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ईश्वर दर्शन से भी ऊँचा होता है आत्मसाक्षात्कार


आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते

पूज्य बापू जी का 48 वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवस

17 अक्तूबर 2012

पूज्य बापू जी का सत्संग प्रसाद

आत्मसाक्षात्कार किसको बोलते हैं ? यह जरा समझ लेना। एक होता है कि मनुष्य ने संसार में किसी चीज की उपलब्धि की – ʹयह मेरी फलानी उपलब्धि का दिवस है, शादी का दिवस है…।ʹ दूसरा होता है, ʹयह मेरा जन्मदिवस है।ʹ

शादी का दिवस तो भोगी लोग मनाते हैं। बहुत तुच्छ है यह नजरिया। जन्मदिवस तो बहुत लोग मनाते हैं और मनायें, अच्छी बात है परंतु जन्मदिवस रोज पौने दो करोड़ लोगों का होता है धरती पर। आत्मसाक्षात्कार किये हुए महापुरुष धरती पर बहुत ही विरले होते हैं, इसलिए आत्मसाक्षात्कार दिवस तो कहीं-कहीं किसी किसी विरले का मनाया जाता है।

ईश्वर-दर्शन और आत्मसाक्षात्कार…. भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हो गया, श्रीकृष्ण ने बातचीत की यह ईश्वर दर्शन हो गया। प्रचेताओं को भगवान शिव का दर्शन हो गया, भगवान नारायण का दर्शन हो गया। भगवान शिव का, भगवान नारायण का दर्शन हो गया फिर भी आत्मसाक्षात्कार बाकी रह जाता है। नामदेव महाराज को भगवान विट्ठल के दर्शन होते थे, वे उनसे बातचीत करते थे, फिर भी संतों ने कहा कि ʹतू कच्चा घड़ा है।ʹ नामदेव चले गये मंदिर में और भगवान को प्रार्थना कीः “माइया पांडुरंगा ! लवकर या… भगवान जल्दी प्रकट हो जाओ। मेरे को सभी संतों ने कच्चा घड़ा घोषित कर दिया है।” तो पांडुरंग प्रकट होकर बोलेः “संतों ने जो कहा है, ठीक ही कहा है।”

ʹʹप्रभु ! आप तो बोलते हैं, ʹनाम्या ! तु मुझे बहुत प्यारा है।ʹ आप प्रकट होकर मेरे से बातचीत करते हो, मेरे को स्नेह करते हो और फिर मैं कच्चा घड़ा कैसे ?”

“तुम मुझे और अपने को अलग मानते हो तथा संसार को सच्चा मानते हो। तुम्हारा नजरिया कच्चा है। संसार मेरी सत्ता से कैसे विलसित हुआ है, तुम्हारा शरीर और तुम मेरी सत्ता से कैसे मेरे में अभिन्न हो – इसका ज्ञान जब तक तुम्हें नहीं होता तब तक तुम्हारी स्थिति कच्ची है। संत विसोबा खेचर के पास जाओ। वे तुमको ब्रह्मज्ञान का उपदेश देंगे, तभी तुम पक्का घड़ा होओगे।” नामदेव जी संत विसोबा खेचर के चरणों में गये, उपदेश लिया तब आत्मसाक्षात्कार हुआ।

अर्जुन को श्रीकृष्ण मिले थे फिर भी अर्जुन के सब दुःख नहीं मिटे थे। भगवान के विराट रूप का दर्शन हुआ लेकिन उसका भय नहीं गया था। श्रीकृष्ण थे तब भी अर्जुन की किंकर्तव्यमूढ़ता नहीं गयी परंतु जब उसको श्रीकृष्ण का तत्त्वज्ञान-उपदेश मिला और उसने विचार करके अपने-आप में गोता मारा तो अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार हुआ। तो ईश्वर दर्शन से भी ऊँचा होता है आत्मसाक्षात्कार !

आत्मसाक्षात्कार के दिन सभी लोग आश्रमों में भोजन करोगे, गरीब गुरबों को कराओगे लेकिन अब आत्मसाक्षात्कार के लिए भी तैयार कर लो। जब बापू को वह हो सकता है तो बेटों को क्यों नहीं हो सकता !

आत्मसाक्षात्कार के सिवाय जो कुछ मिलेगा वह आपके पास टिकेगा नहीं। मैं शाप नहीं देता हूँ, सच्चाई बता रहा हूँ। शरीर ही जब टिकेगा नहीं तो मिली हुई वस्तु, मिली हुई पदोन्नति, मिली हुई पदवियाँ, मिली हुई वाहवाही कब तक टिकेगी ?

कह रहा है आसमाँ यह समाँ कुछ भी नहीं।

रोती है शबनम कि नैरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।।

जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।

झाड़ उनकी कब्र पर है और निशाँ कुछ भी नहीं।।

ऐसे बड़े-बड़े राजाओं के राज्य नहीं टिके, लंकेश्वर की एक ईंट नहीं टिकी, हिरण्यकशिपु का हिरण्यपुर नहीं टिका तो तुम्हारा हमारा ईंट-चूने का मकान कब तक टिकेगा ? जो कभी न मिटे उसको ʹमैंʹ रूप में जानना इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार और जो मिट जाय उसको ʹमैंʹ मानकर फिर देवी-देवताओं या भगवान में प्रेम की, भाव की विशेषता होती है और आत्मसाक्षात्कार में प्रेम, भाव के साथ समझदारी की पराकाष्ठा होती है।

भगवान कहते हैं कि मेरी बात अगर मान लोगे तो दुःख टिकेगा नहीं और मेरी बात का त्याग करके कुछ भी कर लोगे तो दुःख सदा के लिए मिटेगा नहीं। तो भगवान की बात क्या है ?

वासुदेवः सर्वमिति….

अभी भले तुमने उसको नहीं जाना तो मान तो लो कि सर्वत्र वासुदेव है। और सर्वत्र वासुदेव है इसका अनुभव करने के लिए संतों का संग और भगवान का सुमिरन करो, सुमिरन का अभ्यास बढ़ाओ। संत कबीर जी कहते हैं-

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ।।

सुमिरन तो पहले दीर्घ किया जाता है। जैसे हरि ओઽ….म्…. फिर होंठों में हरि ૐ… फिर कंठ में। कभी कंठ में, कभी हृदय में तो कभी-कभी कंठ और हृदय छोड़कर ऐसे ही सुमिरन हो रहा है, उसे देखते जाओ। मन इधर-उधर जाय, फिर थोड़ा अभ्यास करो। बीच में कभी जोर से उच्चारण किया, फिर शांत हो गये। ऐसा अभ्यास बढ़ाओ और भगवत्सुमिरन करते-करते संसारी कार्य करो। संसारी कार्य भी इस उद्देश्य से करो कि हमें ईश्वरप्राप्ति करनी है।

परदुःखकातर और परहितपरायण होकर कर्म करो, जिससे अंतर्यामी प्रसन्न हों। तो बोलेः ʹमहाराज ! दूसरों की भलाई के लिए करेंगे तो फिर खायेंगे क्या ?ʹ

मैं जो कुछ करता हूँ, दूसरों की भलाई के लिए करता हूँ तो खाने की मुझे कोई कमी रखी क्या समाज ने ? अरे बाइक, स्कूटर काम में आता है तो उसको ऑयल, पानी, पेट्रोल मिलता है फिर यदि आप समाज के काम आयेंगे, ईश्वर के काम आयेंगे तो आपको कमी क्या रहेगी !

तो आप जो भी काम करते हैं, समाजरूपी ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ईमानदारी से करो। अपनी आवश्यकता कम-से-कम रखो और परमात्मा में प्रीति अधिक-से-अधिक बढ़ाते जाओ। परमात्मा के प्यारों का संग और उनके जीवन-चरित्र आदि पढ़ने से, शास्त्र पढ़ने सुनने से भगवत्प्राप्ति का रास्ता आसान हो जायेगा।

आत्मसाक्षात्कार जैसी पराकाष्ठा मेरे को 40 दिन में प्राप्त हो सकती है तो आपको अगर 40 साल में भी हो जाय तो भी सौदा सस्ता है। क्योंकि मुझे तड़प तो थी और फिर जैसे लाइट की फिटिंग हो गयी तो 40 दिन में तो क्या 40 सैकेंड में भी बटन दबाओ तो बत्ती जल जाती है। जितनी आपकी तड़प और तैयारी होगी उतनी ही जल्दी वह भूमिका बन जायेगी। तो महापुरुष की थोड़ी सी कृपा, जरा-सा उपदेश… कुंजी घुमाने में कितनी देर लगती है, उतना ही  बस, आत्मसाक्षात्कारर गुरु जी की कृपा से हो जाता है। शुकदेव जी महाराज का सत्संग सुनकर राजा परीक्षित को 7 दिन में हो गया, मुझे तो 40 दिन लग गये। महावीर जी को 12 साल लगे तब भी सौदा सस्ता है। मुझे केवल 40 दिन में ही हो गया ऐसा नहीं है। मैं भी बचपन से लगा था लेकिन तड़प 40 दिन के अंदरवाली तीव्रतम थी, उसने काम कर लिया। तो जितनी ईश्वरप्राप्ति की तड़प होगी, उतनी ईश्वर और गुरु की कृपा जल्दी हो जाती है।

अपना साधन यह है कि गुरु आज्ञा मानने की योग्यता ले आओ बस ! जब ईश्वरप्राप्ति की तड़प हो और गुरु की कृपा हो तो जैसे एक घड़े का पानी दूसरे घड़े में, एक पतीली का घी दूसरी पतीली में, ऐसे ही एक ब्रह्मवेत्ता की निष्ठा का संकल्प दूसरे में टिकता है। जैसे ज्योत से ज्योत जलती हहै, ऐसे ही एक ब्रह्मज्ञानी से दूसरा ब्रह्मज्ञानी बनता है, जिसके आगे दुनिया की सभी उपलब्धियाँ नगण्य हैं। तो आत्मज्ञान सब ज्ञानों से ऊँचा है, आत्मलाभ सब लाभों से ऊँचा है, आत्मसुख सब सुखों से ऊँचा है।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या2,4,5 अंक 238

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गुरु जी का ऊँचा दृष्टिकोण


ब्रह्मनिष्ठ पूज्य बापू जी का सत्संग-प्रसाद

बंगाल के एक प्रसिद्ध राजनेता थे अश्विनी कुमार दत्त। वे इतने ईमानदार थे कि चहुँओर उनकी ख्याति थी। वे बड़े धर्मपरायण व्यक्ति थे। उनके गुरु थे राजनारायण बसु। एक बार राजनारायण बसु को लकवा मार गया। जब अश्विनी कुमार को इस बात का पता चला तो वे सोचने लगे कि ʹगुरु जी तीन महीने से बिस्तर पर पड़े हैं और मुझे अभी तक पता नहीं चला !ʹ वे बड़े दुःखी होकर भागते-भागते अपने गुरु का समाचार पूछने गये। गुरु को प्रणाम करने गये तो गुरु का एक हाथ तो लकवे से निकम्मा हो चुका था, दूसरे हाथ से पकड़कर उठाया और प्रेम से थप्पी लगाते हुए बोलेः “बेटा ! कैसे भागे-भागे आये हो ! देखो भागा तो शरीर और दुःख हुआ मन में लेकिन उन दोनों को तुम जानने वाले हो।” ऐसा करके गुरु जी ने सत्यस्वरूप ईश्वर, आत्मा की सार बातें बतायीं।

वे तो दुःखी, चिंतित होकर आये थे पर सत्संग सुनते-सुनते उनकी दुःख-चिंता गायब हो गयी और बोलेः “गुरुजी ! मैं तो मायूस होकर आपका स्वास्थ्य देखने के लिए आया था लेकिन आपसे मिलने के बाद मेरी मायूसी चली गयी। आपको लकवा मार गया लेकिन  आपको उसकी पीड़ा नहीं, दुःख नहीं ! हम तो बहुत दुःखी थे। आपने सत्संग-अमृत का पान कराया, तीन घंटे बीत गये और मुझे पता भी नहीं चला।”

गुरुजी ने अश्विनी कुमार को थपथपाया, बोलेः “पगले ! पीड़ा हुई है तो शरीर को हुई है, लकवा मारा है तो एक हाथ को मारा है, दूसरा तो ठीक है, पैर भी ठीक हैं, जिह्वा भी ठीक है… यह उसकी (भगवान की) कितनी कृपा है ! पूरे शरीर को भी लकवा हो सकता था, हृदयाघात हो सकता था। 60 साल तक शरीर स्वस्थ रहा, अभी थोड़े दिन से ही तो लकवा है, यह उसकी कितनी कृपा है ! दुःख भेजकर वह हमें शरीर की आसक्ति मिटाने का संदेश देता है, सुख भेजकर हमें उदार बनने और परोपकार करने का संदेश देता है। हमको तो दुःख का आदर करना चाहिए, दुःख का उपकार मानना चाहिए।

बचपन में हम दुःखी होते थे क्योंकि माँ-बाप जबरदस्ती विद्यालय ले जाते थे लेकिन ऐसा कोई मनुष्य धरती पर नहीं, जिसका दुःख के बिना विकास हो। दुःख का तो खूब-खूब धन्यवाद करना चाहिए और यह दुःख दिखता दुःख है किंतु अंदर से सावधानी, सुख और विवेक जगाने वाला है। दुःख विवेक-वैराग्य जगाकर परमात्मा तक पहुँचने का सुंदर साधन है।

मुझे सत्संग करने की भागादौड़ी से आराम करना चाहिए था किंतु मैं नहीं कर पा रहा था, तुम लोग नहीं करने देते थे तो भगवान ने लकवा करके देखो आराम दे दिया। यह उसकी कितनी कृपा है ! भगवान और दुःख की बड़ी कृपा है। माँ-बाप की कृपा है अतः मृत्यु के पश्चात माँ-बाप का श्राद्ध-तर्पण करते हैं लेकिन इस बेचारे दुःख का तो श्राद्ध भी नहीं करते, तर्पण भी नहीं करते। यह बेचारा आता है, मर जाता है, रहता नहीं है। अब यह दुःख भी मिट जायेगा अथवा शरीर के साथ चला जायेगा।”

अश्विनी देखता रह गया ! गुरु ने आगे कहाः “बेटा ! यह तेरी मेरी वार्ता जो सुनेगा-पढ़ेगा वह भी स्वस्थ हो जायेगा। बीमारी शरीर को होती है लाला ! दुःख मन में आता है, चिंता चित्त में आती है, तुम तो निर्लेप नारायण, अमर आत्मा हो।”

ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 10, अंक 238

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फलों द्वारा स्वास्थ्य रक्षा


शरद ऋतु में स्वभाविक रूप से प्रकुपित पित्त के शमनार्थ प्रकृति में मधुर व शीतल फल परिपक्व होने लगते हैं। फलों में शरीर के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक जीवनसत्त्व (विटामिन्स) व खनिज द्रव्यों के साथ रोगनिवारक औषधि-तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

आँवला

यह व्याधि व वार्धक्य को दूर रखने वाला, रक्त वीर्य व नेत्रज्योतिवर्धक तथा त्रिदोषशामक श्रेष्ठ रसायन है।

निम्नलिखित सभी प्रयोगों में आँवला रस की मात्राः 15 से 20 मि.ली. (बालकः 5 से 10 मि.ली.)

इन प्रयोगों में कलमी आँवलों की अपेक्षा देशी आँवलों का उपयोग ज्यादा लाभदायी है।

धातुपुष्टिकर योगः आँवले के रस में 10-15 ग्राम देशी घी व 2 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण मिलाकर लेने से शुक्रधातु पुष्ट होती है।

ओजस्वी योगः आँवले के रस में 15 ग्राम गाय का घी व 10 ग्राम शहद मिलाकर सेवन करने से ओज, तेज, बुद्धि व नेत्रज्योति की वृद्धि होती है। शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है।

हृद्ययोगः आँवले के रस में 10 ग्राम पुदीने का, 5-5 ग्राम अदरक व लहसुन का रस मिलाकर लेना हृदयरोगों में बहुत लाभकारी है। इससे कोलस्ट्रॉल भी नियंत्रित होता है।

रक्तपित्तशामक योगः आँवले के रस में पेठे का रस समभाग मिलाकर सुबह-शाम पीने से नाक, मुँह, योनि, गुदा आदि के द्वारा होने वाला रक्तस्राव रुक जाता है।

दाहशामक योगः आँवले व हरे धनिये के समभाग रस में मिश्री मिलाकर दिन में 1 से 2 बार लेने से दाह व जलन शांत हो जाती है।

मिश्रीयुक्त आँवला रस उत्तम पित्तशामक तथा श्वेतप्रदर में लाभदायी है।

आँवला व ताजी हल्दी के रस का सम्मिश्रण स्वप्नदोष, मधुमेह व त्वचा विकारों में हितकर है।

आँवले के रस में 2 ग्राम जीरा चूर्ण व मिश्री अम्लपित्त (एसिडिटी) नाशक है।

संतरा

यह सुपाच्य, क्षुधा व उत्साहवर्धक तथा तृप्तिदायी है।

निम्नलिखित सभी प्रयोगों में संतरे के रस की मात्राः 50 से 100 मि.ली.

संतरे व नींबू का रस 10 मि.ली. हृदय की दुर्बलता व दोष मिटाने वाला है। दिन में 2 बार लें।

संतरे के रस में उतना ही नारियल पानी पेशाब की रूकावट दूर कर उसे स्वच्छ व खुल के लाने वाला है।

शहदसंयुक्त संतरे का रस हृदयरोगजन्य सीने के दर्द, जकड़न व धड़कन बढ़ने में लाभदायी है।

संतरे के रस के साथ स्वादानुसार पुदीना, अदरक व नींबू का रस पेट के विकारों (उलटी, अरूचि, उदरवायु, दर्द व कब्ज आदि) में विशेष लाभकारी है।

संतरे का रस व 10 ग्राम सत्तू अत्यधिक मासिक स्राव व उसके कारण उत्पन्न दुर्बलता में लाभदायी है। सगर्भावस्था में इसका नियमित सेवन करने से प्रसव सुलभ हो जाता है।

अंगूर

ये शीघ्र शक्ति व स्फूर्तिदायी, पाचन संस्थान को सबल बनाने वाले, पित्तशामक व रक्तवर्धक हैं।

कुछ दिनों तक केवल अंगूर के रस पर ही रहने से पित्तजन्य अनेक रोग जैसे – जलन, अम्लपित्त, मुँह व आँतों के छाले (अल्सर), सिरदर्द तथा कब्ज दूर हो जाते हैं।

निम्नलिखित प्रयोगों में रस की मात्राः 50 से 100 मि.ली.

अंगूर व सेवफल का समभाग रस अनिद्रा में लाभदायी है।

अंगूर व मोसम्बी का समभाग रस मासिक धर्म में असह्य पीड़ा, निम्न रक्ताचाप, रक्त की अल्पता व दुर्बलता में लाभदायी है।

अनार

यह हृदय के लिए बलदायी, मन को तृप्त व उल्लसित करने वाला तथा पित्तजन्य रोगों में पथ्यकर है।

रस की मात्राः 50 से 100 मि.ली.

इसके अतिरिक्त इन दिनों में पुष्ट होने वाले फल सिंघाड़ा, अनन्नासा, सीताफल, सफेद पेठा आदि स्वास्थ्य-संवर्धनार्थ सेवनीय हैं।

सावधानीः सूर्यास्त के बाद, भोजनोपरांत कफजन्य विकार, त्वचा रोग व सूजन में फलों का सेवन नहीं करना चाहिए।

सेवफल का शरबत-एक पौष्टिक पेय

लाभः यह स्वादिष्ट, शक्तिवर्धक और सुपाच्य है। इसे सभी उम्र के लोग वर्षभर ले सकते हैं। यह हृदय को बल देता है, शरीर को पुष्ट व सुडौल बनाता है। वीर्य की वृद्धि करता है। अतिसार और उलटी में तुरंत लाभ करता है। दिमाग की कमजोरी व अवसाद (डिप्रेशन) को दूर कर उसे तरोताजा रखता है। महिलाओं के लिए, विशेषकर गर्भवती महिलाओं और एक साल से बड़ी उम्रवाले बच्चों के लिए बहुत गुणकारी है।

घटकः सेवफल का ताजा रस एक लीटर और मिश्री 650 ग्राम।

विधिः सेवफल के रस में मिश्री मिलाकर एक तार की पक्की चाशनी बना लें। ठंडा करके काँच की शीशी में भरकर रखें।

इस शरबत का 10-12 दिन के अंदर उपयोग कर लेना चाहिए।

मात्राः सुबह-शाम 25-50 ग्राम शरबत पानी में मिलाकर लें।

भोजन से दिव्यता कैसे बढ़ायें ?

आहार के लिए यह ज्ञान अत्यावश्यक है कि क्या खायें, कब खायें, कैसे खायें और क्यों खायें ? इन चारों प्रश्नों के उत्तर स्मरण रखने चाहिए।

“क्या खायें ?”

“सतोगुणी, अहिंसात्मक विधि से प्राप्त खाद्य पदार्थों का ही सेवन करो।”

“कब खायें ?”

“अच्छी तरह भूख लगे तभी खाओ।”

“कैसे खायें ?”

“दाँतों से खूब चबा-चबाकर, मन लगा के,  ईश्वर का दिया हुआ प्रसाद समझ के, प्रेमपूर्वक शांत चित्त से खाओ।”

“किसलिए खायें ?”

“शरीर में शक्ति बनी रहे, जिससे कि सेवा हो सके इसलिए खाओ और दूसरों की प्रसन्नता के लिए खाओ परंतु अधिक अमर्यादित विधि से न खाओ। किसी को रूलाकर न खाओ। अशांतचित्त होकर भीतर-ही-भीतर स्वयं रोते हुए भी न खाओ। किसी भूखे के सामने उसे बिना दिये भी न खाओ। शुद्ध, एकांत स्थान में भगवान का स्मरण करते हुए भोजन करो। अन्याय से, हिंसात्मक विधि से उपार्जित धान्य भी न लो। जहाँ पर धर्मात्मा प्रेमी भक्त, सज्जन न मिलें वहाँ प्राणरक्षामात्र के लिए आहार करो।”

परिणामदर्शी ज्ञानियों का कथन है कि प्राणांतकाल में जिस प्रकार का अन्न, जिस कुल का, जिस प्रकार की  प्रकृतिवाले दाता का अन्न उदर में रहता है, उसी गुण, धर्म, स्वभाव वाले कुल में उस प्राणी का जन्म होता है।

जिस प्रकार शरीरशुद्धि हेतु सदाचार, धनशुद्धि हेतु दान, मनःशुद्धि के लिए ईश्वर-स्मरण आवश्यक है, उसी प्रकार तन-मन-धन की शुद्धि के लिए व्रत-उपवास भी आवश्यक है और व्रत-उपवास की यथोचित्त जानकारी भी आवश्यक है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 31,32,33 अंक 238

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