संकल्प में बड़ी शक्ति होती है और अभी का संकल्प अभी भी फलित हो सकता है, दो दिन, दस दिन, सौ दिन या सौ साल के बाद भी फलित हो सकता है। संकल्पों की ही दुनिया है।
एक बार गुरु ने शिष्यों से पूछाः “सबसे ज्यादा ठोस क्या चीज है ?”
एक शिष्य ने कहाः पत्थर। दूसरे ने कहाः लोहा। तीसरे ने कुछ और कहा।
गुरु ने कहाः “सबसे ठोस, शक्तिशाली है ‘संकल्प’, जो पत्थरों को चूर कर दे, लोहे को पिघला दे और परिस्थितियों को बदल दे।”
तो ठोस में ठोस है संकल्प और उसका अधिष्ठान है सबसे ठोस ‘आत्मा-परमात्मा’। परमात्मा सत्य-संकल्प है तो वहाँ ठहरकर आप परमात्मा की जागृत अवस्था में अनजाने में आ जाते हैं। प्रार्थना करते-करते शांत होते हैं तो पूर्ण अवस्था की कुछ घड़ी आती है, उस समय प्रार्थना फलती है, संकल्प फलता है
एक बार सूरत में, मैं सुबह टहलने के लिए पैदल जा रहा था तो वहाँ से कोई मुल्ला जी स्कूटर से बड़ी फुर्ती से गुजरा। वह निकल तो गया लेकिन एक बार उसने मेरी तरफ देखा और फिर दौड़ाया स्कूटर। मैंने सोचा कि ‘इसका कुछ तो भला होना चाहिए। एक बार भी दर्शन किया तो खाली क्यों जाय ?’
मैंने उसे आवाज तो नहीं लगायी पर अंदर से कहा कि ‘ठहर जा, ठहर जा…’ तो टायर पंक्चर हो गया। फिर वह पीछे देखता रहा। मैं तो पैदल घूमने चला गया।
फिर मैं वहाँ से वापस गुजरा तो उसने कहाः “महाराज ! कहाँ जा रहे हो।” इतने में मेरी गाड़ी आ गयी। मैं गाड़ी से उसको ‘समता साम्राज्य’ व ब्रह्मचर्य की पुस्तक दी और प्रसादरूप में केले देकर कहाः “बस अब जा सकते हो।”
वह बोलाः “अच्छा, खुदा हाफिज !” और मुझे देखता रह गया।
तात्पर्य यह है कि यदि तुम्हारे हृदय में शुद्धता है, अंतःकरण स्वच्छ है, प्रेम है तो तुम्हारे संकल्प के अनुसार घटनाएँ घटती हैं। जैसे शबरी के जीवन में प्रेम था, हृदय शुद्ध था तो राम जी ने आकर उसके बेर ही माँगे। रामजी को भूख लगी थी अथवा राम जी को बेर खाने का शौक था ? नहीं, शबरी का संकल्प राम जी के द्वारा क्रियान्वित हो रहा था। ऐसे ही श्रीकृष्ण के लिए कौरवों ने बड़ी व्यवस्था की थी भोजन-छाजन की, श्रीकृष्ण वहाँ नहीं गये और विदुरजी की पत्नी – काकी के यहाँ गये। और वह काकी भी सचमुच भोली-भाली थी !
विदुरजी ने कहाः “केले तैयार करके रखना।” अब छिलके गाय को देने हैं और केले रखने हैं लेकिन वह पगली छिलके-छिलके रखती जाती है और केले-केले गाय को देती जाती है। गाय तो केले स्वाहा कर गयी। अब कृष्ण आयेः “काकी ! बहुत भूख लगी है।” तो उसने छिलकों का थाल रख दिया। उसको पता ही नहीं कि मैं क्या रख रही हूँ ! और भगवान श्रीकृष्ण ने केले के छिलके खाये। ‘श्रीकृष्ण आयेंगे, खायेंगे, खायेंगे…..’ इतनी तीव्रता थी और संकल्प था तो श्रीकृष्ण आये और उसके द्वारा भाव-भाव में अर्पण किये गये छिलके तक खाये।
संकल्पशक्ति क्या नहीं कर सकती ! इसलिए आप हमेशा ऊँचे संकल्प करो और उनको सिद्ध करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ में लग जाओ। अपने संकल्प को ठंडा मत होने दो, अन्यथा दूसरों के संकल्प तुम्हारे मन पर हावी हो जायेंगे और कार्यसिद्धि का मार्ग रूँध जायेगा। तुम स्वयं सिद्धि का खजाना हो। सामर्थ्य की कुंजी तुम्हारे पास ही है। अपने मन को मजबूत बना तो तुम पूर्णरूपेण मजबूत हो। हिम्मत, दृढ़ संकल्प और प्रबल पुरुषार्थ से ऐसा कोई ध्येय नहीं है जो सिद्ध न हो सके। तुम्हारे संकल्प में अथाह सामर्थ्य है। जितना तुम्हारा संकल्प में अथाह सामर्थ्य है। जितना तुम्हारा संकल्प सात्त्विक होगा और जितनी तुम्हारी श्रद्धा अडोल होगी तथा जितनी तुम्हारी तीव्रता होगी, उतना वह फलित होगा।
व्यर्थ के संकल्पों को कैसे दूर करें ?
व्यर्थ के संकल्प न करें। व्यर्थ के संकल्पों से बचने के लिए ‘हरि ॐ…’ के प्लुत गुंजन का भी प्रयोग किया जा सकता है। ‘हरि ॐ…..’ का गुंजन करें फिर शांत हो जायें। मन इधर-उधर भागे तो फिर गुंजन करें। यह व्यर्थ संकल्पों को हटायेगा एवं महासंकल्प की पूर्ति में मददरूप होगा। व्यर्थ के चिंतन को व्यर्थ समझकर महत्त्व मत दो।
पवित्र स्थान में किया हुआ संकल्प जल्दी फलता है। जहाँ सत्संग होता हो, हरि चर्चा होती हो, हरि कीर्तन होता हो वहाँ अगर शुभ संकल्प किया जाय तो जल्दी सिद्ध होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 14,15 अंकः 268
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Monthly Archives: April 2015
वासना मिटाओ, आत्मज्ञान पाओ
‘योगवासिष्ठ महारामायण’ में वसिष्ठजी कहते हैं- “हे राम जी ! जितने दान और तीर्थादिक साधन हैं उनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती।”
पूज्य बापू जीः “दान से धन शुद्ध होगा, तीर्थों से चित्त की शुद्धि होगी परंतु आत्मशांति, आत्मानंद सदगुरु के दर्शन-सत्संग से होगा। इसलिए बोलते हैं-
तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।
पढ़-लिखकर भाषण करना अथवा पुजवाना अलग बात है और परमात्मा को पाकर परमात्मा का रस बाँटना यह श्रीराम जैसे, श्रीकृष्ण जैसे, कबीर जी, नानकजी, साँईं श्री लीलाशाहजी बापू जैसे महापुरुषों का स्वभाव है।
जो अपने गुरु के नियंत्रण में नहीं रहता, उसका मन परमानंद को नहीं पायेगा। ऐसा नहीं कि गुरु जी के सामने कोई बैठे रहना है। गुरु जी नैनीताल में हैं या चाहे कहीं भी सत्संग कर रहे हैं लेकिन गुरुजी के नियंत्रण में अपने को रखकर हम सात साल रहे। कभी कहीं जाते तो गुरु जी की अनुमति लेकर जाते। चौरासी लाख जन्मों की मन की, इन्द्रियों की वासना से जीव भटकता रहता है, इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी। गुरु एक ऐसा सहारा मिल गया कि अब कहीं भी जाओ तो गुरु जी की अनुमति लेंगे। तो अनुमति लेना ठीक है कि नहीं ? जैसा मन में आये वैसा करने लगे तो एक जन्म में क्या, दस जन्म में भी उद्धार होने वाला नहीं है।
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
गुरुओं का सान्निध्य और गुरु की आज्ञा का पालन हमें गुरु बना देता है। गुरु वे हैं जो लघु को गुरु बना दें, विषय विकारों में गिरे हुए जीवों को भगवद्-आनंद में, भगवद्-रस में, भगवत्प्रीति में पहुँचा दें। अतः जब गुरु आते हैं तो सुधरने का मौसम होता है और गुरु चले जायें तब सावधान होने का मौसम होता है कि हम बिगड़े नहीं। जितना सुधरे हैं उतना सुधरे रहें फिर आगे बढ़ें।”
वसिष्ठ जी बोलेः “हे राम जी ! जहाँ शस्त्र चलते हैं और अग्नि लगती है, वहाँ भी सूरमा निर्भय होकर जा पड़ते हैं और शत्रु को मारते हैं। प्राण जाने का भय नहीं रखते तो तुमको संसार की इच्छा त्यागने में क्या भय होता है ?”
पूज्य बापू जीः “लड़ाइयाँ हो रही हैं, वहाँ भी सूरमे लड़ते हैं। आग लग रही है, अग्निशामक दल वाले वहाँ जाकर कूद पड़ते हैं। कोई मर भी जाते हैं। प्राण त्यागने में इतनी बहादुरी करते हैं तो तुमको केवल वासना त्यागनी है और क्या करना है ? मनमुखता त्यागनी है और क्या करना है ? कोई मेहनत है क्या ? लेकिन मनमुखता पुरानी है, कई जन्मों की है और अभी भी उसमें महत्त्व है। भगवान को पाने का महत्त्व नहीं है। रामायण में शिवजी कहते हैं-
सुनहु उमा ते लोग अभागी।
हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।।
जो हरि का रस छोड़कर विषय-विकारों से संतुष्ट हो रहे हैं, वे बड़े अभागे हैं। शरीर की ममता त्यागें, आत्म-परमात्म सुख में जागें।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 268
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मीडिया ट्रायल न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति
दिल्ली उच्च न्यायालय
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया में दिखायी गयी खबरें न्यायाधीश के फैसलों पर असर डालती हैं। खबरों से न्यायाधीश पर दबाव बनता है और फैसलों का रुख भी बदल जाता है। पहले मीडिया अदालत में विचाराधीन मामलों में नैतिक जिम्मेदारियों को समझते हुए खबरें नहीं दिखाता था लेकिन अब नैतिकता को हवा में उड़ा दिया गया है। मीडिया ट्रायल के जरिये दबाव बनाना न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति है। जाने-अनजाने में एक दबाव बनता है और इसका असर आरोपियों और दोषियों की सज़ा पर पड़ता है।”
कई न्यायविद् एवं प्रसिद्ध हस्तियाँ भी मीडिया ट्रायल को न्याय व्यवस्था के लिए बाधक मानती हैं। एक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरीयन जोसेफ ने कहा हैः “दंड विधान संहिता की धारा 161 और 164 के तहत दर्ज आरोपी के बयान भी मीडिया को जारी कर दिये जाते हैं। अदालत में मुकद्दमा चलता है, उधर समानांतर मीडिया ट्रायल भी चलता रहता है।” सर्वोच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया का रोल अहम है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह इस तरह अपना काम करे कि किसी भी केस की छानबीन प्रभावित न हो। कानून की नजर में कोई शख्स तब तक अपराधी नहीं है, जब तक उस पर जुर्म साबित न हो जाय। ऐसे में जब मामला अदालत में हो, तब मीडिया को संयम रखना चाहिए। उसे न्यायिक प्रक्रिया में दखल देने से बचना चाहिए।”
उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर कहते हैं- “मीडिया ट्रायल काफी चिन्ता का विषय है। यह नहीं होना चाहिए। इससे अभियुक्त के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की धारणा बनती है। फैसला अदालत में ही होना चाहिए।”
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन् का मानना हैः “मीडिया ट्रायल अच्छा नहीं है क्योंकि कई बार इससे दृढ़ सार्वजनिक राय कायम हो जाती है जो न्यायपालिका को प्रभावित करती है। मीडिया ट्रायल के कारण की बार आरोपी की निष्पक्ष सुनवाई नहीं हो पाती।”
पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता रविशंकर सिंह बताते हैं- “कई देशों में मीडिया ट्रायल के खिलाफ बड़े सख्त कानून बनाये गये हैं। इंगलैण्ड में कंटेम्प्ट हो कोर्ट एक्ट 1981 की धारा 1 से 7 में मीडिया ट्रायल के बारे में सख्त निर्देश दिये गये हैं। कई बार इस कानून के तहत बड़े अखबारों पर मुकद्दमे भी चलाये गये हैं। धारा 2(2) के तहत प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया ऐसा कोई समाचार प्रकाशित नहीं कर सकता जिसके कारण ट्रायल की निष्पक्षता पर गम्भीर खतरा उत्पन्न होता हो। जिस तरह भारत में मीडिया ट्रायल के द्वारा केस को गलत दिशा में मोड़ने का प्रचलन हो रहा है, ऐसे में अन्य देशों की तरह भारत में भी मीडिया ट्रायल पर सख्त कानून बनाना बहुत ही आवश्यक हो गया है।”
विश्व हिन्दू परिषद के मुख्य संरक्षक व पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल जी कहते हैं- “मीडिया ट्रायल के पीछे कौन है ? हिन्दू धर्म व संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया ट्रायल पश्चिम का बड़ा भारी षड्यंत्र है हमारे देश के भीतर ! मीडिया का उपयोग कर रहे हैं विदेश के लोग! उसके लिए भारी मात्रा में फंड्स देते हैं, जिससे हिन्दू धर्म के खिलाफ देश के भीतर वातावरण पैदा हो।”
मीडिया विश्लेषक उत्पल कलाल कहते हैं- “यह बात सच है कि संतों, राष्ट्रहित में लगी हस्तियों पर झूठे आरोप लगाकर मीडिया ट्रायल द्वारा देशवासियों की आस्था के साथ खिलवाड़ करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जनता पर अपनी बात को थोपना, सही को गलत, गलत को सही दिखाना – क्या इससे प्रजातंत्र को मजबूती मिलेगी ? मीडिया की ऐसी रिपोर्टिंग पर सरकार न्यायपालिका और जनता द्वारा लगाम कसी जानी चाहिए।
संकलकः श्री रवीश राय
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 6,7, अंक 268
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