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वर्षा ऋतु में लाभदायी अजवायन


अजवायन उष्ण, तीक्ष्ण, जठराग्निवर्धक, उत्तम वायु व कफनाशक, आमपाचक व पित्तवर्धक है। वर्षा ऋतु में होने वाले पेट के विकार, जोड़ों के दर्द, कृमिरोग तथा कफजन्य विकारों में अजवायन खूब लाभदायी है।

अजवायन में थोड़ा-सा काला नमक मिलाकर गुनगुने पानी के साथ लेने से मंदाग्नि, अजीर्ण, अफरा, पेट का दर्द एवं अम्लपित्त (एसिडिटी) में राहत मिलती है।

भोजन के पहले कौर के साथ अजवायन खाने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है। संधिवात और गठिया में अजवायन के तेल की मालिश खूब लाभदायी है।

तेल बनाने की विधिः 250 ग्राम तिल के तेल को गर्म करके नीचे उतार लें। उसमें 15 से 20 ग्राम अजवायन डालकर कुछ देर तक ढक के रखें फिर छान लें, अजवायन का तेल तैयार ! इससे दिन में दो बार मालिश करें।

अधिक मात्रा में बार-बार पेशाब आता हो तो अजवायन और तिल समभाग मिलाकर दिन में एक से दो बार खायें।

मासिक धर्म के समय पीड़ा होती हो तो 15 से 30 दिनों तक भोजन के बाद या बीच में गुनगुने पानी के साथ अजवायन लेने से दर्द मिट जाता है। मासिक अधिक आता हो, गर्मी अधिक हो तो यह प्रयोग न करें। सुबह खाली पेट 2-4 गिलास पानी पीने से अनियमित मासिक स्राव में लाभ होता है।

उलटी में अजवायन और एक लौंग का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटना लाभदायी है।

सभी प्रयोगों में अजवायन की मात्राः आधा से दो ग्राम।

सावधानीः शरद व ग्रीष्म ऋतु में तथा पित्त प्रकृतिवालों को अजवायन का उपयोग अत्यल्प मात्रा में करना चाहिए।

स्वास्थ्य वर्धक ʹजौʹ

आयुर्वेद ने ʹजौʹ की गणना नित्य सेवनीय द्रव्यों में की है। जौ कफ-पित्तशामक, शक्ति व पुष्टिवर्धक है। यह पचने में थोड़ा भारी, वायुवर्धक, मलवर्धक वे पेशाब खुलकर लाने वाला है। जौ चर्बी व कफ को घटाता है। अतः सर्दी, खाँसी, दमा आदि कफजन्य विकार, दाह, जलन, रक्तपित्त आदि पित्तजन्य विकार, मूत्रसंबंधी रोग व मोटापे में जौ खूब लाभदायी है। यह जठराग्नि व मेधा को बढ़ाने वाला तथा कंठ को सुरीला बनाने वाला है। इसके सेवन से उत्तम वर्ण की प्राप्ति होती है। जौ कंठ व चर्म रोगों में लाभदायी है।

कोलेस्ट्रोल व एलडीएल की वृद्धि, हृदयरोग, उच्च रक्तदाब, किडनी फेल्युअर व कैंसर में गेहूँ के स्थान पर जौ का उपयोग हितकारी सिद्ध हुआ है। जौ की  पतली राब बनाकर ठंडी होने पर शहद मिला के पीने से उलटी, पेट का दर्द, जलन, बुखार में राहत मिलती है। पित्तजन्य विकारों में जौ का भात घी व दूध मिलाकर खाना लाभदायी है।

80 प्रतिशत गेहूँ के आटे में 20 प्रतिशत जौ का आटा मिलाकर बनायी गयी रोटी  पौष्टिक, स्वास्थ्य-प्रदायक व बड़ी हितकारी होती है। जौ का मीठा या नमकीन दलिया भी बना सकते हैं।

अदरक व सोंठ

यह तीखी, उष्ण, कफ-वातशामक एवं जठराग्निवर्धक है। यह जुकाम, खाँसी, श्वास, मंदाग्नि आदि वर्षा ऋतु जन्य अनेक तकलीफों में लाभदायी व हृदय की क्रियाशक्ति को बढ़ाने वाली है।

औषधि-प्रयोगः दूध में 1-2 चुटकी सोंठ मिलाकर पीना हृदय के लिए बलदायी है अथवा तज का छोटा टुकड़ा डालकर उबाला हुआ दूध पी जायें (तज का टुकड़ा खाना नहीं है)।

ताजी छाछ में चुटकीभर सोंठ, सेंधा नमक व काली मिर्च मिलाकर पीने से आँव, मरोड़ तथा दस्त दूर होकर भोजन में रूचि बढ़ती है।

10 मि.ली. अदरक के रस में 1 चम्मच घी मिलाकर पीने से पीठ, कमर व जाँघ के दर्द में राहत मिलती है।

अदरक के रस में सेंधा नमक या हींग मिलाकर मालिश करने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है।

घृतकुमारी रस

घृतकुमारी (ग्वारापाठा) के विषय में सभी धर्मग्रन्थों में सम्मानपूर्वक विवरण मिलता है। प्राचीन काल से भारतीय इसे औषधि के रूप में उपयोग में ला रहे हैं। यह स्वास्थ्य-रक्षक, सौंदर्यवर्धक व रोगनिवारक गुणों के कारण विख्यात रही है। यह आश्चर्यजनक औषधि 220 से भी अधिक रोगों में उपयुक्त सिद्ध हुई है।

घृतकुमारी शरीरगत दोषों व मल के उत्सर्जन के द्वारा शरीर को शुद्ध व सप्तधातुओं को पुष्ट कर रसायन का कार्य करती है। यह जंतुघ्न (एंटीबायोटिक) व विषनाशक भी है। यह स्वस्थ कोशिकाओं का निर्माण कर रोगप्रतिरोधक प्रणाली को मजबूत करने में अति उपयोगी है। आयुर्वेद के अनुसार ग्वारपाठा वात-पित्त-कफशामक, जठराग्निवर्ध, मलनिस्सारक, बल, पुष्टि व वीर्य़वर्धक तथा नेत्रों के लिए हितकारी है। यह यकृत (लीवर) के समस्त दोषों  निवारण कर उसकी कार्यप्रणाली को सशक्त बनाता है, अतः यह यकृत के लिए वरदानस्वरूप है।

विविध त्वचाविकार, पीलिया, रक्ताल्पता, कफजन्य ज्वर, जीर्ण ज्वर (हड्डी का बुखार), खाँसी, तिल्ली की वृद्धि, नेत्ररोग, स्त्रीरोग, हर्पीज(Herpes), वातरक्त(gout), जलोदर(Ascitis), घुटनों व अन्य जोड़ों का दर्द, जलन, बालों का झड़ना आदि में उपयोगी है। पेट के पुराने रोग, चर्मरोग, गठिया व मधुमेह (डायबिटीज) में यह विशेष लाभप्रद है।

रस की मात्राः बच्चों के लिए 5 से 15 मि.ली. तथा बड़ों के लिए 15 से 25 मि.ली.) सुबह खाली पेट।

नीता वैद्य, वंदना वैद्य

(टिप्पणीः यह सभी आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर सेवाभाव से सस्ते में मिलेगी।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 236

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वास्तविक उन्नति


(पूज्य बापूजी की अमृतवाणी)

लोग बोलते हैं, ʹउन्नति-उन्नति…..ʹ लेकिन अपनी-अपनी मान्यता और कल्पना की उन्नति एक बात है। वास्तविक उन्नति कौन सी है ? बढ़िया फर्नीचर है, बढ़िया खाने-पीने की चीजें बहुत हैं, घूमने के साधन बहुत हैं अर्थात् जिसमें भोग-सामग्री बढ़ाने की वृत्ति हो, वह समझो पैशाचिक उन्नति है। भोग-सामग्री बढ़ाकर जो अपने को बड़ा मानता है, समझो वह पिशाच-योनि की वासना वाला व्यक्ति है।

जो धन बढ़ाकर अपने को बड़ा मानता है वह राक्षसी वृत्ति का है। राक्षसों के पास खूब धन होता है। रावण के पास देखो, सोने की लंका थी। ʹमैं रावण हूँ, बड़ा धनी हूँ….ʹ जो दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मानना चाहता है उसकी दानवी उन्नति है। दानव लोग दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मनाने में ही खप जाते हैं। जो सदभाव का विकास करके बड़ा बनना चाहते हैं, सत्संग में जाकर, जप-ध्यान करके, दीक्षा ले के अपनी उन्नति करना चाहते हैं, उनका असली बड़प्पन का रास्ता अच्छी तरह से खुलने लगता है। वे ज्ञान-विज्ञान से तृप्त होकर असली पुरुषार्थ, ʹपुरुषस्य अर्थ इति पुरुषार्थः।ʹ परमात्मा के अर्थ में शरीर को रखेंगे, खायेंगे-पियेंगे, देंगे-लेंगे लेकिन महत्त्व भगवान को देंगे। उनमें सागर जैसी गम्भीरता आ जाती है। सागर की ऊपर की तरंगें खूब उछलती-कूदती हैं लेकिन गहराई में बड़ा शांत पानी, ऐसे ही वे नींद में से उठेंगे तो उनकी बुद्धि भगवान की गम्भीर उदधि की गहराई जैसी अवस्था में होगी। जैसे श्रीरामचन्द्रजी को राज्याभिषेक होने की खबर मिली तो भी उछल कूद नहीं। सागर की गहराई में जैसे पानी गम्भीर रहता है, ऐसे ही रामचन्द्र जी का स्वभाव शांत व गम्भीर रहा। वनवास मिला तो श्रीरामचन्द्रजी के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ी, ʹहोता रहता है, संसार है।ʹ

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।

यह नाव तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।।

संसार है, बीतने दो। गम्भीरता से इसको देखो। ऐसा करने वाला व्यक्ति परमार्थ के रास्ते अच्छी तरह से तरक्की करता है। उसमें विनयी स्वभाव भी आ विराजता है। ʹमैं ऐसा हूँ…. मैं वैसा हूँ….ʹ यह मान्यता उसकी क्षीण हो जाती है।ʹमैं भगवान का हूँ, चेतनस्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ और सदा मेरा साथ निभाने वाला अगर कोई है तो भगवान ही है।ʹ – ऐसी उसकी ऊँची सूझबूझ हो जाती है। ʹपिछले जन्म की माँ नहीं है, बाप नहीं है, मित्र नहीं है लेकिन अंतरात्मा तो वही का वही। बचपन के मित्र नहीं हैं, सखा नहीं हैं, स्नेही नहीं हैं। बचपन में जो मेरी तोतली भाषा के समय थे अथवा किशोर अवस्था में थे, वे न जाने कहाँ चले गये ! उनको जानने वाला अभी भी मेरा परमात्मा मेरे साथ है।ʹ – ऐसी सूझबूझ उसकी बढ़ती जाती है। उसका अहं अन्य वस्तु, अन्य व्यक्ति के फंदे में नहीं फँसता, उसका ʹमैंʹ मूलस्वरूप परमात्मा के ʹमैंʹ से स्फुरित होता है और उसी में शांति पाता है। उसमें तुच्छ अहंकार का अभाव हो जाता है।

ऐसे जो वास्तविक उन्नति के रास्ते चलते हैं, उसको ʹसाधकʹ कहते हैं। वे परम पद की साधना में ही उन्नति मानते हैं। चाहे रहने-खाने की सुविधा अच्छी हो या साधारण, लेकिन चिंतन भगवान का, शांति भगवान में, चर्चा भगवान की, आनंद  भगवान का, विनोद भगवान से, माधुर्य भगवान का…. तो वे वास्तविक उन्नति के धनी साधक आत्मसुख में, आत्मचर्चा में, आत्मज्ञान में, परमात्मरस में रसवान हो जाते हैं। ऐसे लोगों को कुछ बातों का ध्यान रखना होता है।

पहला, अपने कर्म जाँचें कि हम दूषित कर्म तो नहीं करते अथवा दूषित कर्मवालों के प्रभाव में तो हम नहीं खिंच जाते हैं। दूसरा, हमारे में धैर्य है कि नहीं। जरा जरा बात में हम चिढ़ जाते हैं या प्रभावित हो जाते हैं, ऐसा तो नहीं है। तीसरा, आत्मनिरीक्षण करके महापुरुषों के वचनों को आत्मसात् करने की तत्परता रखनी चाहिए। ऐसे लोगों को भगवान की प्राप्ति सुगम हो जाती है। उनमें भगवान के दिव्य गुण आने लगते हैं। प्रशान्त चित्त, दयालु स्वभाव, स्वार्थरहित प्रेम, सदा सत्यचिंतन, सत्य में विश्रान्ति, साधननिष्ठा में दृढ़ता, सहृदयता, आस्था और श्रद्धा-विश्वास, प्रभुप्रीति, पूर्ण आत्मीयता, ʹप्रभु मेरे हैं, मैं प्रभु का हूँ और प्रभु के नाते सब मेरे हैं, मैं सबका हूँʹ – ऐसे दिव्य गुणों में वे अपनी उन्नति मानते हैं। सचमुच यही उन्नति है। राजा भर्तृहरि लिखते हैं कि ʹमनुष्य जीवन में गुणी जनों का संग, संतजनों का संग, संतजनों का सत्संग और उनके मार्ग से परमात्मा में शान्ति, प्रीति – वास्तविक उन्नति यही है।ʹ

सत्संग से राक्षसी उन्नति, मोहिनी उन्नति, तामसी उन्नति, राजसी उन्नति इनका आकर्षण छूटकर असली उन्नति होती है। सत्संग के बिना की ये सब उन्नतियाँ अपनी-अपनी जगह पर व्यक्ति को उन्हीं दायरों में लगा देती हैं लेकिन सत्संग के बाद पता चलता है कि वास्तविक उन्नति प्रजा की, राजा की और मानव की किसमें हैं ?

ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ के मुख्य श्रोता हैं भगवान रामजी और वक्ता हैं भगवान राम के गुरु वसिष्ठजी। वसिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चांडाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे तो वह भी श्रेष्ठ है पर मूर्खता से जीवन व्यर्थ है।”

संसार को सत्य मानना, देह को ʹमैंʹ मानना, मिलने-बिछुड़ने वाली चीजों के लिये सुखी-दुःखी होना – यह मूर्खता है। तुच्छ मतिवाले प्राणी इसी में उलझते, जन्मते-मरते रहते हैं। मनुष्य भी ऐसे ही जिया और ऐसे ही मरा, प्रकृति के प्रभाव में परेशानीवाली योनि में भटकता रहा तो धिक्कार है उन उन्नतियों को !

आत्मलाभात् न परं विद्यते। आत्मज्ञानात् न परं विद्यते। आत्मसुखात् न परं विद्यते। – इन वचनों की तरफ ध्यान देकर वास्तविक उन्नति की तरफ चलना चाहिए। इंद्रियशुद्धि, भावशुद्धि और आत्मज्ञान देने वाले महापुरुषों का मार्गदर्शन सच्ची उन्नति और शाश्वत उन्नति देता है, बाकी सब नश्वर उन्नतियाँ नाश की तरफ घसीट ले जाती है। अतः जहाँ सत्संग मिलता है उस स्थान का त्याग नहीं करना चाहिए।

वास्तविक उन्नति अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से, आत्मा-परमात्मा की प्रीति से, आत्मा-परमात्मा में विश्रान्ति पाने से होती है। जिसने सत्संग के द्वारा परमात्मा में आराम करना सीखा, उसे ही वास्तव में आराम मिलता है, बाकी तो कहाँ है आराम ? साँप बनने में भी आराम नहीं, भैंस बनने में भी आराम नहीं है, कुत्ता या कलंदर बनने में भी आराम नहीं, आराम तो है अंतर्यामी राम का पता बताने वाले संतों के सत्संग में, ध्यान में, योग में। वहाँ जो आराम मिलता है, वह स्वर्ग में भी कहाँ है !

संत तुलसी दास जी कहते हैं-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

(श्रीरामचरित. सुं.कां. 4)

सत्संग की बड़ी भारी महिमा है, बलिहारी है। ʹमैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं। संसार और शरीर पंचभौतिक हैं लेकिन जीवात्मा चैतन्य है, परमात्मा का है। परमात्मा के साथ हमारा शाश्वत संबंध है। शरीर के साथ हमारा काल्पनिक संबंध है।ʹ

पक्का निश्चय करो कि ʹआज से मैं भगवदरस पिऊँगा। वास्तविक उन्नति का मर्म जानकर तुच्छ उन्नति को उन्नति मानते गलती निकाल दूँगा।ʹ वास्तविक उन्नति जिसकी होती है, उसे तुच्छ उन्नति करनी नहीं पड़ती, अपने आप हो जाती है।

गहरा श्वास लो और सवा मिनट श्वास रोककर जितना हो सके ૐकार का जप करो, वास्तविक उन्नति बिल्कुल हाथों-हाथ ! दस बार रोज करो, चालीस दिन के अनुष्ठान, मौन व एकांत से आपको चमत्कारिक अनुभव होने लगेंगे। मुझे हुए हैं, तुमको क्यों नहीं होंगे ! मुझे मिला है तुम्हें क्यो नहीं मिलेगा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 4,5,30 अंक 236

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महामूर्ख से महाविद्वान


(आत्मनिष्ठ पूज्य बापू जी की मधुमय अमृतवाणी)

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।

जन्म जन्मान्तरों की पाप-वासनाएँ, दूषित कर्मों के बन्धन सत्संग काट देता है और हृदय में ही हृदयेश्वर का आनंद-माधुर्य भर देता है।

कितना भी गया-बीता व्यक्ति हो, मूर्खों से भी दुत्कारा हुआ महामूर्ख हो लेकिन सत्संग मिल जाय तो महापुरुष बन जाता है, राजा महाराजाओं से पूजा जाता है, देवताओं से पूजा जाता है, भगवान उसके दर के चाकर बन सकते हैं, सत्संग में वह ताकत है।

पूनम की रात थी। विजयनगर का राजा अपने महल की विशाल छत पर टहल रहा था। उसका खास प्यारा मंत्री उसके पीछे-पीछे जी हजूरी करते हुए टहल रहा था। बातों-बातों में विजयनगर नरेश ने कहाः “मंत्री ! तुम बोलते हो कि सत्संग से सब कुछ हो सकता है परंतु जिसमें अक्ल नहीं है, जिसका भाग्य हीन है, जिसके पास कुछ भी नहीं है उसको सत्संग से क्या मिलेगा ?”

बोलेः “राजन् ! कैसा भी गिरा हुआ आदमी हो, सत्संग से उन्नत हो सकता है।”

“गिरा हुआ हो पर अक्ल तो होनी चाहिए न !”

“माँ यह नहीं देखती है कि शिशु अक्लवाला है या बेवकूफ है, माँ तो शिशु को देखकर दूध पिलाती है। वह ऐसा नहीं कहती कि नाक बह रही है, हाथ-पैर गंदे हैं, कपड़े पुराने हैं, नहा-धोकर अच्छा बन जा तब मैं दूध पिलाऊँगी। नहीं-नहीं, जैसा-तैसा है मेरा है बस। सत्संग में आ गया, भगवान और संत के वचन कान में पड़े तो वह  भगवान का हो गया, संत का हो गया।”

“परन्तु कुछ तो होना चाहिए।”

“कुछ हो तो ठीक है, न हो तो भी सत्संग उसे सब कुछ दे देगा।”

विजयनगर का नरेश मंत्री की बात काटता जा रहा है पर मंत्री सत्य और सत्संग की महिमा पर डटा रहा। इतने में एक ब्राह्मण लड़का जा रहा था। चाँदनी रात थी। दोनों हाथों में जूते थे, एक हाथ में एक जूता….। जूते में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। राजा ने गौर से देखा कि जूते में चाँद दिख रहा है तो बोलाः “रोको इस छोरे को।”

राजा ने लड़के से पूछाः “क्या नाम है तेरा और यह जूते में क्या ले जा रहा है ?”

“माँ ने कहा कि तेल ले आना, कोई बर्तन नहीं था तो मैं जूते में ले जा रहा हूँ।”

“मंत्री ! अब इसको तुम महान बनाकर दिखाओ !”

मंत्रीः “इसमें क्या बड़ी बात है !”

लड़के से बात करें तो ऐसा लगे कि पागल भी इससे अच्छे हैं। जूते में तो पागल भी तेल नहीं ले जायेगा।

राजाः “यह महान बन जायेगा ?”

मंत्रीः “हाँ, हाँ।”

उसके माँ बाप को बुलाया गया। मंत्री बोलाः “हम तुम्हारे भरण-पोषण की व्यवस्था कर देते हैं और तुम्हारे बेटे को हम सत्संग में ले जायेंगे। फिर देखो क्या होता है !” बेटा कौन था ? श्रीधर। अक्ल कैसी थी ? जूते में तेल ले जा रहा था ऐसा महामूर्ख था। सत्संग में ले गये उसको। मंत्री ने उसको ʹनृसिहंतापिनी उपनिषदʹ का एक मंत्र बता दिया नृसिंह भगवान का, बोलेः “इस मंत्र के जप से सारे सुषुप्त केन्द्र खुलते हैं।”

लड़के से मंत्र अऩुष्ठान करवा दिया। शुरु-शुरु में उबान लगती है। शुरु-शुरु में तो आप 1,2,3,….10 लिखने भी ऊबे थे। क, ख, ग….. ए, बी, सी, डी…. लिखने में भी ऊबे थे लेकिन हाथ जम गया तो बस…..।

एक अनपढ़ को रात्री-स्कूल में ले गये, बोलेः “तू क, ख, ग…. दस अक्षर लिख दे।”

बोलेः “साहब ! क्यों मुझे मुसीबत में डालते हो ? तुम्हारी दस भैंसें चरा दूँ, दस गायें चरा दूँ, दस किलो अनाज पिसवा दूँ लेकिन ये दस अक्षर मेरे को कठिन लगते हैं।”

आपको दस किलो अनाज उठाना कठिन लगेगा पर दस क्या बीसों अक्षर लिख दोगे क्योंकि हाथ जम गया। ऐसे ही सत्संग से मन भगवान के रस में, भगवान के ज्ञान में जम जाय तो यह नारकीय संसार आपके लिए मंगलमय मोक्षधाम बन जायेगा। लड़के को मंत्र मिला। सत्संग में यह भी सुना था कि पूर्णिमा या अमावस्या का दिन हो, उस दिन  पति-पत्नी का व्यवहार करने वालों को विकलांग संतान की प्राप्ति होती हैं। अगर संयम से जप-ध्यान करते हैं तो उनकी बुद्धि भी विकसित होती है। शिवरात्रि, जन्माष्टमी, होली या दिवाली हो तो उन दिनों में जप-ध्यान दस हजार गुना फल देता है। गुरु के समक्ष बैठकर जप करते हैं तो भी उस जप का कई गुना फल होता है। जप करते-करते गुरुदेव का ध्यान करते हैं, सूर्य देव का ध्यान करते हैं तो बुद्धि विकसित होती है। सूर्यदेव का नाभि पर ध्यान करते हैं तो आरोग्य विकसित होता है।

जपात् सिद्धि जपात् सिद्धिः

जपात् सिद्धिर्न संशयः।

जप करते जाओ। अंतःकरण की शुद्धि होती जायेगी, भगवदीय महानता विकसित होती जायेगी।

एक दिन वह छोरा जप कर रहा था। जहाँ बैठा था वहाँ खपरैल या पतरे की छत होती है न, उसमें चिड़िया ने घोंसला बनाया था। चिड़िया तो चली गयी थी। घोंसले में जो बच्चा था, धड़ाक से जमीन पर गिर पड़ा। अभी-अभी अंडे से निकला था। पंख-वंख फूटे नहीं थे, दोपहर का समय था। लपक-लपक… उसका मुँह बन्द हो रहा था, खुल रहा था, मानो अभी मरा। बालक श्रीधर को लगा कि ʹइस बेचारे का क्या होगा ? इसकी माँ भी नहीं है और वह आ भी जायेगी तो इसको चोंच में लेकर ऊपर तो रख पायेगी नहीं। इसका कोई भी नहीं है, फिर याद आया कि सत्संग में सुना है कि ʹसभी के भगवान हैं। मूर्ख लोग होते हैं जो बोलते हैं कि मैं अनाथ हो गया, पिता मर गया, मेरा कोई नहीं। पति मर गया, मेरा कोई नहीं, मैं विधवा हूँ…. यह मूर्खों का कहना है। जगत का स्वामी मौजूद है तो तू विधवा कैसे ? जगत का स्वानी मौजूद है तो तू अनाथ कैसे ?

यह तो अनाथ जैसा है अभी, इसके माँ-बाप भी नहीं इधर, पंख भी नहीं। अब देखें जगत का नाथ इसके लिए क्या करता है !ʹ

इतने में जगत के नाथ की क्या लीला है, उसने दो मक्खियों की मति फेरी। वे मक्खियाँ आपस में लड़ पड़ीं। दोनों ऐसी आपस में भिड़ गयीं कि धड़ाक से लपक-लपक करने वाले बच्चे के मुँह के अंदर घुस गयीं। बच्चे ने मुँह बन्द करके अपना पेट भर लिया।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।

दास मलूका यूँ कहे, सबका दाता राम।।

श्रीधर ने कहाः ʹअरे ! हद हो गयी… मक्खियों का प्रेरक उनको लड़ाकर चिड़िया के बच्चे के मुँह में डाल देता है ताकि उसकी जान बचे और वे मक्खी-योनि से आगे बढ़कर चिड़िया बने। वह  कैसा है मेरा प्रभु ! प्रभु तुम कैसे हो ? मक्खी के भी प्रेरक हो, चिड़िया के भी प्रेरक हो और मेरे दिल में भी प्रेरणा देकर इतना ज्ञान दे रहे हो। मैं तो जूते में तेल ले जाने वाला और मेरे प्रति तुम्हारी इतनी रहमत ! प्रभु ! प्रभु ! ૐ….ૐ…..

आगे चलकर यही श्रीधर महान संत बन गये, जिनका नाम पड़ा श्रीधर स्वामी। अयाचक (अन्न आदि के लिए याचना न करने का) व्रत था इनका। इन्होंने ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ पर टीका लिखी। लिखते समय गीता के ʹयोगक्षेमं वहाम्यहम्ʹ पद को काट के ʹयोगक्षेमं ददाम्यहम्ʹ लिख दिया और जलाशय में स्नान करके फिर व्याख्या लिखूँगा ऐसा सोचकर स्नान करने गये। इतने में बालरूप में नन्हें-मुन्ने श्रीकृष्ण चावल-दाल मिश्रित खिचड़ी की गठरी लेकर आये और बोलेः “आपके घर में आज रात के लिए खिचड़ी नहीं है। लो, मेरा बोझा उतार लो।”

श्रीधर की पत्नी दंग रह गयी। बालक से वार्तालाप करके आश्चर्य के समुद्र में गोते खाने लगी। उसने बालक को गौर से देखा तो बोलीः “तुम्हारा होंठ सूजा हुआ है। किसने मारा तुम्हारे मुँह पर तमाचा ?”

“आपके पति श्रीधर स्वामी ने। बाद में वे स्नान करने गये। अब मैं जाता हूँ।”

कुछ ही समय में श्रीधर स्वामी स्नान करके लौटे। पत्नी ने कहाः “इतना सुकुमार बालक खिचड़ी का बोझ वहन करके आया और आपने उसके मुँह पर चाँटा मारा !”

पत्नी की बात विस्तार से सुनकर श्रीधर स्वामी को यह समझने में देर न लगी कि भगवान के ʹयोगक्षेमं वहाम्यहम्ʹ वचन को काटकर ʹयोगक्षेमं ददाम्यहम्ʹ लिखा, वह कितना गलत है यह समझाने नंदनंदन आये थे।

कहाँ तो जूते में तेल ले जाने वाले और कहाँ भगवान के दर्शन करने वाली पत्नी न समझ पायी और ये समझ गये। ʹगीताʹ पर लिखी श्रीधर स्वामी की टीका बड़ी सुप्रसिद्ध है। हमारे गुरु जी भी पढ़ते सुनते थे, हमने भी पढ़ी सुनी है।

आखिर मंत्री का बात सत्य साबित हुई। सत्संग कहाँ-से-कहाँ पहुँचा देता है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 16, 17,18 अंक 236

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