दुनिया के हर प्राचीन धर्म ने, दुनिया के हर सुलझे हुए सम्प्रदाय व कई प्रबुद्ध महापुरुषों ने और राजा महाराजाओं ने जिसको सहर्ष स्वीकार किया और अनुभूतियाँ की हैं, सारी पृथ्वी पर और स्वर्ग में ही नहीं अपितु, अतल, वितल, तलातल, रसातल, महातल, जनलोक, भुवर्लोक, तपलोक आदि अन्य लोकों पर भी जिसका साम्राज्य छाया हुआ है, वह सार्वभौम ब्रह्मांडव्यापी धर्म है ‘सनातन धर्म’।
भिन्न-भिन्न देश काल और परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक धर्म बने हैं किंतु सनातन धर्म सम्पूर्ण मानव-जाति के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। सनातन सत्य रूपी धर्म जीवमात्र के भीतर, हर दिल में धड़कनें ले रहा है। सनातन सत्य हर दिल में छुपी हुई परमात्मा की वह सुषुप्त शक्ति है, जिसके जागृत होने से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है, पूर्ण आत्मिक विकास होता है। जितने अंश में मानव सनातन सत्य के निकट होता है, उतने अंश में उसका जीवन मधुर होता है। जितने अंश में सनातन सत्य से संबंधु जुड़ता है, जितने अंश में अपनी सुषुप्त शक्तियाँ सनातन चेतना से प्राप्त करता है, उतने अंश में वह अपने क्षेत्र में उन्नत होता है। यह एक हकीकत है कि मनुष्य जितना-जितना ‘देह’ को सत्य मानकर संकीर्ण कल्पनाएँ रचता है, उतना-उतना सच्चे सुख से दूर होता जाता है। आज का मनुष्य शरीर के भोगों में, बड़ी-बड़ी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न महलों में रहने में, भौतिक ऐश-आरामों में रचे-पचे रहने में ही सच्चा सुख मान बैठा है और उसे ही प्राप्त करने में अपना सारा समय बरबाद कर देता है। फलस्वरूप वह अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से वंचित ही रह जाता है।
भागवत के प्रसंग में आता है कि रहुगण राजा राजपाट का सुख भोगते-भोगते विचार करते हैं- ‘जिस देह को जला देना है, उस देह को आज तक तो बहुत भोगों और सुख सुविधाओं में रमाया लेकिन ज्यों ही मृत्यु का एक झटका आयेगा तो सब कुछ पराया हो जायेगा। मृत्यु आकर सब छीन ले उसके पहले उस सनातन शांति से मुलाकात कर लें तो अच्छा रहेगा।’
जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली,
जिसने अपने-आपसे मुलाकात कर ली।
सनातन धर्म हमें अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् स्व-स्वरूप को प्रकट करने की आज्ञा देता है। हमारा आदि धर्म हमें सिखाता है कि पंचभूतों का बना शरीर ‘हम’ नहीं हैं। वास्तव में हम स्वयं ब्रह्म हैं, जो सृष्टि का कर्ता और धर्ता वास्तव में हम अभेद ब्रह्म हैं। सारा जगत ब्रह्मस्वरूप ही है। माया के पाश में बन्धे हुए एक-दूसरे को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि मानते हैं और संकीर्ण विचारधाराओं में बहने लगते हैं। दुःख, अशांति, झगड़े, चिंता आदि में हम उलझते गये हैं, वरना सनातन धर्म एको ब्रह्म द्वितियोनास्ति…..हम सभी एक हैं, भिन्न नहीं हैं… यह दिव्य संदेश विश्व को दे रहा है और यही तो सनातन सत्य भी है। इस सनातन सत्य रूपी व्यापक दृष्टिकोण का प्रभाव समाज पर जितने अंश में होता है, उतने ही अंश में स्नेह, आनंदद, भाईचारा, दया, करुणा, अहिंसा आदि दैवी गुणों से समाज सम्पन्न होता है। इस सत्य के साथ अपना नाता जोड़ना ही व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जगत में प्रगति का मूल मंत्र है, मधुर जीवन की कुंजी है। फिर चाहे रमण महर्षि जी हों, साँईं लीलाशाहजी हों, ऋषि याज्ञवल्क्य हों, चाहे रामावतरा या कृष्णावतार हों, चाहे कोई राजनैतिक जगत में सेवा करने वाला हो।
ऐसा नहीं कि उन्होंने जो पाया है, वह हम नहीं पा सकते। हममें भी वही योग्यता है। सिर्फ ठीक मार्गदर्शन से सही पथ पर लगने की आवश्यकता है। स्वामी रामतीर्थ अपने ईश्वर से मुलाकात करके ऐसे छलके कि सनातन धर्म के अमृत को बाँटते-बाँटते वे अमेरिका पहुँचे। उस समय (सन् 1899-1901) अमेरिका के राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने स्वामी रामतीर्थ की उदारता को अखबारों द्वारा सुना और उससे वे इतने प्रभावित हुए कि स्वयं चलकर रामतीर्थ के दर्शन करने गये। अखबारवालों को स्वामी रामतीर्थ के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा थाः “मैंने आज तक सुना था कि जीसस सनातन सत्य के अमृत को पाये हुए थे लेकिन भारत के इस साधु को तो अमृत बाँटते हुए देखा। मेरा जीवन सफल हो गया।”
आज हम अपने जीवन में सनातन सत्य के अमृत को पाने की आकांक्षा नहीं रखते इसलिए हम सुविधाओं के बीच पैदा होते हैं, पलते हैं फिर भी जिंदगीभर परेशान ही रहते हैं और आखिर उस सच्चे सुख को पाये बिना मर जाते हैं, जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं।
धन, सौंदर्य से हम सुंदर नही होते वरन् सुंदर से भी सुंदर आत्मस्वरूप के करीब पहुँचने पर हम सुंदर होते हैं। जितने हम भीतर के धन से खोखले या कंगाल होते हैं उतनी बाह्य पदार्थों की गुलामी करनी पड़ती है क्योंकि सुख इन्सान की जरूरत है। जब तक हमें आत्मिक आनंद नहीं मिलता, तब तक हम विषय वासना में सुख ढूँढते हैं किन्तु दुःख, परेशानी के अलावा कछ हाथ नहीं लगता। इसके विपरीत, जितने हम भीतर के धन से सम्पन्न होते हैं, आत्मसुख से तृप्त होते हैं उतना हम बाह्य भोग-पदार्थों की ओर से बेपरवाह होते हैं।
अष्टावक्रजी के शरीर में आठ कमियाँ थीं। छोटा कद, टेढ़ी टाँगें थीं और उम्र 12 वर्ष थी फिर भी संसार से विरक्त होकर सरकने वाली चीजों से और मन के निर्णयों, आकर्षणों से पार हो के मुक्तिपद प्राप्त किये हुए थे तो राजा जनक उनके चरणों में प्रणाम करके उनके आगे प्रश्न करते हैं- “भगवन् ! आत्मसुख कैसे प्राप्त होता है ?”
सनातन सत्य के सुख को पाने की जिज्ञासा हर मनुष्य में होती है परंतु सच्ची दिशा न मिलने पर वह संसार-सुख में भटक जाता है। मिथ्या जगत के नश्वर सुख में सत्यबुद्धि करके हम क्षणिक सुख प्राप्त करने में लगे रहते हैं। फिर चाहे कितने विघ्न क्यों न आयें ? पैसे कमाने के लिए न जाने क्या-क्या करना पड़ता है ? यदि धन बहुत हो गया तो शरीर में रोग घुसा होता है, किसी के माँ-बाप अचानक चल बसते हैं। जीवन है तो कुछ-कुछ आफतें आती ही रहती हैं। अरे ! भगवान स्वयं जब श्रीरामचन्द्रजी तथा श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए, तब उन्हें भी विघ्न-बाधाएँ आयी थीं किंतु फर्क है तो इतना कि हम जब विघ्न-बाधाएँ आती हैं तो उनमें बहकर हताश निराश हो जाते है जबकि संत-महापुरुष सत्यस्वरूप ईश्वर के साथ अपना सनातन संबंध जोड़े हुए होते हैं, जिससे वे लेशमात्र भी विघ्न-बाधाओं में बहते नहीं हैं। वे निराश या हताश नहीं होते वरन् मुसीबतें उनके जीवन को चमकाने, प्रसिद्धि दिलाने एवं पूजनीय बनने का कारण बन जाती हैं। भगवान श्रीरामचन्द्रजी को 14 साल का वनवास मिला था। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ही काल कोठरी में हुआ था। पूतना जहर पिलाने आ गयी, कंस मामा ने लगातार कई षडयन्त्र रचे। फिर भी श्रीकृष्ण और रामजी सदैव अपने सनातन सत्यस्वरूप में प्रतिष्ठित रहे, मुस्कराते रहे। यही तो है जीव को अपने आत्मस्वरूप में जगाने का सनातन धर्म का उद्देश्य
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 12-14, अंक 251
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