स्वामी श्री अखण्डानंद जी सरस्वती
मन बुद्धि के उपराम होने पर सत् का प्रतिबिम्ब जो जीवात्मा है, वह कहाँ चला जाता है ? वह अपने प्रकाशस्वरूप सत्-देवता में ही मिल जाता है। मन की उपशांति में आत्मा परमात्मा से एक हो जाता है। यही बात समझाने के लिए आरूणि ने कहाः “तुम स्वप्नांत अर्थात् सुषुप्ति को मुझसे समझो। आत्मा को ‘स्वपिति’ कहते हैं। यह क्रियापद नहीं है, आत्मा का एक नाम है। वह अपने स्वरूप में अपीत अर्थात् स्थित हो जाता है। यह अवस्था स्वप्न से विलक्षण है क्योंकि जाग्रत, स्वप्न में वस्तुएँ दिखती हैं थोड़ी या घनी, क्षणभर या देर तक, वहाँ पाप-पुण्य का कार्य सुख-दुःख भी होता है। अतः जाग्रत के समान स्वप्न भी पाप पुण्य, अविद्या, कामना आदि से युक्त होता है अन्यथा सुख-दुःख कहाँ से होते ? अतः स्वप्न में स्वरूप स्थिति नहीं होती। सुषुप्ति में न पाप-पुण्य रहते हैं न उनका फल। वह मन के सभी शोकों से ऊपर उठ जाता है। वहाँ जीवत्व भी नहीं रहता क्योंकि कर्ता-भोक्ता, संसारी, परिच्छिन्न ही जीव है और सुषुप्ति में यह सब कुछ नहीं रहता। जो सुषुप्ति में अपने साथ नहीं है वह अपना स्वरूप नहीं है। सुषुप्ति के समय सत् से एक हो जाता है। जाग्रत अवस्था में बहुत से आयास-प्रयास करने पड़ते हैं, पाप-पुण्य के कारण सुख-दुःख भी होते हैं किंतु सुषुप्ति में यह सब छूट जाता है। मन, इन्द्रियाँ, प्राण श्रांत-क्लांत होकर शांत हो जाते हैं। लोकदृष्टि से यही स्वरूप स्थिति है। रोगी को भी सुषुप्ति हो जाय तो विश्राम मिलता है परंतु मृत्यु की भ्रांति नहीं होती। इन्द्रियाँ सो जाती है, प्राण जागता रहता है।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2014, पृष्ठ संख्या 9, अंक 257
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