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दुःख का मूल कारण क्या ?


दुःख दो प्रकार का है – एक तो वस्तु के कम-अधिक होने का और दूसरा मन की परिस्थिति बदलने का। इसमें भी सभी विचारवान यह मानते हैं कि वस्तु सुखद या दुःखद नहीं होती। अविद्या के कारण हम जिस वस्तु से अपना संबंध जोड़ लेते हैं वही सुख-दुःख देती हैं।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ये पाँच विषय हैं। ये न सुखद हैं, न दुःखद। इनका कारणभूत तामस अहंकार भी सुख-दुःख का हेतु नहीं है। नासिका, श्रवणादि इन्द्रियाँ और पाँच प्राण भी सुख-दुःख नहीं देते। इन सबका व्यवस्थापक अहंकार भी सुख-दुःख का हेतु नहीं है। ये सब के सब प्राकृत हैं। बुद्धि भी केवल समझती है कि ‘यह सुख है, यह दुःख है’, वह सुख-दुःख देती नहीं है। इसी प्रकार प्राकृत के समस्त विस्तार में कोई दुःख नहीं देता तो दुःख आता कहाँ से है ? उत्तर यही है कि अविद्या से, अज्ञान, नासमझी, मूर्खता से। जब हम किसी वस्तु को ठीक नहीं समझते, तब दुःखी होते हैं।

अहंता अर्थात् प्राकृत अहंकार तो सुषुप्ति में भी रहता है। उस समय श्वास चलता है, रक्तसंचारण होता है, नख-केश बढ़ते हैं, अन्न पचता है अर्थात् अहंकार उस समय भी क्रियाशील रहता है। यह अहं दुःख का हेतु नहीं है, दुःख का हेतु तो अस्मिता है। आत्मा है चेतन, द्रष्टा और अहंकार हैं प्राकृत। जब हम द्रष्टा और दृश्य का ठीक-ठीक अलगाव नहीं कर पाते और चित्स्वरूप होने पर भी (अविद्या के कारण) प्राकृत अहंकार के साथ ऐसे एक हो जाते हैं कि अहंकार को अपना स्वरूप समझने लगते हैं, तब इसको ही अस्मिता कहते हैं। यही चिज्जड़ ग्रंथि है। इस अस्मितारूपी ग्रंथी से ही फिर राग, द्वेष और अभिनिवेश रूपी क्लेश होते हैं।

असल में दुःख देते हैं राग और द्वेष। प्रकृति से जैसे पुष्प उगता-बढ़ता खिलता है, वैसे ही शिशु भी पैदा होता है और बढ़ता है। उसमें कर लिया ‘मैं’ पना तो उससे भी अनुकूलता-प्रतिकूलता का भाव, राग-द्वेष आया और फिर राग से सुख और द्वेष से दुःख। अब राग-द्वेष में इतने डूब गये कि देह को,  पुत्र को, घर को अपने से अभिन्न मानने लगे। यह अभिनिवेश हो। इस प्रकार हमारे दुःख का कारण हमारा अविचार है। अविचार में हम इतने खो गये हैं कि अपने मुक्त स्वरूप को, द्रष्टा-स्वरूप को भूल गये हैं।

दुःखों से छूटने के लिए, अपने मुक्त स्वरूप को जानने के लिए ब्रह्मज्ञानी गुरु का सत्संग श्रेष्ठतम उपाय है।

कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।

ब्रह्मज्ञानी गुरु का महत्व सर्वोपरि है। हनुमानजी के पास बहुत सारी योग्यता होने पर भी उन्होंने ब्रह्मज्ञानी राम जी के पास बिनशर्ती शरणागति स्वीकार करके ब्रह्मज्ञान पाया। अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने वही पावन ज्ञान दिया। ‘गीता’ का ज्ञान सभी मनुष्यों के जीवन में और विद्यार्थीकाल में होना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 26, अंक 261

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दशहरे के दस विजयसूत्र


‘श्रीमद् भागवत’ के ग्यारहवे स्कंध के तेरहवें अध्याय के चौथे श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को बोलते हैं-

आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च।

ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः॥

‘शास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मंत्र और संस्कार- ये दस वस्तुएँ यदि सात्विक हों तो सत्वगुण की, राजसिक हों तो रजोगुण की और तामसिक हों तो तमोगुण की वृद्धि करती हैं।’

अपना जीवन महान बनाना है तो इन 10 बातों का ध्यान रखोः

शास्त्रः आप क्या पढ़ते हैं ? शारीरिक सुखसंबंधी ज्ञान देने वाला साहित्य, उपन्यास या विकारोत्तेजक कहानियाँ पढ़कर अपनी कमनसीबी बढ़ाते हैं कि जीवन में उदारता, सहिष्णुता, प्राणिमात्र के प्रति सदभाव, ब्रह्मचर्य, निर्लोभता आदि दैवी सदगुणों को अपनाने की प्रेरणा देने वाले गीता, रामायण, वेदांत शास्त्र पढ़ते हैं ? ऐसा ही पठन करना चाहिए जिससे आपमें संयम-सदाचार, स्नेह, पवित्रता, निरभिमानिता आदि दैवी गुणों का विकास हो, संत और भगवंत के प्रति आदर-मान की भावना जगे।

जलः आप क्या खाते-पीते हो ? कहीं आप ऐसी चीज तो नहीं खाते-पीते हो जिससे बुद्धि विनष्ट हो जाय और आपको उन्माद-प्रमाद में घसीट ले जाय? इस बात पर भी ध्यान रखें कि जिस जल से स्नान करते हो वह पवित्र तो है न ! खान-पान का ध्यान रखने से आपमें स्वाभाविक ही सत्वगुण का उदय हो जायेगा। आप दुर्गुणों से मुक्त होकर सरलता और शीघ्रता से दैवी सम्पदा की वृद्धि कर पाओगे।

प्रजाजनः आपका संग कैसा है ? मनुष्य जैसे लोगों के बीच में उठता-बैठता है, मन में जैसा बनने की इच्छा रखता है, उसी के अनुरूप उसके जीवन का निर्माण होता है। जिसे भगवद्-तत्व का साक्षात्कार करना हो उसे तत्वज्ञानी महापुरुषों का संग करना चाहिए।

देशः आप कैसे स्थान में रहते हो ? पवित्र, उन्नत स्थान में रहोगे तो आसुरी विचार और विकार आपको पकड़े रहेंगे। देहाध्यास (देह को ‘मैं’ मानना) के कूड़े-कचरे पर बैठोगे तो मान-अपमान, निंदा-स्तुति, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व आप पर प्रभाव डालते रहेंगे और भगवत्स्मरण, ब्रह्मभाव के विचारों में रहोगे तो शांति-लाभ और दिव्य आनंद पाओगे।

समयः आप अपना समय कैसे व्यतीत करते हो ? कहीं जुआ-शराबघर में, सिनेमा-टीवी देखने में या विषय-विलास के चिंतन में तो नहीं ? अखबारों में ज्यादा समय तो नष्ट नहीं करते ? बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता। अतः जीवन का एक-एक क्षण भगवत्प्राप्ति में लगाओ, प्रमाद मत करो।

कर्मः आप किस प्रकार के कर्म करते हैं ? गंदे संस्कार भरकर कर्मबंधन बनाने वाले और नरकों में ले जाने वाले कर्म करते हैं कि अच्छे संस्कार भर के कर्मबंधन काटकर भगवान में विश्रांति दें ऐसे कर्म करते हैं ?

जन्मः जन्मों-जन्मों के आपके संस्कार और शिक्षा-दीक्षा कैसी है ? उससे भी स्वभाव बनता है।

ध्यानः आप अपने चित्त में चिंतन-ध्यान किसका करते हैं ? यदि काम का चिंतन करोगे तो दूसरे जन्म में वैश्या के घर पहुँच जाओगे, मांसाहार का चिंतन करोगे तो गिद्ध या शेर आदि मांसाहारी प्राणियों की योनि में पहुँच जाओगे, किसी से बदला लेने का चिंतन करोगे या ज्यादा द्वेष रखोगे तो साँप, बिच्छु, ततैया आदि योनियों में पहुँच जाओगे। अतः सावधान होकर अपने चिंतन ध्यान को भगवन्मय बनाओ।

अपने दोषों और दुर्गुणों पर, अपने मन में चलने वाली पाप-चिंतन की धारा पर कभी दया नहीं करनी चाहिए। अपने दोषों को क्षमा न करके प्रायश्चित के रूप में अपने-आपको कुछ दंड अवश्य देना चाहिए। दुबारा उस दोष को न दुहराना सबसे बड़ा दंड और प्रायश्चित है। प्रतिदिन रात्रो को सोने से पहले हिसाब लगाना चाहिए कि अशुभ चिंतन कितना कम हुआ और शुभ चिंतन कितना बढ़ा। सुबह उठते ही, जहाँ से उठे उस शुद्ध, बुद्ध, द्रष्टा, साक्षी, आनंदघन में कुछ समय डूबे रहो। ॐ आनंद….. ॐ शांति…. ॐ… यह सुबह की कुछ मिनटों की परमात्म-विश्रांति, घंटोंभर की दिन की साधना जितना आनंद-लाभ दे देगी। फिर परमात्मा या सदगुरुदेव का चिंतन ध्यान करके दिनभर के लिए शुभ संकल्प करना चाहिए कि ‘आज नम्रता, प्रेम, परगुण-दर्शन आदि दैवी गुणों के विकास के साथ प्रभु के नाम गुण का ही चिंतन करूँगा।’

मंत्रः मंत्र देने  वाले आपके गुरु कैसे हैं और मंत्र कैसा है ? टोने-टोटके का मंत्र है कि वैदिक मंत्र है और मंत्र देने वाले गुरु परमात्मप्रीति वाले हैं कि ऐसे-वैसे हैं ? समर्थ सदगुरु से मंत्र लेना चाहिए।

संस्कारः आपके संस्कार कैसे हैं ? अच्छे संस्कार धारण करने का व्रत ले  लो। किसी में हजार  बुराईयाँ हों, फिर भी उसमें से गुण भी लें लो एवं गुणों के आधार, गुणानिधान प्रभु मेरे हैं, मैं भगवान का हूँ – ऐसा चिंतन करने से आप उस समय नित्य ज्ञान में टिकने में तत्पर हो जायेंगे, आपका मंगल हो जायेगा।

यदि आपके जीवन में ये दस बातें आ गयीं तो आप अपने जीवन संग्राम में आऩे वाले हर रावण को नष्ट कर देंगे, प्रत्येक दिन दशहरा होगा और परमात्म-ज्ञान की प्राप्ति सहज, सुलभ हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 261

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