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सर्वोन्नति का राजमार्गः गोपालन


गोपाष्टमीः 21 नवम्बर

वर्ष में जिस दिन गायों की पूजा-अर्चना आदि की जाती है वह दिन भारत में ʹगोपाष्टमीʹ के नाम से मनाया जाता है। जहाँ गायें पाली-पोसी जाती हैं, उस स्थान को गोवर्धन कहा जाता है।

गोपाष्टमी का इतिहास

गोपाष्टमी महोत्सव गोवर्धन पर्वत से जुड़ा उत्सव है। गोवर्धन पर्वत को द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक गाय व सभी गोप-गोपियों की रक्षा के लिए अपनी एक अंगुली पर धारण किया था। गोवर्धन पर्वत को धारण करते समय गोप-गोपिकाओं ने अपनी-अपनी लाठियों का भी टेका दे रखा था, जिसका उन्हें अहंकार हो गया कि हम लोग ही गोवर्धन को धारण किये हुए हैं। उनके अहं को दूर करने के लिए भगवान ने अपनी अंगुली थोड़ी तिरछी की तो पर्वत नीचे आने लगा। तब सभी ने एक साथ शरणागति की पुकार लगायी और भगवान ने पर्वत को फिर से थाम लिया।

उधर देवराज इन्द्र को भी अहंकार था कि मेरे प्रलयकारी मेघों की प्रचंड बौछारों को मानव श्रीकृष्ण झेल नहीं पायेंगे परंतु जब लगातार सात दिन तक प्रलयकारी वर्षा के बाद भी श्रीकृष्ण अडिग रहे, तब आठवें दिन इन्द्र की आँखें खुलीं और उनका अहंकार दूर हुआ। तब वे भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये और क्षमा माँगकर उनकी स्तुति की। कामधेनु ने भगवान का अभिषेक किया और उसी दिन से भगवान का एक नाम ʹगोविंदʹ पड़ा। वह कार्तिक शुक्ल अष्टमी का दिन था। उस दिन से गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जाने लगा, जो अब तक चला आ रहा है।

इस प्रकार गोपाष्टमी यह संदेश देती है कि ब्रह्मांड के सब काम चिन्मय भगवत्सत्ता से ही सहज में हो रहे हैं परंतु मनुष्य अहंकारवश सोचता है कि हमारे बल से ही यह चलता है – वह चलता है। इस भ्रम को दूर करने के लिए परमात्मा दुःख, परेशानी भेजते हैं ताकि मनुष्य सावधान होकर इस अहंकार से छूट जाये। जब वह अपने अहंकार को छोड़ परमात्मा की शरण जाता है तो सारी मुसीबतें दूर होकर उसे परमानंद की प्राप्ति सहज में हो जाती है।

गोपाष्टमी का महत्त्व

इस दिन प्रातःकाल गायों को स्नान कराके गंध-पुष्पादि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को गोग्रास देकर उनकी परिक्रमा करें तथा थोड़ी दूर तक उनके साथ जाने से सब प्रकार के अभीष्ट की सिद्धि होती है। गोपाष्टमी के दिन सायंकाल गायें चरकर जब वापस आयें तो उस समय भी उनका आतिथ्य, अभिवादन और पंचोपचार-पूजन करके उन्हें कुछ खिलायें और उनकी चरणरज को मस्तक पर धारण करें, इससे सौभाग्य की वृद्धि होती है।

भारतवर्ष में गोपाष्टमी का उत्सव बड़े उल्लास से मनाया जाता है। विशेषकर गौशालाओं तथा पिंजरापोलों के लिए यह बड़े महत्त्व का उत्सव है। इस दिन गौशालाओं में एक मेला जैसा लग जाता है। गौ-कीर्तन-यात्राएँ निकाली जाती हैं। यह घर-घर व गाँव-गाँव में मनाया जाने वाला उत्सव है। इस दिन गाँव-गाँव में भंडारे किये जाते हैं।

विश्व के लिए वरदानरूपः गोपालन

देशी गाय का दूध, दही, घी, गोबर व गोमूत्र सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए वरदानरूप हैं। दूध स्मरणशक्तिवर्धक, स्फूर्तिवर्धक, विटामिन्स और रोगप्रतिकारक शक्ति से भरपूर है। घी ओज-तेज प्रदान करता है। इसी गोमूत्र कफ व वायु के रोग, पेट व यकृत (लिवर) आदि के रोग, जोड़ों के दर्द, गठिया, चर्मरोग आदि सभी रोगों के लिए एक उत्तम औषधि है। गाय के गोबर में कृमिनाशक शक्ति है। जिस घर में गोबर का लेपन होता है वहाँ हानिकारक जीवाणु प्रवेश नहीं कर सकते। पंचामृत व पंचगव्य का प्रयोग करके असाध्य रोगों से बचा जा सकता है। ये हमारे पाप-ताप भी दूर करते हैं। गाय से बहुमूल्य गोरोचन की प्राप्ति होती है।

देशी गाय के दर्शन एवं स्पर्श से पवित्रता आती है, पापों का नाश होता है। गोधूलि (गाय की चरणरज) का तिलक करने से भाग्य की रेखायें बदल जाती हैं। ʹस्कंद पुराणʹ में गौ-माता में सर्व तीर्थों और सभी देवताओं का निवास बताया गया है।

गायों को घास देने वाले का कल्याण होता है। स्वकल्याण चाहने वाले गृहस्थों को गौ-सेवा अवश्य करनी चाहिए क्योंकि गौ-सेवा में लगे हुए पुरुष को धन-सम्पत्ति, आरोग्य, संतान तथा मनुष्य-जीवन को सुखकर बनाने वाले सम्पूर्ण साधन सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

विशेषः ये सभी लाभ देशी गाय से ही प्राप्त होते हैं, जर्सी व होल्सटीन से नहीं।

किसानों के लिए संदेश

खेती और गाय का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। खेती से गाय पुष्ट होती है और गाय के गोबर व गोमूत्र से खेती पुष्ट होती है। विदेशी खाद से आरम्भ में कुछ वर्ष तो खेती अच्छी होती है पर कुछ वर्षों बाद जमीन उपजाऊ नहीं रहती। विदेशों में तो खाद से जमीन खराब हो गयी है और वे लोग मुंबई से जहाजों में गोबर लादकर ले जा रहे हैं, जिससे गोबर से जमीन ठीक हो जाय। गोबर-खाद किसानों को सस्ते में व आसानी से उपलब्ध होती है।

गोझरण एक सुरक्षित, फसलों को नुकसान न पहुँचाने वाला कीटनाशक है। गाँव में गोबर गैस प्लांट लगाकर वहाँ ईँधन, बिजली, बिजली पर चलने वाले यंत्रों आदि का फायदा लिया जाता है।

वैज्ञानिकों ने कहा है ʹएक समय ऐसा आने वाला है जब न बिजली मिलेगी, न पेट्रोल-डीज़ल !ʹ अब भी तेल मँहगा हो रहा है और हम ट्रैक्टरों में तेल खर्च रहे हैं। खेती की पुष्टि जितनी गाय बैलों से होती है, उतनी ट्रैक्टरों से नहीं होती। जब ट्रैक्टर चलता है तो जीव जंतुओं की बड़ी हत्या होती है। ट्रैक्टर से पाला, घास, बुड़ेसी, गँठिया आदि की जड़ें उखड़ जाती हैं। अतः समृद्ध खेती के लिए किसानों को बैल व गायों का पालन करना चाहिए। उनकी रक्षा करनी चाहिए, हत्यारों के हाथ में उन्हें बेचना नहीं चाहिए।

स्वास्थ्य लाभ

व्यक्ति स्वास्थ्य के लिए लाखों-लाखों रूपये खर्च करता है, कहाँ-कहाँ जाता है फिर भी बीमारियों से छुटकारा नहीं पाता। कई बार तो कंगालियत ही हाथ लगती है और स्वस्थ भी नहीं हो पाता।

इसका उपाय बताते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “गाय घर पर होती है न, तो उसके गोबर, उसके गोझरण का लाभ तो मिलता ही है, साथ ही गाय के रोमकूपों से जो तरंगे निकलती हैं, वे स्वास्थ्यप्रद होती हैं। कोई बीमार आदमी हो, डॉक्टर बोले, ʹयह नहीं बचेगाʹ तो बीमार आदमी गाय को अपने हाथ से कुछ खिलाये और गाय की पीठ पर हाथ घुमाये तो गाय की प्रसन्नता की तरंगें हाथों की अंगुलियों से अंदर आयेंगी और वह आदमी तंदरूस्त हो जायेगा, दो चार महीने लगते हैं लेकिन असाध्य रोग भी गाय की प्रसन्नता से मिट जाते हैं।”

गायें दूध न देती हों तो भी वे परम उपयोगी हैं। दूध न देने वाली गायें अपने गोझरण व गोबर से ही अपने आहार की व्यवस्था कर लेती हैं। उनका पालन पोषण करने से हमें आध्यात्मिक, आर्थिक व स्वास्थ्यलाभ होता ही है।

गोपाष्टमी के दिन गौ-सेवा, गौ-चर्चा, गौ-रक्षा से संबंधित गौ-हत्या निवारण आदि विषयों पर चर्चासत्रों का आयोजन करना चाहिए। भगवान एवं महापुरुषों के गौप्रेम से संबंधित प्रेरक प्रसंगों का वाचन-मनन करना चाहिए।

जीवमात्र के परम हितैषी गौपालक पूज्य संत श्री आशारामजी बापू गायों का विशेष ख्याल रखते हैं। तभी तो उऩके मार्गदर्शन में भारतभर में कई गौशालाएँ चलती हैं और वहाँ अधिकतर ऐसी गायें हैं जो दूध न देने के कारण अनुपयोगी मानकर कत्लखाने ले जायी जा रही थीं। यहाँ उनका पालन-पोषण व्यवस्थित ढंग से किया जाता है। पूज्य बापू जी विश्व गौ-संरक्षक और संवर्धक भी हैं। उनके द्वारा वर्षभर गायों के लिए कुछ-न-कुछ सेवाकार्य चलते ही रहते हैं तथा गौ सेवा प्रेरणा के उपदेश उनके प्रवचनों का अभिन्न अंग हैं। गायों को पर्याप्त मात्रा में चारा व पोषक पदार्थ मिलें इसका वे विशेष ध्यान रखते हैं। बापू जी के निर्देशानुसार गोपाष्टमी व अन्य पर्वों पर गाँवों में घर-घर जाकर गायों को उनका प्रिय आहार खिलाया जाता है। इतना ही नहीं, बापू जी समय-समय पर विभिन्न गौशालाओं में जाकर अपने हाथों से गायों को खिलाते हैं, उन्हें सहलाते हैं, उनसे स्नेह करते हैं। गौ-पालकों को मार्गदर्शन देते हैं, उनका उत्साह बढ़ाते हैं, उन्हें विभिन्न प्रकार से सहयोग देते हैं। महाराजश्री द्वारा चलाया गया यह गौ-रक्षा एवं गौ-संवर्धन अभियान एक दिन देश के अर्थतंत्र, सामाजिक स्वास्थ्य समृद्धि तथा व्यक्तिगत उत्थान की सुदृढ़ रीढ़ अवश्य बनेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 14,15,16 अंक 239

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सदगुरु तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं – पूज्य बापू जी


गुरु नानक देव जयंतीः

ब्रह्मवेत्ता गुरु ने अपने सत्शिष्य पर कृपा बरसाते हुए कहाः “वत्स ! “तेरा मेरा मिलन हुआ है (तूने मंत्रदीक्षा ली है) तब से तू अकेला नहीं और तेरे मेरे बीच दूरी भी नहीं है। दूरी तेरे-मेरे शरीरों में हो सकती है, आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में देश-काल की कोई विघ्न बाधाएँ नहीं आ सकतीं, देश काल की दूरी नहीं हो सकती। तू अब आत्मराज्य में आ रहा है, इसलिए जहाँ तूने आँखें मूँदीं, गोता मारा वहीं तू कुछ-न-कुछ पा लेगा।”

करतारपुर में सत्संगियों की भारी दौड़ में गुरु नानक जी सत्संग कर रहे थे। किसी भक्त ने ताँबे के पैसे रख दिये। आज तक कभी भी नानक जी ने पैसे उठाये नहीं थे परंतु आज चालू सत्संग में उन पैसों को उठाकर दायीं हथेली से बायीं ओर और बायीं हथेली से दायीं हथेली पर रखे जा रहे हैं। नानक जी के शिष्य बाला और मरदाना चकित से रह गये। ताँबे के वे 4 पैसे, जो कोई 10-10 ग्राम का एक पैसा होता होगा, करीब 40 ग्राम होंगे।

नानकजी बड़ी गम्भीर मुद्रा में बैठे हुए, सत्संग करते हुए पैसों को हथेलियों पर अदल-बदल रहे हैं। वे उसी समय उछाल रहे हैं, जिस समय हजारों मील दूर उनका भक्त जो किराने का धंधा करता था, वह वजीर के लड़के को शक्कर तौलकर देता है। शक्कर किसी असावधानी से रास्ते में थैले से ढुल गयी। वजीर ने शक्कर तौली तो 4 रानी छाप पैसे के वजन की शक्कर कम थी। वजीर ने राजा से शिकायत की। उस गुरुमुख को सिपाही पकड़कर राजदरबार में लाये।

वह गुरुमुख अपने गुरु को ध्याता है ʹनानकजी ! मैं तुम्हारे द्वार तो नहीं पहुँच सकता हूँ परंतु तुम मेरे दिल के द्वार पर हो, मेरी रक्षा करो। मैंने तो व्यवहार ईमानदारी से किया है लेकिन अब शक्कर रास्ते में ही ढुल गई या कैसे क्या हुआ यह मुझे पता नहीं। जैसे, जो भी हुआ हो, कर्म का फल तो भोगना ही है परंतु हे दीनदयालु ! मैंने यह कर्म नहीं किया है। मुझ पर राजा की, सिपाहियों की, वजीर की कड़ी नजर है किंतु गुरुदेव ! तुम्हारी तो सदा मीठी नजर रहती है।ʹ

व्यापारी ने सच्चे हृदय से अपने सदगुरु को पुकारा। नानकजी 4 पैसे ज्यों दायीं हथेली पर रखते हैं त्यों जो शक्कर कम थी वह पूरी हो जाती है। वजीर, तौलने वाले तथा राजा चकित हैं। पलड़ा बदला गया। जब दायें पलड़े पर शक्कर का थैला था वह उठाकर बायें पलड़े पर रखते हैं तो नानक जी भी अपने दायें पलड़े (हथेली) से पैसे उठाकर बायें पलड़े (हथेली) में रखते हैं और वहाँ शक्कर पूरी हुई जा रही है। ऐसा कई बार होने पर ʹखुदा की लीला है, नियति हैʹ, ऐसा समझकर राजा ने उस दुकानदार को छोड़ दिया।

बाला, मरदाना ने सत्संग के बाद नानकजी से पूछाः “गुरुदेव ! आप पैसे छूते नहीं हैं फिर आज क्यों पैसे उठाकर हथेली बदलते जा रहे थे ?”

नानकजी बोलेः “बाला और मरदाना ! मेरा वह सोभसिंह जो था, उसके ऊपर आपत्ति आयी थी। वह था बेगुनाह। अगर गुनहगार भी होता और सच्चे हृदय से पुकारता तब भी मुझे ऐसा कुछ करना ही पड़ता क्योंकि वह मेरा हो चुका है, मैं उसका हूँ। अब मैं उन दिनों का इंतजार करता हूँ कि वह मुझसे दूर नहीं, मैं उससे दूर नहीं, ऐसे सत् अकाल पुरुष को वह पा ले। जब तक वह काल में है तब तक प्रतीति में उसकी सत्-बुद्धि होती है, उसको अपमान सच्चा लगेगा, दुःखी होगा। मान सच्चा लगेगा, सुखी होगा, आसक्त होगा। मैं चाहता हूँ कि उसकी रक्षा करते-करते उसको सुख-दुःख दोनों से पार करके मैं अपने स्वरूप का उसको दान कर दूँ। यह तो मैंने कुछ नहीं उसकी सेवा की, मैं तो अपने-आपको दे डालने की सेवा का भी इंतजार करता हूँ।”

शिष्य जब जान जाता है कि गुरु लोग इतने उदार होते हैं, इतना देना चाहते हैं, शिष्य का हृदय और भी भावना से, गुरु के सत्संग से पावन होता है। साधक की अनुभूतियाँ, साधक की श्रद्धा, तत्परता और साधक की फिसलाहट, साधक का प्रेम और साधक की पुकार गुरुदेव जानते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 239

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मेरे गुरुदेव कहाँ स्थित हैं ? – पूज्य बापू जी


भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज का महानिर्वाण दिवसः 22 नवम्बर

शुरु-शुरु में गुरुदेव के दर्शन किये, गुरुजी के चरणों में रहे, उस वक्त गुरुजी के प्रति जो आदर था, वह आदर ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति समझ में आती गयी, त्यों-त्यों बढ़ता गया, निष्ठा बढ़ती गयी। श्रीकृष्ण ʹनरो वा कुंजरो वाʹ करवा रहे हैं लेकिन आप कृष्ण की स्थिति को समझो तो कृष्ण ऐसा नहीं कर रहे हैं। रामजी आसक्त पुरुष की नाईं रो रहे हैं- हाय सीते ! सीते !!…. पार्वती माता को सन्देह हुआ, पार्वती जी रामजी के श्रीविग्रह को देख रही हैं परंतु शिवजी रामजी की स्थिति जानते हैं।

गुरु की स्थिति जितनी-जितनी समझ में आ जायेगी उतनी हमारी अपनी महानता भी विकसित होती जायेगी…. उसका मतलब यह नहीं कि ʹगुरु क्या खाते हैं ? गुरु क्या पीते हैं ? गुरु किससे बात करते हैं ?ʹ बाहर के व्यवहार को देखोगे तो श्रद्धा सतत नहीं टिकेगी। तुम पूजा-पाठ करते हो, ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु पूजा-पाठ भी नहीं करते। जो गुरु को शरीर मानता है या केवल शरीर को गुरु मानता है, वह गुरु की स्थिति नहीं समझ नहीं सकता।

गुरु की स्थिति ज्यों समझेंगे, त्यों गुरु का उपदेश फुरेगा। गुरु का उपदेश, गुरु का अनुभव है, गुरु का हृदय है। गुरु का उपदेश गुरु की स्थिति है।

मैं पहले भगवान शिव, भगवान कृष्ण, काली माता का चित्र रखता था, ध्यान-व्यान करता था लेकिन जब सदगुरु मिले तो क्या पता अंदर से स्वाभाविक आकर्षण उनके प्रति हो गया। साधना के लिए जहाँ मैं सात साल रहा, अभी देखोगे तो मेरे गुरुदेव का ही श्रीचित्र है और मैं ध्यान करते-करते उनकी स्थिति के, उनके निकट आ जाता। वे चाहे शरीर से कितने भी दूर होते परंतु मैं भाव से, मन से उनके निकट जाता तो उनके गुण, उनके भाव और उनकी प्रेरणा ऐसी सुंदर व सुहावनी मिलती कि मैंने तो भाई ! कभी सत्संग किया ही नहीं, मेरे बाप ने भी नहीं किया, दादा ने भी नहीं किया। गुरु ने संदेशा भेजाः “सत्संग करो।ʹ ईन-मीन-तीन पढ़ा, सत्संग क्या करूँ ? किंतु गुरु ने कहा है तो बस, चली गाड़ी… चली गाड़ी तो तुम जान रहे हो, देख रहे हो, दुनिया देख रही है।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

मंगल तो तपस्या से हो सकता है। मंगल तो देवी-देवता, भगवान के वरदान से हो सकता है लेकिन परम मंगल भगवान के वरदान से भी नहीं होगा, ध्यान रहे। भगवान को गुरुरूप से मानोगे और भगवद-तत्त्व में स्थिति करोगे, तभी परम मंगल होगा।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

ऐसी कौन सी माँ होगी जो बालक का बुरा चाहेगी ? ऐसे कौन-से माँ-बाप होंगे जो बालक-बालिकाओं को दबाये रखना चाहेंगे ? माँ और बाप तो चाहेंगे कि हमारे बच्चे हमसे सवाये हों। ऐसे ही सदगुरु भी चाहेंगे कि मेरा शिष्य सत्शिष्य हो, सवाया हो लेकिन गुरुदेव से स्थिति नहीं होगी तो कभी-कभी लगेगा कि ʹदेखो, मेरा यश देखकर गुरूजी नाराज हो रहे हैं।ʹ

मेरे को डीसा में लोग जब पूजने-मानने लग गये, जय-जयकार करने लगे और गुरु जी को पता लगा तो गुरुजी ने मेरे को डाँटा और उन लोगों को भी डाँटाः “अभी कच्चा है, परिपक्व होने दो उसको।” कुछ लोगों को मेरे गुरुजी के प्रति ऐसा-वैसा भाव आ गया। लेकिन गुरुदेव की कितनी करूणा थी, वह तो हमारा ही हृदय जानता है। उन्हीं की कृपा से हम उनके चरण पकड़ पाये, रह पाये, उसके प्रति आदर रख पाये, नहीं तो ʹइतना अपमान कर दिया, इतने लोग मान रहे हैं और मेरी वाहवाही के लिए गुरु जी को इतना बुरा लग रहा है !ʹ – ऐसा अगर सोचते और बेवकूफी थोड़ी साथ दे देती तो सत्यानाश कर देते अपना। नहीं, यह उनकी करूणा-कृपा है।

हम अपना दोष खुद नहीं निकाल सकते तो उन निर्दोष-हृदय को कितना नीचे आना पड़ता है हमारा दोष देखने के लिए और हमारे दोष को निकालने के लिए उनको अपना हृदय ऐसा बनाना पड़ता है। वहाँ क्रोध नहीं है, क्रोध बनाना पड़ता है। वहाँ अशांति नहीं है, अशांति लानी पड़ती है उनको अपने हृदय में। यह उनकी कितनी करूणा-कृपा है ! वहाँ झँझट नहीं है फिर भी तेरे-मेरे का झंझट उनको लाना पड़ता है – “भाई, तुम आये ? कब आये ? कहाँ से आये ?…..” अरे, ʹसारी दुनिया मिथ्या है, स्वप्न है, तुच्छ है, ब्रह्म में तीनों काल में सृष्टि बनी नहींʹ, ऐसे अनुभव में जो विराज रहे हैं वे जरा-जरा सी बात में ध्यान रख रहे हैं, जरा-जरा बात सुनाने में भी आगे-पीछे का, सामाजिकता का ध्यान रख रहे हैं, यह उनकी कितनी कृपा है ! कितनी करूणा है !

गुरु में स्थिति हो जाय तो पता चले कि ʹअरे, हम कितना अपने-आपको ठग रहे थे !ʹ हम अपनी मति-गति से जो माँगेंगे…. जैसे खिलौनों में खेलता हुआ बच्चा माँ-बाप से या किसी देने वाले से क्या माँग सकता है ? कितना माँग सकता है ? ʹयह खिलौना चाहिए, यह फलाना-फलाना चाहिए…ʹ जब वह बुद्धिमान होता है तो समझता है कि पिता की जायदाद और पिता की जमीन-जागीर सबका अधिकारी मैं था। मैं केवल चार रूपये के खिलौने माँग रहा था, ये-वो माँग रहा था। वास्तव में पिता की सारी मिल्कियत और पिता, ये सब मेरे हैं। ऐसे ही ʹगुरु का अनुभव और गुरुदेव वास्तव में मेरे हैं। ब्रह्मांड और ब्रह्मांड के अधिष्ठाता सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा मेरे हैंʹ-ऐसा अनुभव होगा और गुरु कृपा छलकेगी।

गुरु की स्थिति को शिष्य समझे, गुरु की स्थिति जितनी समझेगा, उतना वह महान होगा। सोचो, वे साधु पुरुष कहाँ रहते हैं ? शरीर में ? क्या वे शरीर को ʹमैंʹ मानते हैं ? अथवा अपने को क्या मानते हैं ? वे जैसा अपने को जानते हैं और जहाँ अपने-आप में स्थित हैं, वहाँ जाने का प्रयत्न करो। गुरु जाति में, सम्प्रदाय में, मत-पंथ में स्थित हैं क्या ?

नहीं, गुरुजी स्थित हैं अपने-आप में, अपने स्वरूप में, अनंत ब्रह्मांडों के अधिष्ठान परब्रह्मस्वरूप में। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे त्यों-त्यों हृदय निर्दोष हो जायेगा, आनंदित और ज्ञानमय हो जायेगा। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे, त्यों हृदय मधुर बनता जायेगा और व्यवहार करते हुए भी निर्लपता का आनंद आने लगेगा। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति समझेंगे, त्यों उनके लिए हृदय विशाल होता जायेगा, त्यों-त्यों हृदय आदर और महानता से भरता जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 239

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