Monthly Archives: March 2015

भगवन्नाम का ऐसा प्रभाव, भरता सबके हृदय में सद्भाव


एक गाँव में एक गरीब के 2 पुत्र व एक पुत्री थी। खराब संगत से वे तीनों बिगड़ गये। जब बड़े हुए तो भाइयों ने एक कुटिल योजना बनायी कि ‘किसी धनवान के साथ बहन का विवाह रचाते हैं फिर किसी तरह इसके पति को मरवा देंगे। इससे उसका धन अपने कब्जे में आ जायेगा। फिर बहन की शादी कहीं और करवा देंगे।’
भागदौड़ करने पर उन्हें एक धनी युवक घनश्याम मिल गया, जो कि सत्संगी और भगवन्नाम-जप की महिमा में दृढ़ आस्थावान था। उससे उन्होंने बहन की शादी करा दी। विदाई के समय बहन को सब समझा दिया। बहन ससुराल गयी और शादी के तीसरे दिन पति के साथ मायके फेरा डालने के लिए चल पड़ी। राह में प्यास का बहाना बनाकर वह पति को कुएँ के पास ले गयी। पति ज्यों ही कुएँ से पानी निकालने लगा, त्यों ही उसने पति को धक्का मार दिया और मायके पहुँच गयी।
ससुराल से सारा सोना, चाँदी, नकद पहले ही साथ बाँध लायी थी। भाई अति प्रसन्न हुए। उधर उसका पति तैरना जानता था। कुएँ के भीतर से आवाज सुन राहियों ने उसे बाहर निकाला। वह सीधे ससुराल पहुँच गया। उसे जीवित देख सभी चकित एवं दुःखी हुए। घनश्याम ने इस षड्यंत्र के बारे में सब समझने के बावजूद भी ऐसे व्यवहार किया जैसे कोई घटना ही नहीं घटी हो। रीति अनुसार अगले दिन ससुराल से पति ने पत्नी सहित विदाई ली। घनश्याम पत्नी को सत्संग में ले गया। सत्संग और सत्संगी महिलाओं के सम्पर्क से उसकी सूझबूझ सुंदर हो गयी, पवित्र हो गयी।
घनश्याम गृहस्थ के सभी कर्तव्यों को निभाता हुआ भक्तिमार्ग पर भी आगे बढ़ रहा था। उसके दो पुत्र हुए। पुत्रों के विवाह के बाद घनश्याम की ईश्वर-परायणता और भी ब़ढ़ गयी। ब्राह्ममुहूर्त में उठना, दिनभर जप, पाठ स्वाध्याय, सत्संग एव साधु-संतों, जरूरतमंदों की सेवा में निमग्न रहना उसका नियम बन गया था। एक बार बड़ी बहू ने पूछाः “पिता जी ! आप भगवन्नाम इतना क्यों जपते हैं ?”
घनश्यामः “बहू ! भगवान से बड़ा भगवान का नाम होता है। भगवन्नाम में असीम शक्ति एवं अपरिमित सामर्थ्य होता है। भगवान में असीम शक्ति एवं अपरिमित सामर्थ्य है। इसने केवल मेरी जान ही नहीं बचायी है बल्कि मुझे क्रोध, झगड़ा, वैर-विरोध, अशांति तथा न जाने कितनी ही बुराइयों से बचाया है। दूसरों में दोष न देखना, किसी की निंदा न करना, न सुनना, नीचा दिखाने के लिए कभी किसी की बुराई न उछालना बल्कि पर्दा डालकर उसकी बुराई को दूर करने में सहयोगी बनना, उसे उन्नत करना… ये सब सदगुण जापक में स्वतः आ जाते हैं। मैंने संत-महापुरुषों से सुना एवं अनुभव किया है कि कलियुग के दोषों से बचने के लिए भगवन्नाम महौषधि है।”
“पिताजी ! आपकी जान कब बची थी ?”
बहू के इस प्रश्न को घनश्याम ने टाल दिया। ससुर बहू की इस वार्ता को दरवाजे के पास खड़ी घनश्याम की पत्नी भी सुन रही थी। उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे। वह सामने आ गयी और पूर्व में हुई पूरी घटना बताते हुए बोलीः “बेटी ! पतिहंता होते हुए भी पति की मेरे प्रति अतुलनीय क्षमा, सौहार्द व प्रेम है। ऐसे देवतुल्य पति का साथ पाक मैं तो धन्य हो गयी !”
बहू बोलीः “माँ जी ! मैं भी पहले नास्तिक थी। मुझे भगवान, संत-महापुरुषों और भारतीय संस्कृति में श्रद्धा नहीं थी। मैं तो अपने माता-पिता की बात ही नहीं सुनती थी। परंतु यहाँ आने के बाद ससुरजी के कारण मेरे स्वभाव में परिवर्तन आया और आज नाम-जप की महिमा सुनकर अपनी संस्कृति की महानता मालूम हुई। माँ जी ! अब मैं भी ससुरजी के गुरुदेव के पास जाकर मंत्रदीक्षा लूँगी और अपना एवं अपने बच्चों का जीवन उन्नत बनाऊँगी।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 267
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प्राणिमात्र के कल्याण का हेतु होता है संत अवतरण – पूज्य बापू जी


पूज्य बापू जी का 75वाँ अवतरण दिवसः 10 अप्रैल
संतों को नित्य अवतार माना गया है। कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं संत होंगे और उनके हृदय में भगवान अवतरित होकर समाज में सही ज्ञान व सही आनंद का प्रकाश फैलाते हैं। उनके नाम पर, धर्म के नाम पर कहीं कितना भी, कुछ भी चलता रहता है फिर भी संत-अवतरण के कारण समाज में भगवत्सत्ता, भगवत्प्रीति, भगवद्ज्ञान, भगवद्-अर्पण बुद्धि के कर्मों का सिलसिला भगवान चलवाते रहते हैं।
तो आपके कर्म भी दिव्य हो जायेंगेः
साधारण आदमी अपने स्वार्थ से काम करता है, भगवान और महात्मा परहित के लिए काम करते हैं। महात्माओं का जन्मदिवस मनाने वाले साधक भी परहित के लिए काम कर रहे हैं तो साधकों के भी कर्म दिव्य हो गये।
इस दिवस पर जो भी सेवाकार्य करते हैं, वे करने का राग मिटाते हैं, भोगने का लालच मिटाते हैं और भगवान व गुरु के नाते परहित करते हैं। उन साधकों को जो आनंद आता होगा, जो कीर्तन में मस्ती आती होगी या गरीबों को भोजन कराने में जो संतोष का अनुभव होता होगा, विद्यार्थियों को नोटबुक बाँटने में तथा भिन्न-भिन्न सेवाकार्यों में जो आनंद आता होगा, वह सब दिव्य होगा। इस दिन के निमित्त प्रतिवर्ष गरीबों में लाखों टोपियाँ बँटती हैं, लाखों बच्चों को भोजन मिलता है और लाखों-लाखों कापियाँ बँटती हैं। औषधालयों में, अस्पतालों में, और जगहों पर – जिसको जहाँ भी सेवा मिलती है, वे सेवा ढूँढ लेते हैं। अपने स्वार्थ के लिए कर्म करते हैं तो उससे कर्मबंधन हो जाता है और परहित के लिए कर्म करते हैं तो कर्म दिव्य हो जाता है।
आपको जगाने के लिए क्या-क्या कर्म करते हैं
आप जिसका जन्मदिवस मना रहे हैं, वास्तव में वह मैं हूँ नहीं, था नहीं। फिर भी आप जन्म दिवस मना रहे हैं तो मैं इन्कार भी नहीं करता हूँ। आपने मुकुट पहना दिया तो पहन लिया, फूलों की चादर ओढ़ा दी तो ओढ़ ली। इस बहाने भी आपका जन्म-कर्म दिव्य हो जाये। वे महापुरुष हमें जगाने की न जाने क्या-क्या कलाएँ, क्या-क्या लीलाएँ करते रहते हैं ! नहीं तो ये टॉफी बाँटना, रंग छिड़कना, प्रसाद लेना-बाँटना – ये हमारी दुनिया के आगे बहुत-बहुत छोटी बात है। लेकिन करें तो करें क्या ? आध्यात्मिकता में जिनकी बचकानी समझ है, एक दो की नहीं लगभग सभी की है, उन्हें उठाना-जगाना है। यह अपने-आप में बहुत भारी तपस्या है। एकाग्रता के तप से भी ऊँचा तप है। वे महापुरुष नित्य नवीन रस अद्वैत ब्रह्म में हैं लेकिन नित्य द्वैत के व्यवहार में उतरते हुए हमको ऊपर उठाते हैं।
यह जो कुछ आँखों से दिखता है, जीभ से चखने में आता है, नाक से सूँघने में आता है, मन और बुद्धि से सोचने में आता है – ये सब वास्तव में हैं ही नहीं। जैसे स्वप्न में सब चीजें सच्ची लगती हैं, आँख खोली तो वास्तविकता में नहीं हैं, ऐसे ही ये सब सचमुच में, वास्तविकता में नहीं है।
आप भी इसका मजा लो
वास्तव में प्रकृति और चैतन्य परमात्मा है, बाकी कुछ भी ठोस नहीं है। सिर्फ लगता है यह ठोस है। 10 मिनट हररोज भावना करो कि ‘यह सब स्वप्न है, परिवर्तनशील है। इन सबके पीछे एक सूत्रधार चैतन्य है और अष्टधा प्रकृति है।’ यह याद रखो और स्वप्न का मजा लो तो उसकी गंदगी अथवा विशेषता से आप बंधायमान नहीं होंगे।
भगवान व गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं
भगवान और गुरु के साथ एकतानता हो जाय तो भगवान और गुरु का अनुभव एक ही होता है। ब्रह्म-परमात्मा तटस्थ हैं, गुरु और भगवान पक्षपाती हैं। ब्रह्म-परमात्मा प्रकाश देते हैं, चेतना देते हैं, कोई कुछ भी करे …. लेकिन भगवान और गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं। भक्त अच्छा करेगा तो प्रोत्साहित करेंगे, बुरा करेगा तो डाँटेंगे, बुराई से बचने में मदद करेंगे, भक्त की रक्षा करेंगे। ‘चतुर्भुजी नारायण भगवान नन्हें हो जाओ’ तो माता की प्रार्थना पर ‘उवाँ…..उवाँ……’ करते हुए रामजी बन गये, श्रीकृष्ण बन गये। भक्त के पश्र में वराह अवतार, मत्स्य अवतार, अंतर्यामी अवतार, प्रेरक अवतार ले लेते हैं।
जन्मदिवस मनाने का उद्देश्य क्या ?
यह जन्म दिवस मनाने के पीछे भी एक ऊँचा उद्देश्य है। ‘मैं कौन हूँ ?….. ‘ – ‘मैं फलाना हूँ….’ पर यह तो शरीर है, इसको जानने वाला मन है, निर्णय करने वाली बुद्धि है। ये सब तो बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता है, वह मैं कौन हूँ ?’ – ऐसा खोजते-खोजते गुरु के संकेत से सदाचारी जीवन जिये तो ‘मैं कौन हूँ ?’ इसको जान लेना और जन्म दिव्य हो जायेगा। जन्म दिव्य होते ही कर्म दिव्य हो जायेंगे क्योंकि सुख पाने की लालसा नहीं है, दुःख से बचने का भय नहीं है और ‘जो है, बना रहे’ ऐसी उसकी नासमझी नहीं है।
मरने वाले शरीर का जन्मदिवस तो मनाओ पर उसी निमित्त मनाओ, जिससे सत्कर्म हो जायें, सदबुद्धि का विकास हो जाये। इस उत्सव में नाच कूद के बाहर की आपाधापी मिटाकर सदभाव जगा के फिर शांत हो जायें। श्रीमद् आद्यशंकराचार्यजी ने कहा हैः
मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं….
‘मैं शरीर भी नहीं हूँ, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त भी नहीं हूँ। तो फिर क्या हूँ?’ बस, डूब, जाओ, तड़पो….. प्रकट हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 267
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नवजात शिशु का स्वागत


 

‘अष्टांगहृदय’ कार का कहना है कि शिशु के जन्मते ही तुरंत उसके शरीर पर चिपकी श्वेत उल्व को कम मात्रा में सेंधा नमक एवं ज्यादा मात्रा में घी लेकर हलके हाथ से साफ करें।

जन्म के बाद तुरंत नाभिनाल का छेदन कभी न करें। 4-5 मिनट में नाभिनाल में रक्त प्रवाह बंद हो जाने पर नाल काटें। नाभिनाल में स्पंदन होता हो तो उस समय काटने पर शिशु के प्राणों में क्षोभ होने से उसके चित्त पर भय के संस्कार गहरे हो जाते हैं। इससे उसका समस्त जीवन भय के साय में बीत सकता है।

स्वीडन के उपस्सला विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने यह सिद्ध किया है कि ‘नाभिनाल-छेदन तुरन्त करने पर लौह तत्त्व की कमी के कारण नवजात शिशु के मस्तिष्क के विकास में कमी रहती है, जिसके फलस्वरूप उसे भयंकर रोग होते हैं। जिन बच्चों की नाल देर से काटी जाती है उनके रक्त में पर्याप्त लौह तत्त्व रहने से मस्तिष्क का समुचित विकास होता है। क्योंकि 3 मिनट तक शिशु को माता के गर्भाशय से 10 सेंटीमीटर नीचे रखने से शिशु के रक्त में 32 प्रतिशत वृद्धि होती है, जो उसे नाल से प्राप्त होता है।’

बच्चे का जन्म होते ही, मूर्च्छावस्था दूर होने के बाद शिशु जब ठीक से श्वास-प्रश्वास लेने लगे, तब थोड़ी देर बाद स्वतः ही नाल में रक्त का परिभ्रमण रूक जाता है। नाल अपने आप सूखने लगती है। तब शिशु की नाभि से आठ अंगुल ऊपर रेशम के धागे से बंधन बाँध दें। अब बंधन के ऊपर से नाल काट सकते हैं।

फिर घी, नारियल तेल, शतावरी सिद्ध तेल, बलादि सिद्ध तेल में से किसी एक के द्वारा शिशु के शरीर पर धीरे-धीरे मालिश करें। इससे शिशु की त्वचा की ऊष्मा (गर्मी) सँभली रहेगी और स्नान कराने पर उसको सर्दी नहीं लगेगी। शरीर की चिकनाई दूर करने के लिए तेल में चने का आटा डाल सकते हैं।

तत्पश्चात पीपल या वटवृक्ष की छाल डालकर ऋतु अनुसार बनाये हुए हलके या उससे कुछ अधिक गर्म पानी से 2-3 मिनट स्नान करायें। यदि सम्भव हो तो सोना या चाँदी का टुकड़ा डालकर उबाले हुए हलके गुनगुने पानी से भी बच्चे को नहला सकते हैं। इससे बच्चे का रक्त पूरे शरीर में सहजता से घूमकर उसे शक्ति व बल देता है।
स्नान कराने के बाद बच्चे को पोंछकर मुलायम व पुराने (नया वस्त्र चुभता है) सूती कपड़े में लपेट के उसका सिर पूर्व दिशा की ओर रखकर मुलायम शय्या पर सुलायें। इसके बाद गाय का घी एवं शहद विषम प्रमाण में लेकर सोने की सलाई या सोने का पानी चढ़ायी हुई सलाई से नवजात शिशु की जीभ पर ‘ॐ’ तथा ‘ऐं’ बीज मंत्र लिखें। तत्पश्चात शिशु का मुँह पूर्व दिशा की ओर करके आश्रम द्वारा निर्मित ‘सुवर्णप्राश’ (एक गोली का आठवाँ भाग) को घी व शहद के विषम प्रमाण के मिश्रण अथवा केवल शहद या माँ के दूध के साथ अनामिका उँगली (सबसे छोटी उँगली के पास वाली उँगली) से चटायें। शिशु को जन्मते हुए कष्ट के निवारण हेतु हलके हाथ से सिर व शरीर पर तिल का तेल लगायें। फिर बच्चे को पिता की गोद में दे। पिता बच्चे के दायें कान में अत्यन्त प्रेमपूर्वक बोलें- ॐॐॐॐॐॐॐॐ अश्मा भव। तू चट्टान की तरह अडिग रहने वाला बन। ॐॐॐॐॐॐॐ परशुः भव। विघ्न बाधाओं को, प्रतिकूलताओं को ज्ञान के कुल्हाड़े से, विवेक के कुल्हाड़े से काटने वाला बन। ॐॐॐॐॐॐॐ हिरण्यमयस्तवं भव। तू सुवर्ण के समान चमकने वाला बन। यशस्वी भव। तेजस्वी भव। सदाचारी भव। तथा संसार, समाज, कुल, घर व स्वयं के लिए भी शुभ फलदायी कार्य करने वाला बन !’ साथ ही पिता निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण भी करेः

अंगादंगातसम्भवसि हृदयादभिजायसे।
आत्मा वै पुत्रनामाऽसि स़ञ्जीय शरदां शतम्।।
शतायुः शतवर्षोऽसि दीर्घमायुरवाप्नुहि।
नक्षत्राणि दिशो रात्रिरहश्च त्वाऽभिरक्षतु।।

‘हे बालक ! तुम मेरे अंग-अंग से उत्पन्न हुए हो मेरे हृदय से साधिकार उत्पन्न हुए हो। तुम मेरी ही आत्मा हो किंतु तुम पुत्र नाम से पैदा हुए हो। तुम सौ वर्ष तक जियो। तुम शतायु होओ, सौ वर्षों तक जीने वाले होओ, तुम दीर्घायु को प्राप्त करो। सभी नक्षत्र, दसों दिशाएँ दिन रात तुम्हारी चारों ओर से रक्षा करें।’ (अष्टांगहृदय, उत्तरस्थानम् 1.3.4)

बालक के जन्म के समय ऐसी सावधानी रखने से बालक की, कुल की, समाज की और देश की सेवा हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 267
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