पुत्रवान भव राजन् – पूज्य बापू जी

पुत्रवान भव राजन् – पूज्य बापू जी


राजा दिलीप को कोई संतान नहीं थी। वे गुरु वसिष्ठ के चरणों में गये और प्रार्थना कीः “गुरुवर ! ऐसा कोई उपाय बतायें जिससे मैं संतानप्राप्ति कर सकूँ।”
गुरुवर वसिष्ठजी ने कहाः “राजन् ! आश्रम में रहकर नंदिनी गाय की सेवा करो। अगर उसकी सेवा से उसे संतुष्ट कर सको तो काम बन जायेगा।”
गुरुवर की आज्ञा शिरोधार्य करके राजा दिलीप नंदिनी की सेवा करने लगे। वे उसे चराने के लिए रोज जंगल में ले जाते। सेवा करते-करते राजा को बहुत समय बीत गया।
एक दिन जब राजा दिलीप नंदिनी को चराने ले गये, तब जंगल में एक सिंह ने नंदिनी के ऊपर पंजा रख दिया। यह देखकर दिलीप बोल उठेः “रूको-रूको ! हे वनकेसरी ! गाय को क्यों मारते हो ?”
सिंहः “यह तो मेरा आहार है।”
दिलीपः “यह तुम्हारा आहार नहीं, मेरे गुरुदेव की गाय है। मैं इसका सेवक हूँ। जब तक सेवक जीवित हो, तब तक सेव्य कष्ट नहीं पा सकता। मैं गाय चराने के लिए आया हूँ। इसकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। अगर तुम्हें भूख लगी हो तो मेरा आहार कर लो लेकिन नंदिनी पर प्रहार मत करो।”
“मानव-देह बड़ी मूल्यवान है। पशु तो आता-जाता रहता है। उसका उपयोग करना होता। मानव के लिए पशु है, पशु के लिए मानव नहीं।”
दिलीपः “आपकी यह बात आपके ही पास रहे। मनुष्य अगर मानवता छोड़ दे तो वह पशु से भी बदतर है। मेरा कर्तव्य है इसकी सेवा करना। अतः मुझे अपने कर्तव्य में ही लगे रहने दो वनकेसरी !”
राजा दिलीप सिंह के सामने नीचे सिर करके पड़ गये। राजा की अटूट निष्ठा देखकर देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि होने लगी और सिंह गायब हो गया। नंदिनी बोलीः “राजन ! तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मैंने ही माया का सिंह बनाया था। मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से और मेरे प्रति प्रदर्शित दया भाव से अत्यंत प्रसन्न हूँ। पुत्रवान भव राजन् ! तेजस्वी भव। यशस्वी भव। पुत्र प्राप्ति के लिए अब तुम मेरा दूध दुहकर पी लो।”
राजा बोलेः “माता ! बछड़े के पीने के बाद तथा धार्मिक अनुष्ठान के बाद बचे दूध को ही मैं पी सकता हूँ।”
यह सुन नंदिनी अत्यंत प्रसन्न हुई। दोनों आश्रम लौट आये। बछड़े के पीने व होमादि अनुष्ठान के बाद बचे दूध का गुरु आज्ञा पाकर राजा ने पान किया। समय पाकर राजा दिलीप के यहाँ संतान का जन्म हुआ जो राजा रघु के नाम से प्रख्यात हुए और इन्हीं के नाम पर कुल का नाम पड़ा रघुकुल। इसी कुल में आगे चलकर मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का अवतरण हुआ है। कैसी है महत्ता गुरु आज्ञा-पालन की और कैसी है महिमा गुरुसेवा की ! और कैसी है राजा दिलीप की निष्ठा !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 17, अंक 265
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