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ईश्वर का भोग और ईश्वर से योग


(आत्मनिष्ठ पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

आपको ईश्वर से योग करना है कि ईश्वर का भोग करना है ? बोलो ! वासुदेवः सर्वम् है तो भोग किसका कर रहे हैं ? ईशावास्यमिदं सर्वं…. सब ईश्वर है तो भोग तुम ईश्वर का करते हो कि दूसरे किसी का ? बताओ ! दिन-रात ईश्वर का ही भोग कर रहे हैं लेकिन पता नहीं है। चीज-वस्तु सब ईश्वर ही है और यहाँ (भोक्ता के रूप में) भी ईश्वर है। पति-पत्नी सब ईश्वर है। ईश्वर का भोग हो रहा है और ईश्वर से योग भी हो रहा है लेकिन भोग संयत करो तो ईश्वर के योग और भोग दोनों में पास हो जाओगे तथा भोग अधिक करोगे तो खोखले हो जाओगे।

ʹईश्वर का भोग करेंʹ तो तुम ईश्वर का भोग करने वाले कौन ? ईश्वर से बड़े हो ? नहीं, ईश्वर के स्वरूप हो। तो हम अपने-आपका भोग कर रहे हैं। अपने-आपका भोग करोगे संयम से तो अपने-आपको जानोगे और अपने-आपका भोग करोगे असंयम से तो अज्ञानी, मूर्ख होकर नीच योनियों में जाओगे।

तुम ईमानदारी से सभी का मंगल चाहो, सभी का हित चाहो और फिर अपना। समाज का मंगल चाहना – यह संसार की सेवा हो गयी। ईश्वर को प्रेम करना – यह ईश्वर की सेवा हो गयी और अपने आत्मा में आकर बैठना, अपनी सेवा हो गयी। बस, तीन सेवाएँ करनी हैं और क्या है ! अपने-आपमें बैठना है, तो मंत्रोच्चारण करते हुए निःसंकल्प हों – परमात्मने नमः। ૐૐ आनंदस्वरूपाय नमः। ૐ….ૐ….. ૐ…. माने जो सारी सृष्टियों का पालनहार, कर्ता-धर्ता है और अंतर्यामी होकर विराज रहा है।

जो ईश्वर को भोगता है वह लघु साधना में जाता है लेकिन जो ईश्वर को भोगते हुए जानता है, ʹवह ईश्वर गुरु हैʹ – ऐसा जानकर स्वयं भी गुरु बन जाता है और लघुता से पार हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 10

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हरि ब्यापक सर्वत्र समानाः…..


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

गुजरात में नारायण प्रसाद नाम के एक वकील रहते थे। वकील होने के बावजूद भी उन्हें भगवान की भक्ति अच्छी लगती थी। नदी में स्नान करके गायत्री मंत्र का जप करते, फिर कोर्ट कचहरी का काम करते। कोर्ट-कचहरी में जाकर खड़े हो जाते तो कैसा भी केस हो, निर्दोष व्यक्ति को तो हँसते-हँसते छुड़ा देते थे, उनकी बुद्धि ऐसी विलक्षण थी।

एक बार एक आदमी को किसी ने झूठे आरोप में फँसा दिया था। निचली कोर्ट ने उसको मृत्युदंड की सजा सुना दी। अब वह केस नारायण प्रसाद के पास आया।

ये भाई तो नदी पर स्नान करने गये और स्नान कर वहीं गायत्री मंत्र का जप करने बैठ गये। जप करते-करते ध्यानस्थ हो गये। ध्यान से उठे तो ऐसा लगा कि शाम के पाँच बज गये। ध्यान से उठे तो सोचा कि ʹआज तो महत्त्वपूर्ण केस था। मृत्युदंड मिल हुए अपराधी का आज आखिरी फैसले का दिन था। पैरवी करके आखिरी फैसला करना था। यह क्या हो गया !ʹ

जल्दी-जल्दी घर पहुँचे। देखा तो उनके मुवक्किल के परिवार वाले भी बधाई दे रहे हैं, दूसरे वकील भी बधाई देने आये हैं। उनका अपना सहायक वकील और मुंशी सब धन्यवाद देने आये हैं। बोलने लगेः “नारायण प्रसाद जी ! आपने तो गजब कर दिया ! उस मृत्युदंड वाले को आपने हँसते-खेलते ऐसे छुड़ा दिया कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हम आपको बधाई देते हैं।

नारायण प्रसाद ने गम्भीरता से उनका धन्यवाद स्वीकार कर लिया। उनको तो पता था ʹमैं कोर्ट में गया ही नहीं हूँ।ʹ

संध्या करके जो कुछ जलपान करना था किया, थोड़ा टहलकर फिर शय़नखंड में गये। सोचते रहे कि ʹभगवान ने मेरा रूप कैसे बना लिया होगा ?ʹ इसके विषय में सूक्ष्म चिंतन किया। विचार करते-करते नारायण प्रसाद को हुआ कि ʹमुझे आज केस के लिए कोर्ट में जाना था, मुझे पता था और मुझे पता रहे उसके पहले मेरे अंतर्यामी जानते थे। मन में जो भाव आते हैं, उन सारे भावों को समझने वाले भावग्रही जनार्दनः हैं। जहाँ से भाव उठता है वहाँ तो वे ठाकुरजी बैठे हैं।

ʹथोड़ा ध्यान करके जाऊँगाʹ, यह मेरा संकल्प मेरे अंतर्यामी ने जान लिया। वह मेरा अंतरात्मा ही नाराय़ण प्रसाद वकील बन के, केस जिताकर मुझे यश देता है। यह प्रभु की क्या लीला है ! यह सब क्या व्यवस्था है !ʹ – यह विचार करते-करते सो गये।

थोड़ी नींद ली, इतने में उनके कानों में ʹनारायण….. नारायण…. नारायण…. ʹ की आवाज सुनायी दी और वे अचानक उठकर बैठ गये। उन्हें लगा कि ʹयह आवाज तो मेरे घर के प्रवेशद्वार से अंदर आ रही है।ʹ कौन होंगे ?

दरवाजा खोला तो देखा कि एक लँगोटधारी महापुरुष खड़े हैं। वे आदेश के स्वर में बोलेः “अरे नारायण ! कब तक सोता रहेगा, खड़ा हो जा।” वे उन महापुरुष के नजदीक आकर खड़े हो गये। वे घर से बाहर निकले। नारायण प्रसाद उनके पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर बोलेः “अरे, जेब में क्या रखा है ? लोहे का टुकड़ा जेब में रखा है क्या ?”

देखा कि जेब में तिजोरी की चाबियाँ हैं। उन्होंने चाबियाँ वहीं रास्ते में फेंक दीं। आगे बाबा, और पीछे नारायण प्रसाद। जाते-जाते एकांत में नारायण प्रसाद को बाबाजी ने ज्ञान दिया कि ʹवे परमात्मा विभु-व्याप्त हैं। वे यदि अंतरात्मा रूप में नहीं मिले तो बाहर नहीं मिलते हैं। यह उन्हीं आत्मदेव की लीला है। वे ही आत्मदेव तुम्हारा रूप बनाकर केस जीतकर आये हैं। उन परमेश्वर को पा लो, बाकी सब झंझट है।ʹ

लँगोटधारी बाबा थे नित्यानंद महाराज। एक तो वज्रेश्वरी के मुक्तानंद जी के गुरु नित्यानंद जी हो गये, ये दूसरे थे। इंदौर से करीब 70 किलोमीटर दूर धार में इनका आश्रम है, मैं देखकर आया हूँ।

नित्यानंद जी बड़े बाप जी के नाम से प्रसिद्ध थे। नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद को इतना स्नेह करने लगे कि लोग नारायण प्रसाद को छोटे बाप जी बोलने लगे।

छोटे बापजी मानते थे कि ʹवास्तव में तत्त्वरूप से गुरु का आत्मा नित्य, व्यापक, विभु, चैतन्य है और मैं भी वही हूँ।ʹ बड़े बाप जी भी मानते थे कि ʹनारायण प्रसाद का शरीर और मेरा शरीर भिन्न दिखता है लेकिन चिदानंद आकाश दोनों में एकस्वरूप है।ʹ

एक बार उत्तराखंड से कुछ संत नित्यानंद महाराज के दर्शन-सत्संग के लिए धार शहर में स्थित आश्रम में आये थे। नारायण प्रसाद आश्रम की सारी व्यवस्था सँभालते थे। उन्हें लगा कि बड़े बाप जी सबसे ज्यादा महत्त्व नारायण प्रसाद को देते हैं। विदाई के समय नित्यानंद बाबा ने कहाः “चलो, संत लोग आज विदाई ले रहे हैं तो हम आपके साथ बैठकर फोटो निकलवायेंगे।” आग्रह किया तो सब संत राजी हो गये।

फोटोग्राफर ने फोटो लिये। जब फोटो खींचे गये उसमें नारायण प्रसाद को शामिल नहीं किया। लेकिन जब फोटो को प्रिंट किया तो नारायण प्रसाद का फोटो बाबा के हृदय में दिखायी दे रहा था ! फोटोग्राफर दंग रह गया कि ʹयह कैसे ! किसी के हृदय में किसी का फोटो आ जाये !”

बोलेः “बाबा ! यह क्या है ?”

बड़े बाप जी बोलेः “मैं क्या करूँ ? इसको कितना दूर रखूँ, यह तो मेरे हृदय में समा के बैठ गया है।” तो मन में जिसकी तीव्र भावना होती है, वह हृदय में भी दिखायी देता है। नारायण प्रसाद की तीव्र प्रीति, भावना थी तो फोटो में बाबा जी के हृदय में नारायण प्रसाद आ गये।

हमारे कई साधकों के हृदय में ૐकार मंत्र की, हरि ૐ मंत्र की महत्ता है तो बैंगन काटते हैं तो ૐकार दिखता है, रोटी बनाते हैं तो उस पर ૐकार उभरता है। आपकी भगवान के प्रति जैसी तीव्र भावना होती है वैसा उसका सीधा असर पड़ता है और दिखायी भी देता है।

नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद से बोलते थे कि ʹनारायण भी तत्त्वरूप से आत्मदेव हैंʹ तो उनहे हृदय में आकृतिवाले नारायण प्रसाद दिखायी दिये।

बाबा के जीवन में बहुत सारी आध्यात्मिक चमत्कारिक घटनाएँ घटीं लेकिन बड़े-में-बड़ा चमत्कार यह है कि बाबा इन सब चमत्कारों को ऐहिक मानते थे और सारे चमत्कार जिस सत्ता से होते हैं, उस आत्मा-परमात्मा को ʹमैंʹ रूप में जानते थे।

तो ध्यान-भजन करने से आपका पेशा बिगड़ता नहीं बल्कि आपकी बुद्धि में भगवान की विलक्षण लक्षण वाली शक्ति आती है। आप लोग भी इन महापुरुषों की जीवनलीलाओं से, घटनाओँ से अपने जीवन में यह दृढ़ करो कि-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।

प्रेम में प्रगट होहिं मैं जाना।।

(श्रीरामचरित. बा.कां. 184.3)

भगवान व्यापक हैं उनके लिए जिनके हृदय में प्रीति होती है, उनके हृदय में वे प्रकट होते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 12,13

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बुद्धेः फलं अनाग्रहः


(पूज्य बापू जी की तात्त्विक अमृतवाणी)

सत्य अगर बुद्धि का विषय होता तो तीक्ष्ण बुद्धिवाले – मैजिस्ट्रेट, न्यायाधीश, वकील आदि सत्यस्वरूप भगवान को, रब को अपनी तिजोरी में, अपनी जेब में रख लेते। संसारी कावे-दावे (चालबाजियों) में तीक्ष्ण बुद्धि काम आ सकती है लेकिन परमात्मा को पाना है तो पवित्र बुद्धि चाहिए। और बुद्धि वॉशिंग पाउडर से अथवा साबुन से पवित्र नहीं होती, लॉण्ड्री में पवित्र नहीं होती, वह तो व्रत-उपवास और सत्संग से  पवित्र होती है और विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न भी होती है।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा…. (गीताः 9.31)

आपकी बुद्धि जैसा-जैसा सोचती है वैसी वैसी बन जाती है। सारी मुसीबतों, दुःखों और कष्टों का मूल बुद्धि की अपरिपक्वता है। इसे शास्त्रीय भाषा में बोलते हैं-

प्रज्ञापराधो मूलं सर्वरोगाणाम्।

प्रज्ञापराधो मूलं सर्वदोषाणाम्।

सारे रोगों और दोषों का मूल है बुद्धि की बेवकूफी। आपको पता है ? श्रीकृष्ण का अवतार  और सामर्थ्य अदभुत था, चतुर्भुजी हो जाते थे। ऐसे कृष्ण के जीवन में भी कई मित्र आये, यश गाने वाले और विरोधी हो गये। कई विरोधी सुधरकर शरणागत हो गये। श्रीकृष्ण की संतानें श्रीकृष्ण का विरोध करने लगी  परंतु उन्होंने कभी आग्रह नहीं किया कि मेरे बेटे ऐसा क्यों करते हैं ? सबकी अपनी-अपनी मति है, सबकी अपनी-अपनी गति है। ʹमेरा भाई ऐसा है, मेरा बेटा ऐसा है, मेरा पति ऐसा है, ऐसा नहीं हो….ʹ आप यह बुद्धि का दुराग्रह छोड़ दीजिये।

बुद्धि का फल क्या है ?

बुद्धेः फलं अनाग्रहः । बुद्धि का फल है भोगों में और संसार की घटनाओं में आग्रह नहीं रहता। भगवान शिवजी समाधि में रहने वाले हैं और उनके घर में भी देखो, शिवजी नहीं चाहते थे फिर भी सती गयीं पिता के घर। शिवजी के ससुर होने पर भी दक्ष का सिर कट गया। तो जरूरी नहीं कि जो आप चाहें वही हो। हम दुःखी क्यों होते हैं ? क्योंकि बुद्धि में दुराग्रह होता हैः ʹऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए।ʹ

हिरण्यकशिपु की इतनी भारी तपस्या थी कि ब्रह्माजी को खिलौना बना दिया, बोलाः ʹले बेटा ! खेल इनसे… ये चतुरानन ब्रह्माजी हैं। ले इनसे खेल तू।ʹ हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद को ऐसे-ऐसे खिलौने देकर अपने पक्ष में करना चाहता था लेकिन  प्रह्लाद उन खिलौनों में उलझे नहीं, बोलेः “पिताजी ! ये सब बाहर ले जाते हैं, मुझे तो अन्तरात्मा में तृप्ति है।”

हिरण्यकशिपु चकित होकर पूछताः “बेटा ! तू इतना-सा है और तुझे इतना बड़ा ज्ञान कैसे ?” प्रह्लाद की माँ नारदजी के आश्रम में रहती थी क्योंकि पति जंगल में चले गये थे और महल पर इन्द्र ने धावा बोल दिया था। अब वह चिंता करती है कि ʹमैं गर्भवती हूँ। नौ महीने हो गये, दसवाँ पूरा हो रहा है। इधर बाबा के आश्रम में मुझे प्रसूति होती तो कैसा लगेगा ?”

नारदजी समझ गये। बोलेः “बेटी ! तू चिंता न कर। मैं तुझे ʹइच्छा प्रसूतिʹ का वरदान देता हूँ। चाहे दस साल बीत जायें, चाहे पचास साल बीत जायें, जब भी तेरा पति आये और तू चाहे तभी प्रसूति होगी। बालक का कद नहीं बढ़ेगा, सत्संग के द्वारा उसकी बुद्धि बढ़ेगी। तू ध्यान से सत्संग सुन।”

नारदजी के वचन के अनुसार वर्षों तक प्रह्लाद गर्भ में रहा तो सवाल उठेगा कि कयाधू की बुद्धि क्यों नहीं बढ़ी ? कयाधू कि बुद्धि बहुत विषयों में उलझी थी कि ʹमेरे पति का क्या होगा ? मेरे ननिहाल में क्या होता होगा ? मेरे मायके वालों का क्या होता होगा ? मेरे महल का क्या होता होगा ?ʹ जब आप बहुत सारी चीजों में अपनी बुद्धि को भटकते हो तो बुद्धि क्षीण हो जाती है।

हम घर छोड़कर गये तो क्यों गये ? बहुत विषयों से बचने के लिए। मौनमंदिर में किसी साधक को मैं भेजता हूँ तो चमत्कारिक लाभ होता है क्योंकि एक ही विषय में, जप-ध्यान में बुद्धि लगती है।

अगर बुद्धि को भगवत्प्राप्ति के योग्य बनाना है तो फिल्में, अखबार, चुटकले, टी.वी. के कार्यक्रम देखकर बुद्धि को बिखेरो मत। बच्चों को भी बहुत सारे सामान में उलझाओ मत। जो जरूरी है वह करो, बाकी को समेट लो। जब बुद्धि बाहर सुख दिखाती है तो क्षीण हो जाती है और जब अऩ्तर्मुख होती है तो महान हो जाती है, तब उस बुद्धि को ʹऋतम्भरा प्रज्ञा बोलते हैं- ʹऋतʹ माने ʹसत्यʹ से भरी हुई बुद्धि।

बुद्धि नष्ट कैसे होती है ?

जो काम है, वासना है कि ʹयह मिल जाय, यह मिल जाय, यह पाऊँ, यह भोगूँ….ʹ – इससे बुद्धि छोटी हो जाती है। अपने-आप में अतृप्त रहना, असंतुष्ट रहना इससे बुद्धि कमजोर हो जाती है। किसी के प्रति राग-द्वेष करने से भी बुद्धि कमजोर हो जाती है।

अगर देखने का मजा, स्वाद का मजा लेने की दृढ़ता बनी रही हो पतंगे की, मछली की योनि में जायेंगे। सुगंध के मजे की आदत पड़ गयी तो भौंरा बन जायेंगे। संत तुलसीदास जी कहते हैं-

अली पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आँच।

तुलसी तिनकी कौन गति, जिनको व्यापे पाँच।।

तो इन चीजों को मजा लेकर अपने को इनके अधीन बनाने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। संसारी कामनाओं से बुद्धि बिगड़ती है, अतृप्ति होती है, राग-द्वेष होता है। स्पर्धा, भय व क्रोध आदि से बुद्धि कमजोर होती है।

बुद्धि महान कैसे होती है ?

सत्य बोलने से बुद्धि विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न होती है। विषयों से मजा लेकर अपने को उनके अधीन करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जात है। इन चीजों का उपयोग करके अपने को परमात्मरस से तृप्त करने से बुद्धि महान हो जाती है। भगवान के, गुरु के चिंतन से बुद्धि तृप्त होती है, राग-द्वेष मिटता है, कामनाएँ शांत होती हैं। भगवान और गुरु के चिंतन से सारे दोष चले जाते हैं।

तो जिन कारणों से बुद्धि उन्नत होती है वे सत्संग में मिलते हैं और जिन कारणों से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है उनसे बचने का उपाय भी सत्संग में मिलता है। इसलिए सत्संग से जो पुण्य, जो समझ और जो फायदा होता है वह साठ हजार वर्ष तपस्या करने से भी नहीं होता। इतना तप करने वाले, संकल्प से खेत-खलिहान और समुद्र पर हुकूमत करने वाले, वरुण, कुबेर और ब्रह्माजी जैसों को खिलौना बनाकर बेटे को देने वाले हिरण्यकशिपु का सोने का हिरण्यपुर आज कहाँ है ? उसका राज्य कहाँ है ? देखा जाय तो हिरण्यकशिपु लौकिक जगत में बहुत पहुँचा हुआ व्यक्ति था। जब ऐसे पहुँचे हुए व्यक्ति का राज्य नहीं रहा तो हमारी बेईमानी की सम्पत्ति, भ्रष्टाचार का अथवा कहीं किसी को नोचकर इकट्ठा किया हुआ धन कब तक रहेगा ? हिरण्यकशिपु ने तपस्या से जो इतना पाया था वह भी मिट गया, मटियामेट हो गया तो आपकी चिंता से आपके कारखाने में बन-बनकर कितने रूपये बनेंगे ? आपकी दुकान में कितने बनेंगे और कब तक रहेंगे ? असंतुष्टि आदमी की बुद्धि को भ्रमित कर देती है। इसलिए ʹगीताʹ कहती हैः सन्तुष्टः सततं योगी….

जो धन मिल गया मिल गया, चला गया तो उसको याद करके परेशान मत होओ। जो मान मिल गया मिल गया, अपमान हो गया तो हो गया। मान भी सपना है, अपमान भी सपना है उनको जानने वाला परमेश्वर अपना है। बोलेः ʹमैं तो उसको दिन के तारे दिखा दूँगा, मैं तो छठी का दूध याद दिला दूँगा।ʹ अरे, तेरा मन तेरा नहीं मानता है तो वे सब तेरा मानें ऐसा जरूरी है क्या ? ʹबहु कहना नहीं मानती, बेटा कहना नहीं मानता, फलाना कहना नहीं मानता….ʹ – यह बुद्धि की नालायकी है जो आपको परेशान करती है। माने-न-माने वह जाने। हमारा मन भी हमारा कहना नहीं मानता तो दूसरे ने नहीं माना इसमें कौन सी बड़ी बात हुई ? सब चलता रहता है। जब तक मानते हैं तो मानते हैं, नहीं मानें तो उनकी मर्जी !

अपने को दुःखी न करो। अपने को किसी का वैरी मत बनाओ। अपने को किसी का रागी मत बनाओ, किसी का द्वेषी मत बनाओ। अपने को तो आप जिसके हैं उसी को पाने वाला बनाओ। आप परमात्मा के हैं और परमात्मा को पा लो बस। इससे आपकी बुद्धि बहुत ऊँची हो जायेगी। कामनाएँ बढ़ें कि ʹयह चाहिए, यह चाहिए…ʹ तो मन से कह दोः

सौ की कर दो साठ, आधा कर दो काट।

दस पूरी करेंगे, दस छुड़ायेंगे, दस के जोड़ेंगे हाथ।।

अभी तो निष्काम नारायण में आनन्दित होने दो। ૐ…. ૐ…. ૐ…..

इससे आपकी बुद्धि में चिन्मय सुख आयेगा।

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