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नमकः उपकारक व अपकारक भी


शरीर की स्थूल से लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म सभी क्रियाओं के संचालन में नमक (सोडियम क्लोराइड) महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कोशिकाओं में स्थित पानी का संतुलन करना, ज्ञानतंतुओं के संदेशों का वहन करना वह स्नायुओं को आकुंचन-प्रसारण की शक्ति प्रदान करना ये सोडियम के मुख्य कार्य हैं।

सामान्यतः एक व्यक्ति के लिए प्रतिदिन 5-6 ग्राम नमक की मात्रा पर्याप्त है। परंतु विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) के द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 50 प्रतिशत व्यक्ति प्रतिदिन 8.7-11.7 ग्राम नमक लेते हैं। दीर्घकाल तक अधिक मात्रा में नमक का सेवन शरीर की सभी क्रियाओं को असंतुलित कर देता है। और आवश्यकता से कम मात्रा में नमक लेने से व्याकुलता, मानसिक अवसाद (डिप्रैशन), सिरदर्द, थकान, मांसपेशियों की दुर्बलता, मांसपेशियों की ऐंठन, वमन की इच्छा, वमन, अशांति हो सकती है।

अधिक नमक के घातक दुष्परिणाम

किसी भी प्रकार के नमक के अधिक सेवन से हानि होती है। Cellulite, संधिवात, जोड़ों  की सूजन, गठिया, उच्च रक्तचाप, पथरी, जठर का कैंसर, मूत्रपिंड के रोग, यकृत के रोग (Cirrhosis of liver), मोटापा और मोटापे से मधुमेह आदि रोग होते हैं।

नमक खाने के बाद कैल्शियम मूत्र के द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। जितना नमक अधिक उतना कैल्शियम तेजी से कम होता है। इससे हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं, दाँत जल्दी गिरने लगते हैं तथा बाल सफेद होकर झड़ने लगते हैं। अधिक नमक स्नायुओं को शिथिल करता व त्वचा पर झुर्रियाँ लाता है। ज्यादा नमक खाने वाले व्यक्ति जल्दी थक जाते हैं। अधिक नमक ज्ञानतंतुओं व आँखों को क्षति पहुँचाता है। इससे दृष्टिपटल क्षतिग्रस्त होकर दृष्टि मंद हो जाती है। नमक की तीक्ष्णता से शुक्रधातु पतला होकर स्वप्नदोष, शीघ्र पतन व पुंसत्वनाश होता है। अम्लपित्त, अधिक मासिकस्राव, एक्जिमा, दाद, गंजापन व पुराने त्वचा-रोगों का एक प्रमुख कारण नमक का अधिक सेवन भी है। अकाल वार्धक्य को रोकने वाली आयुर्वेदोक्त रसायन-चिकित्सा में नमक बिना के आहार की योजना की जाती है।

अधिक नमक से हृदयरोग

आवश्यकता से अधिक नमक खाने पर उसे फीका (Dilute) करने के लिए  शरीर अधिक पानी का उपयोग करता है। इससे जलीय अंश का संतुलन बिगड़कर रक्तदाब बढ़ जाता है, जो हृदयरोग उत्पन्न करता है। ʹसांइटिफिक एडवायजरी कमेटी ऑन न्यूट्रीशनʹ(SACN) तथा 2003 में इंगलैंड में किये गये शोध के अनुसार अतिरिक्त नमक से हृदय का आकार बढ़ जाता है।

अधिक नमक का मन पर प्रभाव

नमक सप्तधातुओं में निहित ओज को क्षीण कर देता है। ओजक्षय के कारण मनुष्य भयभीत व चिंतित रहता है। उसकी शारीरिक व मानसिक क्लेश सहने की क्षमता घट जाती है।

नमक के अति सेवन से कैसे बचें ?

भोजन बनाते समय ध्यान रखें कि भोजन स्वादिष्ट हो पर चरपरा नहीं। अधिकतर पदार्थों में सोडियम प्राकृतिक रूप से ही उपस्थित होता है, फलों व सब्जियों में विशेष रूप से पाया जाता है। अतः सब्जियों में नमक कम डालें। सलाद आदि में नमक की आवश्यकता नहीं होती। चावल व रोटी बिना नमक की ही बनानी चाहिए। अपनी संस्कृति में भोजन में ऊपर से नमक मिलाने की प्रथा नहीं है। वैज्ञानिकों का भी कहना है कि शरीर अन्न के साथ घुले-मिले नमक का ही उपयोग करता है। ऊपर से डाला नमक शरीर में अपक्व (Non Ionized) अवस्था में चला जाता है। चिप्स, पॉपकार्न, चाट आदि व्यंजनों में ऊपर से डाला गया नमक कई दुष्परिणाम उत्पन्न करता है। दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक नमक डाल के बनाये गये पदार्थ, जैसे-फॉस्टफूड, अचार, चटनी, मुरब्बे, पापड़, केचप्स आदि का सेवन स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।

सप्ताह में एक दिन, खासकर रविवार को बिना नमक का भोजन करना शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए खूब लाभदायी है। गर्मियों में व पित्त प्रकृतिवाले व्यक्तियों को तथा पित्तजन्य रोगों में नमक कम खाना चाहिए। परिश्रमियों की अपेक्षा सुखासीन व्यक्तियों को नमक की जरूरत कम होती है।

चैत्र महीने में 15 दिन बिना नमक का भोजन अर्थात् अलोन व्रत करने से त्वचा, हृदय, गुर्दे के विकार नहीं होते, वर्षभर बुखार नहीं आता। इन दिनों सुबह नीम के फूलों का 20 मि.ली. रस पीने से अथवा नीम के 10-15 कोंपलें और 1-2 काली मिर्च मिश्री या शहद के साथ लेने रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 244

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नमक कौन सा खायें ?

आयुर्वेद के अनुसार सेंधा नमक सर्वश्रेष्ठ है। लाखों वर्ष पुराना समुद्री नमक जो पृथ्वी की गहराई में दबकर पत्थर बन जाता है, वही सेंधा नमक है। यह रूचिकर, स्वास्थ्यप्रद व आँखों के लिए हितकर है।

सेंधा नमक के लाभ

आधुनिक आयोडीनयुक्त नमक से सेंधा नमक श्रेष्ठ है। यह कोशिकाओं के द्वारा सरलता से अवशोषित किया जाता है। शरीर में जो 84 प्राकृतिक खनिज तत्त्व होते हैं, वे सब इसमें पाये जाते हैं।

शरीर में जल स्तर का नियमन करता है, जिससे शरीर की क्रियाओं में मदद मिलती है।

रक्त में शर्करा के प्रमाण को स्वास्थ्य के अनुरूप रखता है।

पाचन संस्थान में पचे हुए तत्त्वों के अवशोषण में मदद करता है।

श्वसन तंत्र के कार्यों में मदद करता है और उसे स्वस्थ रखता है।

साइनस की पीड़ा को कम करता है।

मांसपेशियों की ऐंठन को कम करता है।

अस्थियों को मजबूत करता है।

स्वास्थ्यप्रद प्राकृतिक नींद लेने में मदद करता है।

पानी के साथ यह रक्तचाप के नियमन के लिए आवश्यक है।

मूत्रपिंड व पित्ताशय की पथरी रोकने में रासायनिक नमक की अपेक्षा अधिक उपयोगी।

समुद्री नमक के लाभ

यह समुद्र से प्राकृतिक रूप में प्राप्त होता है, इसलिए इसमें शरीर के स्वास्थ्य के लिए जरूरी 80 से अधिक खनिज तत्त्व मौजूद रहते हैं। यह बाजारू आयोडीनयुक्त नमक से बहतु सस्ता व अधिक लाभदायक है।

रोगप्रतिकारक शक्ति को बढ़ाता है, जिससे सर्दी, फ्लू, एलर्जी आदि रोगों से रक्षा होती है।

कई जानलेवा बीमारियों में बचाता है।

समुद्री नमक आपका वजन कम करने में भी सहयोग देता है। यह पाचक रसों के निर्माण में मदद करता है, जिससे आहार का पाचन शीघ्र होता है। यह कब्ज को दूर करता है।

यह दमा के रोगियों को लाभप्रद है।

यह नमक मांसपेशियों की ऐंठन और दर्द को रोकने में मददरूप होता है।

पानी के साथ समुद्री नमक लेने से कोलेस्ट्रोल का प्रमाम कम होता है और उच्च रक्तचाप को यह कम करता है तथा अनियमित दिल की धड़कनों को नियमित करता है। इस प्रकार यह  , दिल के दौरे और हृदयाघात को रोकने में मदद करता है। यह शरीर में शर्करा का प्रमाण बनाये रखने में मदद करता है, जिससे इंसुलिन की आवश्यकता कम करता है। अतः मधुमेह के रोगियों के आहार में यह अनिवार्य रूप से होना चाहिए।

मानसिक अवसादः तनाव का सामना करने के लिए आवश्यक हार्मोन्स सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को शरीर में बनाये रखने में मदद करता है। इससे हम अवसाद एवं तनाव से मुक्त रहते हैं और अच्छी नींद आती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद मई 2013, पृष्ठ संख्या 29, अंक 245

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जानो उसको जिसकी है ʹहाँʹ में ʹहाँʹ – पूज्य बापू जी


संसार का सार शरीर है। शरीर का सार इऩ्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों का सार प्राण हैं। प्राणों का सार मन है। मन का सार बुद्धि है। बुद्धि का सार अहं है, जीव है। जीव का सार चिदावली है और चिदावली का सार वह चैतन्य आत्मदेव है। उसी आत्मदेव से संवित् (वृत्ति) उठती है, फुरना (संकल्प) उठता है। उसी से श्वास को भीतर भरने और बाहर फेंकने की प्रक्रिया होती है।

स्टोव कम्पनी का मालिक अथवा टायर-टयूब कम्पनी का मालिक खुद भी खड़ा हो जाये तो भी एक बार छिद्र होने न स्टोव जल सकता है, न टयूब गाड़ी के काम आ सकती है। छिद्र हो गया तो फिर उसमें हवा नहीं रूकती है। लेकिन हमारे शरीर में देखो तो नाक का छिद्र, मुँह का छिद्र, कान का छिद्र… इसमें नौ-नौ छिद्र हैं फिर भी वायु कैसे आती है, जाती है ! इसमें तो नौ-नौ हैं फिर भी चल रहा है तो कैसी विलक्षण शक्ति है इस चैतन्यदेव की ! श्वास खत्म हो जाते हैं तो आदमी मर जाता है। कैसे प्रारब्ध की व्यवस्था का सहयोग देता है !

यह देव सबको सहयोग देता है। चोरी करने का इरादा करो तो बुद्धि में वही ज्ञान का सहयोग देता है। साहूकार बनना है तो उसमें सहयोग देता है। ʹवह दूर हैʹ – दूर है…ʹ तो दूर ही लगेगा और सोचोगे कि वह मन्दिर में है तो मन्दिर में ही दिखेगा। जैसा उसको मानो वैसा ही आपको सहयोग देता है ʹहाँʹ में। ૐ…. बराबर हैʹ. ૐ…ʹठीक है।ʹ ૐ मतलब ʹहाँʹ, साधो ! ʹहाँʹ जैसे विद्युत है न, पंखे में लगा दो तो ʹहाँʹ, टयूबलाइट में लगा दो…. ʹहाँʹ, टीवी में ʹहाँʹ, ʹगीजरʹ में ʹहाँʹ, फ्रिज में ʹहाँʹ… सत्ता देती है जहाँ भी लगा दो वही। गीजर में लगा दी, लो गरम पानी, फ्रिज में लगा दी, लो ठंडा पानी। टुल्लू में लगा दो, लो ऊपर पानी… हाँ भाई ! जब भगवान की बनायी हुई विद्युत भी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ कर देती है तो भगवान में भी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ करेंगे ही।

ʹश्रीविष्णुसहस्रनामʹ में आता हैः भयकृत भयनाशन। भगवान भय पैदा करने वाले भी है और भय का नाश करने वाले भी हैं। पशु में भय पैदा कर देते हैं और शेर में गर्जना का बल भर देते हैं। रावण के पक्ष में लड़ने वालों को राम के पक्ष मेंच लड़ने वालों के प्रति बल दे देते हैं और राम जी के पक्ष में लड़ने वालों को रावण के पक्षवालों को पीटने में बल दे देते हैं- लो लड़ो, मार दो इनको। यह कैसा दैव है !

यह अंतर्यामी देव कहता है, ʹयह प्रकृति में हो रहा है – दो नम्बर में। मैं एक नम्बर हूँ – सत्ता देता हूँ और दो नम्बर (प्रकृति) की लीला करता हूँ। जिससे देखा जाता है वह एक नम्बर मैं हूँ, और जो दिखता है वह दो नम्बर मेरी शक्ति है। ʹयह मेरा मन है, यह मेरा हाथ है, यह मेरा पैर है, यह मेरी बुद्धि है, यह मेरा अहं है…ʹ यह सब दो नम्बर, मैं एक नम्बर।ʹ

तो एक नम्बर देव ʹमैंʹ में प्रीति करनी है, उसी में विश्रान्ति पानी है, उसी का ज्ञान पाना है।

ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशेभ्यः।

उस देव को जाना तो सब पाशों से छूट जाओगे। आपको बड़ी भयंकर सजा सुना दी जाये, डर नहीं लगेगा। खूब निंदा कर दी जाये, आप विक्षिप्त नहीं होंगे, बाहर से दिखें तब भी भीतर गहराई में नहीं होंगे, बाहर से दिखें तब भी भीतर गहराई में नहीं होंगे। जय-जयकार कर दी जाय, सारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, भय, चिंता, शोक, मुसीबत, जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि सब-का-सब टिकेगा ही नहीं। बहते पानी में जैसे उँगली लगाओ और अक्षर लिखते जाओ, हस्ताक्षर भी करते जाओ और मुहरें भी मारते जाओ, कुछ भी टिकेगा नहीं। ऐसे ही उस देव को जाना तो सारे कर्म ऐसे ही हो जायेंगे। जो कुछ भी कर्म आपने किये, उन कर्मों का कर्तृत्व नहीं रहेगा आपको, कर्मबन्धन नहीं रहेगा, भोक्तृत्व नहीं रहेगा। सुखी से दिखोगे लेकिन साधारण लोगों जैसा सुख नहीं रहेगा, दुःखी दिखोगे लेकिन साधारण लोगों जैसा दुःख नहीं रहेगा…. आभासमात्र ! दुःखाभास, सुखाभास… जैसे रंगमंच पर सुखी-दुःखी दिखते हैं, ʹहाय ! मैं तो मर गया…. मेरा इकलौता बेटा चला गया। हाय रे हाय !ʹ मेरी तो शादी हो गयी… आय-हाय !ʹ

तो उस देव को जानो। उसको जानने के लिए ऐसे प्रश्न करो कि ʹमैं क्या करूँ ? कैसे जानूँ ? हे देव ! तुम ही बताओ तो मैं कौन हूँ ? आप कौन हैं ? आपको जानने वाला मैं कौन हूँ और आप जानने में आऩे वाले देव कौन हो ?ʹ ऐसा करके उस देव की प्रार्थना करो। अंदर से आवाज आ जाय, भीतर से। अरे ! भीतर से आवाज क्या आयेगी, पूछने वाला धीरे-धीरे उसी में शांत हो जायेगा… आनंद ही आनंद ! फिर क्या होता है उसका वाणी वर्णन नहीं कर सकती। ऐसा वह देव है ! कल्पना नहीं है, सचमुच में है। ऐसा नहीं समझना कि कल्पना है, ऐसा है-वैसा है….। हाँ, ध्यान में कुछ दिखा तो उसमें हो सकती है कल्पना लेकिन इस देव के वास्तविक स्वभाव के अनुभव में… ऐसा नहीं कि ध्यान में सब कल्पना ही होती है, ध्यान में तो आधिदैविक जगत के दृश्य भी दिखते हैं लेकिन यह देव तो वास्तविक देव है। आधिदैविक नहीं है, आधिभौतिक नहीं है, सबका आदि व सबका अंत… सबकी उत्पत्ति का और सबके प्रलय का स्थान है वह देव। वासुदेव, अच्युत देव….. ૐ नारायण…. नारायण… नारायण….. ૐૐૐૐૐૐ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 245

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गुणों के चक्र से परे हैं आप !


पराशरजी अपने जिज्ञासु शिष्य मैत्रेय को संसार-चक्र से निकलने की सरल युक्ति बताते हुए कहते हैं- “हे शिष्य ! जैसे आकाश में सप्त ऋषियों से लेकर सूर्य, चन्द्र आदि नक्षत्र तथा तारामंडल का चक्र दिन रात घूमता रहता है परंतु ध्रुव तारा अचल, एकरस रहता है। यदि अन्य तारों की तरह ध्रुव भी चलायमान होता तो उसका नाम ध्रुव नहीं, अध्रुव होता। उसी प्रकार माया व अज्ञानरूप आकाश में नक्षत्र व तारों के समान देह आदि पदार्थों का चक्र निरंतर घूमता रहता है परंतु आत्मा एकरस, अचल है।

जैसे अनेक बार जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति अवस्थाएँ होती हैं और मिट जाती हैं, वैसे ही बाल-युवा-वृद्ध अवस्थाएँ अनेक शरीरों में अनेक बार प्राप्त हुई तथा मिट गयीं। उसी प्रकार भविष्यकाल वर्तमान काल हो जाता है, वही वर्तमानकाल भूतकाल हो जाता है और पुनः पुनः भूत, भविष्य और वर्तमान होता रहता है। दिन रात, ग्रहण-त्याग का चक्र निरंतर चलता रहता है।

ऐसे ही सत्त्व आदि गुणों का अदल-बदल होता रहता है अर्थात् कभी दैवी गुण तो कभी आसुरी गुणों का चक्र निरंतर चलता रहता है। ऐसे ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, शांति आदि का चक्र भी घूमता रहता है। सब अदल-बदल होता रहता है परंतु ये सभी चक्र मिथ्या है और जिससे ये सभी चक्र घूमते तथा अदल-बदल होते सिद्ध होते हैं, वह चैतन्य निर्विकार, निर्विकल्प, अचल, असंग आत्मा तुम्हारा स्वरूप है। यदि आत्मा भी इन्हीं चक्रों की नाई चलायमान होता तो अनित्य हो जाता लेकिन वह तो नित्य, अचल है। वह तुम हो। (आध्यात्मिक विष्णु पुराण से)

आध्यात्मिक विष्णु पुराण कहता हैः ʹवह तुम हो जहाँ से ʹमैं-मैंʹ स्फुरित होता है। वही तुम्हारा ʹमैंʹ जीव बन जाता है, वही तुम्हारा ʹमैंʹ ईश्वर भी बन जाता है। सबसे प्यारा, सबका प्यारा अपना आत्मा है। दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं। ૐ…ૐ…ૐ….

सबके रूपों में वही है अनंत ! अनेक दिखते हुए भी अद्वितीय। अनंत दो नहीं होते। अनंत दो या एक होगा तो अनंत कैसे रहेगा ? सारे दुःखों व मुसीबतों का मूल है सच्चे अनंत अपने-आपको भूलना और मिथ्या द्वैत को सच्चा मानना।ʹ

चांदणा कुल जहान का तू,

तेरे आसरे होये व्यवहार सारा।

तू सब दी आँख में चमकदा है,

हाय चांदणा तुझे सूझता अँधियारा।।

जागना सोना नित ख्वाब तीनों,

होवे तेरे आगे कई बारा।

बुल्लाशाह प्रकाश स्वरूप है,

इक तेरा घट वध न होवे यारा।।

प्रकाशस्वरूप तेरा अऩंत एकरस आत्मा है। खोज ले ब्रह्मज्ञानियों की शरण, जो जगा दें परब्रह्म स्वभाव में ! श्रीकृष्ण कहते हैं-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

ʹउस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उनको भलीभाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।ʹ (गीताः 4.34)

स्रोतः ऋषि प्रसाद मई 2013, पृष्ठ संख्या 28, अंक 245

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