा दिया लेकिन मन लगता नहीं है, फिर भी ईमानदारी से किया है।”

“मन नहीं लगता है तो कोई बात नहीं, मन न लगे फिर भी किया करो !” – यह आज्ञा हो गयी।

“मन नहीं लगता है।”

“अरे ! लग जायेगा चिंता न करो।”

यह उनका आशीर्वाद है, वरदान है। इसमें कोई डट जाय तो बस ! लेकिन फिर ऐसा नहीं कि रोज-रोज उनका सिर खपाना शुरु कर दें कि “मन नहीं लगता, मन नहीं लगता… हताश हो जाता हूँ।” छोटी-छोटी बात को रोज-रोज नहीं बोलना चाहिए। वे तो सब जानते हैं, हृदय से प्रार्थना कर दी, बस छूट गया। फिर संकेत, आदेश, आज्ञा, आशीर्वाद, वरदान इस प्रकार से कई लाभ होते रहते हैं। इससे करोड़ों-करोड़ों जन्मों के संस्कार कटते रहते हैं। अपनी तीव्रता होती है इसी जन्म में काम बन जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, अंक 237, पृष्ठ संख्या 13

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कृपण नहीं उदार बनें


(पूज्य बापूजी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

कृपण कौन है ?

जो कर्म करता है और नश्वर चीजें चाहता है, अपनी इच्छाएँ, वासनाएँ, मान्यताएँ नहीं छोड़ता वह कृपण है। जो फल की चाह रखता है या थोड़े-थोड़े काम में फल की इच्छा रखता है, वह कृपण है। बुद्धियोग की शरण जाओ। जो कुछ तुम चाहते हो वह नष्ट हो जायेगा, इसलिए चाह छोड़कर कर्तव्य करो।

उदार कौन है ?

जो अपनी इच्छाएँ, वासनाएँ और पकड़ को छोड़कर अपना हृदय भगवदज्ञान से, भगवद-आनंद से, भगवत्समता से भगवदविश्रान्ति से भरने को संत की ʹहाँʹ में ʹहाँʹ कर देता है तथा ʹबहुजनहिताय – बहुजनसुखायʹ और आत्म-उल्लास के लिए सत्कर्म करता है वह उदारात्मा है।

जो मिले वाह-वाह ! जो है वाह-वाह ! जो चला गया वाह-वाह ! जो कभी नहीं जाता उसको पाने के लिए जो चल पड़ता है वह बड़ा उदार है। ऐसे उदारों को भगवान ने खूब सराहा है।

ʹरामायणʹ में आता हैः

राम भगत जग चारि प्रकारा।

सुकृति चारिउ अनघ उदारा।।

(श्रीरामचरित. बा.कां. 21.3)

ʹगीताʹ में भी भगवान कहते हैं- मेरे चार प्रकार के भक्त हैं-

आर्तो जिज्ञासुरर्थाथी ज्ञानी च भरतर्षभ।

(गीताः 7.16)

अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी – चारों ही पुण्यात्मा, उदार हैं। इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु की विशेष रूप से प्रिय हैं।

आर्त भक्त दुःख मिटाने के लिए भावपूर्वक भगवान को पुकारता है, उनका चिंतन करता है इसलिए उदार है। वह डॉक्टर की, दवा की, कूड़ कपट की शरण नहीं जाता, बीमारी मिटाने के लिए गंदी चीजें नहीं खाता। ठीक-ठीक सात्त्विकता का आश्रय, भगवद्-आश्रय लेकर उपाय करता है तो वह उदार है। बीमारी का दुःख हो या निर्धनता का दुःख, संसार का कोई भी दुःख मिटाने के लिए जो भगवान की शरण जाता है, भगवान उसे उदार कहते हैं।

अर्थार्थी, जो सम्पदा पाने के लिए भगवान की शरण में जाता है, भगवान के द्वारा अर्थ चाहता है उसको भी भगवान उदार कहते हैं। धन चाहिए तो भी कोई बात नहीं लेकिन भगवान की कृपा द्वारा धन चाहिए। तो भगवान की कृपा धीरे-धीरे भगवान से मिला देगी। है तो संसारी चीजें माँगने वाला कि ʹमुझे धन मिले, मेरा रोग मिटे, मेरा छोकरा पास हो जाय।ʹ लेकिन उसे कृपण नहीं कहा, क्यों ? क्योंकि दृष्टि उसकी उस परम उदार परमेश्वर पर है।

जिज्ञासु, जो भगवान को जानने के लिए सत्संग में या भगवान की तरफ जाता है, उसको भी भगवान उदार कहते हैं। ज्ञानी के लिए बोलते हैं- ʹये तो मेरा आत्मा हैं, उदार क्या ये तो उदारशिरोमणि हैं।ʹ

जो पत्नी बोलती हैः ʹपति मुझे प्यार नहीं करताʹ, वह कृपण है। पति क्यों प्यार करे ? तू उसकी ऐसी प्रीतिपूर्वक सेवा कर कि उसका हृदय अपने-आप संतुष्ट हो जाय। पति सोचता है, ʹपत्नी प्यार नहीं करतीʹ लेकिन आजकल के पति-पत्नी प्यार करेंगे तो वे उदार नहीं हैं, कृपण हैं, काम की नाली को विषय बनाकर प्यार करेंगे। नाक को, गाल को, शरीर को, विकार को देखकर प्यार करेंगे तो कृपण हैं लेकिन अपने अंदर जो परमेश्वर-स्वभाव है, उसकी ओर दृष्टि रखकर एक-दूसरे का भला चाहते हैं तो उदार हैं।

निर्दोष गुरुभाई भगवद-आराधना के बल से एक-दूसरे को देखकर आह्लादित हो जाते हैं तो उदार हैं लेकिन एक दूसरे को देखकर स्वार्थ से बात करते हैं तो कृपण हैं। जो जितना कृपण होता है वह उतना ही भौतिक जगत  पिसता रहता है और जितना उदार होता है उतना ही आह्लादित, आनंदित रहता है। आधिदैविक जगत में उसकी उन्नति सहज में होती है और आध्यात्मिक जगत में अच्छी गति हो जाती है।

आदमी उदार कब बनता है ?…..

जब बुद्धि निष्पक्ष हो जाती है। राग में और द्वेष में कृपणता छुपी है, कर्मबंधन, कर्तापना-भोक्तापना छुपा है, छल-कपट, बेईमानी छुपी है लेकिन राग-द्वेष रहित होने से उदारता आ जाती है।

भगवान की शरण जाने वाला भी उदारात्मा हो जाता है। ʹगीताʹ में शरण में आने की बात चार बार आयी हैः

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।

(गीताः 9.18)

जहाँ से सबके जीवन में गति आती है, जो भर्ता है, भोक्ता है उस परमेश्वर की शरण जाओ अर्थात् उसके नाते सबसे मिलो, उसके नाते सबको अपना मानो तो आप उदारात्मा हो जाओगे।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।

भगवान कहते हैं- ʹशरण आओ।ʹ दूसरा तमेव शरणं गच्छ – ईश्वर की शरण में जाओगे तो उदार बन जाओगे। मामेकं शरणं व्रज – मुझ अंतर्यामी परमेश्वर की शरण आओ अन्यथा बुद्धि ही पुण्य पाप से युक्त हो जाती है और सुख-दुःख से छुटकारा पाने के लायक नहीं बनती।

तुम स्वप्नद्रष्टा हो। बीते हुए का शोक करना नासमझी है। भविष्य का भय करना, यह भी कृपणता है। वर्तमान को, बदलने वाले संसार को, परिस्थितियों को सच्चा मानकर प्रभावित होना यह भी कृपणता है। आप उदारात्मा बन जाओ, बुद्धियोगी बन जाओ।

जो सरक रहा है उसको पकड़-पकड़ के याद करना, सच्चा मानना कृपणता है। ʹवाह ! वाह !!… वाह ! वाह!!… यह भी बीत जायेगी, गुजर जायेगी। वाह ! वाह !! आनंद….ʹ तो सत्संग के द्वारा आपका सच्चिदानंद-स्वभाव जागृत होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, अंक 237, पृष्ठ संख्या 12,13

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विश्व संस्कृति का उदगम स्थानः भारतवर्ष


भारतीय संस्कृति से विश्व की सभी संस्कृतियों का उदगम हुआ है क्योंकि भारत की धरा अनादिकाल से ही संतों-महात्माओं एवं अवतारी महापुरुषों की चरणरज से पावन होती रही है। यहाँ कभी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम अवतरित हुए तो कभी लोकनायक श्रीकृष्ण। संत एकनाथ जी, कबीर जी, गुरुनानकजी, स्वामी रामतीर्थ, आद्य शंकराचार्य जी, वल्लभाचार्यजी, रामानंदचार्यजी, भगवत्पाद साँई श्री लीलाशाहजी महाराज आदि अनेकानेक संत-महापुरुषों की लीलास्थली भी यही भारतभूमि रही है, जहाँ से प्रेम, भाईचारा, सौहार्द, शांति एवं आध्यात्मकिता की सुमधुर सुवासित वायु का प्रवाह सम्पूर्ण विश्व में फैलता रहा है।

पूज्य बापूजी कहते हैं- “भारतीय संस्कृति ने समाज को ऐसी दिव्य दृष्टि दी है, जिससे आदमी का सर्वांगीण विकास हो। मनुष्य कार्य तो करे लेकिन कार्य करते-करते कार्य का फल पशु की तरह भोगकर जड़ता की तरफ न चला जाय, इसका भी ऋषियों ने खूब ख्याल किया है।”

जर्मनी के प्रख्यात विद्वान मैक्समूलर भारतीय संस्कृति को समझने के बाद इस संस्कृति के प्रशंसक बन गये। सन् 1858 में महारानी विक्टोरिया से उन्होंने कहा थाः “यदि मुझसे पूछा जाये कि किस देश में मानव-मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके उनका सही अर्थों में सदुपयोग किया है तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा।

यदि कोई पूछे कि किस राष्ट्र के साहित्य का आश्रय लेकर सैमेटिक यूनानी और रोमन विचारधारा में बहते यूरोपीय अपने आध्यात्मिक जीवन को अधिकाधिक विकसित कर सकेंगे, जो इहलोक से ही सम्बद्ध न हो अपितु शाश्वत एवं दिव्य भी हो, तो फिर मैं भारतवर्ष की ओर इशारा करूँगा।”

फ्राँस के महान तत्त्वचिंतक वोल्तेयर ने गहन अध्ययन के बाद लिखा हैः ʹमुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि हमारे पास जो भी ज्ञान है, चाहे अवकाश-विज्ञान या ज्योतिष-विज्ञान या पुनर्जन्म-विषयक ज्ञान आदि, वह हमें गंगा-तट (भारत) से ही प्राप्त हुआ है।ʹ

अपनी ज्ञान-पिपासा को परितृप्त करने भारत ये लॉर्ड वेलिंग्टन ने लिखा हैः ʹसमस्त भारतीय चाहे राजकुमार हो या झोंपड़ों में रहने वाले गरीब, वे संसार के सर्वोत्तम शीलसम्पन्न लोग हैं, मानो यह उनका नैसर्गिक धर्म है। उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम सामंजस्य दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते।ʹ

भारतीय सस्कृति के प्रति विदेशी विद्वानों की श्रद्धा अकारण नहीं है। विश्व में ज्ञान-विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियाँ दिखाई पड़ रही हैं, उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान भारत का ही रहा है। इसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं।

ऐसा उल्लेख है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और निकटवर्ती अन्य द्वीपों में जाकर बस गये थे। चौथी शताब्दी के पूर्व ही अपनी विशिष्टता के कारण यह संस्कृति उन देशों की दिशा-धारा बन गयी। जावा के बोरोबुदुर स्तूप और कम्बोडिआ के शैव मंदिर, राज्यों की सामूहिक शक्ति के प्रतीक-प्रतिनिधि थे। राजतंत्र इन धर्म-संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज भी देखी जा सकती है।

पश्चिमी विचारकों ने भी भारत के तत्त्वज्ञान का प्रसाद लेकर महानता की चोटियों को छूने में सफलता प्रदान की है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ लेथब्रिज ने कहा हैः “पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के आदिगुरु भारतीय ऋषि हैं, इसमें सन्देह नहीं।”

गणितज्ञ पाइथागोरस उपनिषद की दार्शनिक विचारधारा से विशेष प्रभावित थे। सर मोनियर विलियम्स कहते हैं- “यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पाइथागोरस दोनों ने दर्शनशास्त्र का ज्ञान भारतीय गुरुओं से प्राप्त किया था।”

ʹयह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में लेने लायक है कि 2500 साल पूर्व समोस से गंगा-तट पाइथागोरस ज्यामिती सीखने के लिए गये थे और यदि उस समय से पूर्वकाल से यूरोप में ब्राह्मणों की विद्या की महिमा फैली नहीं होती तो वह इतनी कठिन यात्रा नहीं करता।ʹ (वोल्तेयर के दिनांक 15-12-1775 के पत्र से उद्धृत)

वास्तव में जो आज के विद्यार्थी पाइथागोरस के प्रमेय के नाम से सीखते हैं, वह महर्षि बोधायन लिखित ग्रंथ ʹबोधायन श्रौतसूत्रʹ के अंतगर्त शुल्ब सूत्रों में से एक है।

गेटे ने महाकवि कालिदास जी द्वारा रचित ʹअभिज्ञानशाकुन्तलम्ʹ नाटक से प्रेरणा पाकर ʹफॉस्टʹ नाटक की रचना की। दार्शनिक फिटके तथा हेगल, वेदांत के अद्वैतवाद के आधार पर एकेश्वरवाद पर रचनाएँ प्रस्तुत कर पाये। अमेरिकी विचारक थोरो तथा इमर्सन ने भारतीय दर्शन के प्रभाव का ही प्रचार-प्रसार अपनी भाषा में किया।

गणित विद्या का आविष्कारक भारत ही रहा। शून्य तथा संख्याओं को लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंकों को भिन्न-भिन्न चिह्नों से व्यक्त किया जाता था। भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने वर्गमूल, घनमूल जैसी गणितीय विधाओं का आविष्कार किया, जो आज पूरे विश्व में प्रचलित हैं।

विश्व के महान भौतिक वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाईन ने कहा हैः “हम भारतीयों के अत्यन्त ऋणी हैं कि उन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना कोई भी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज नहीं की जा सकती।”

अरब निवासी अंकों को हिंदसा कहते थे क्योंकि उऩ्होंने अंक विद्या भारत से अपनायी थी। इनसे फिर पश्चिमी विद्वानों ने सीखी। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिर्विदों ने यह खोजा कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के समय का सही आकलन करने वाली ज्योतिष विद्या इसी देश की देन है। जर्मनी के कुछ विश्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। उनमें वर्णित कितनी ही गुह्य विधाओं पर वहाँ के वैज्ञानिक खोज में लगे हुए हैं। भारत की महिमा सुनकर चीन के विद्वान फाह्यान, ह्युएनसांग, इत्सिंग आदि भारतभूमि के दर्शन-स्पर्श के लिए यहाँ आये और वर्षों तक ज्ञान अर्जित करते रहे।

कम्बोडिया तीसरे से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य था। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ऋषि कौण्डिय के नाम पर पड़ा। इंडोनेशिया वर्तमान में तो मुस्लिम देश है किंतु भारतीय संस्कृति की गहरी छाप यहाँ मौजूद है। ʹइंडोनेशियाʹ युनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ʹभारतीय द्वीपʹ।

जावा के लोगों का विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा वेदव्यास ऋषियों ने वहाँ विकसित सभ्य बस्तियाँ बसायी थीं। सुमात्रा द्वीप में हिन्दू राज्य की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई थी। यहाँ पाली एवं संस्कृत भाषा पढ़ायी जाती थी।

बोर्नियो में हिन्दू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गयी थी। यहाँ भगवान शिव, गणेष जी, ब्रह्माजी तथा अगस्त्य आदि ऋषियों व देवी देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई। कितने ही पुरातन हिन्दू  मंदिर आज भी यहाँ मौजूद हैं।

इतिहासकारों के अनुसार थाइलैंड का पुराना नाम ʹश्याम देशʹ था। यहाँ की सभ्यता भारत की संस्कृति से मेल खाती है। दशहरा, अष्टमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वों पर भारत की तरह यहाँ भी उत्सव मनाये जाते हैं। थाई रामायण का नाम ʹरामकियेनʹ है, जिसका अर्थ है ʹरामकीर्तिʹ।

ऐसे अनगिनत प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं, जो यही बताते हैं कि भारत समय-समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान के सागर से विश्व-वसुन्धरा को अभिसिंचित करता रहा है, अब  भी कर रहा है और आगे भी करता रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 236

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