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Rishi Prasad 268 Apr 2015

वासना मिटाओ, आत्मज्ञान पाओ


‘योगवासिष्ठ महारामायण’ में वसिष्ठजी कहते हैं- “हे राम जी ! जितने दान और तीर्थादिक साधन हैं उनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती।”
पूज्य बापू जीः “दान से धन शुद्ध होगा, तीर्थों से चित्त की शुद्धि होगी परंतु आत्मशांति, आत्मानंद सदगुरु के दर्शन-सत्संग से होगा। इसलिए बोलते हैं-
तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।
पढ़-लिखकर भाषण करना अथवा पुजवाना अलग बात है और परमात्मा को पाकर परमात्मा का रस बाँटना यह श्रीराम जैसे, श्रीकृष्ण जैसे, कबीर जी, नानकजी, साँईं श्री लीलाशाहजी बापू जैसे महापुरुषों का स्वभाव है।
जो अपने गुरु के नियंत्रण में नहीं रहता, उसका मन परमानंद को नहीं पायेगा। ऐसा नहीं कि गुरु जी के सामने कोई बैठे रहना है। गुरु जी नैनीताल में हैं या चाहे कहीं भी सत्संग कर रहे हैं लेकिन गुरुजी के नियंत्रण में अपने को रखकर हम सात साल रहे। कभी कहीं जाते तो गुरु जी की अनुमति लेकर जाते। चौरासी लाख जन्मों की मन की, इन्द्रियों की वासना से जीव भटकता रहता है, इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी। गुरु एक ऐसा सहारा मिल गया कि अब कहीं भी जाओ तो गुरु जी की अनुमति लेंगे। तो अनुमति लेना ठीक है कि नहीं ? जैसा मन में आये वैसा करने लगे तो एक जन्म में क्या, दस जन्म में भी उद्धार होने वाला नहीं है।
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
गुरुओं का सान्निध्य और गुरु की आज्ञा का पालन हमें गुरु बना देता है। गुरु वे हैं जो लघु को गुरु बना दें, विषय विकारों में गिरे हुए जीवों को भगवद्-आनंद में, भगवद्-रस में, भगवत्प्रीति में पहुँचा दें। अतः जब गुरु आते हैं तो सुधरने का मौसम होता है और गुरु चले जायें तब सावधान होने का मौसम होता है कि हम बिगड़े नहीं। जितना सुधरे हैं उतना सुधरे रहें फिर आगे बढ़ें।”
वसिष्ठ जी बोलेः “हे राम जी ! जहाँ शस्त्र चलते हैं और अग्नि लगती है, वहाँ भी सूरमा निर्भय होकर जा पड़ते हैं और शत्रु को मारते हैं। प्राण जाने का भय नहीं रखते तो तुमको संसार की इच्छा त्यागने में क्या भय होता है ?”
पूज्य बापू जीः “लड़ाइयाँ हो रही हैं, वहाँ भी सूरमे लड़ते हैं। आग लग रही है, अग्निशामक दल वाले वहाँ जाकर कूद पड़ते हैं। कोई मर भी जाते हैं। प्राण त्यागने में इतनी बहादुरी करते हैं तो तुमको केवल वासना त्यागनी है और क्या करना है ? मनमुखता त्यागनी है और क्या करना है ? कोई मेहनत है क्या ? लेकिन मनमुखता पुरानी है, कई जन्मों की है और अभी भी उसमें महत्त्व है। भगवान को पाने का महत्त्व नहीं है। रामायण में शिवजी कहते हैं-
सुनहु उमा ते लोग अभागी।
हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।।
जो हरि का रस छोड़कर विषय-विकारों से संतुष्ट हो रहे हैं, वे बड़े अभागे हैं। शरीर की ममता त्यागें, आत्म-परमात्म सुख में जागें।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 268
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Rishi Prasad 268 Apr 2015

मीडिया ट्रायल न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति


दिल्ली उच्च न्यायालय
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया में दिखायी गयी खबरें न्यायाधीश के फैसलों पर असर डालती हैं। खबरों से न्यायाधीश पर दबाव बनता है और फैसलों का रुख भी बदल जाता है। पहले मीडिया अदालत में विचाराधीन मामलों में नैतिक जिम्मेदारियों को समझते हुए खबरें नहीं दिखाता था लेकिन अब नैतिकता को हवा में उड़ा दिया गया है। मीडिया ट्रायल के जरिये दबाव बनाना न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति है। जाने-अनजाने में एक दबाव बनता है और इसका असर आरोपियों और दोषियों की सज़ा पर पड़ता है।”
कई न्यायविद् एवं प्रसिद्ध हस्तियाँ भी मीडिया ट्रायल को न्याय व्यवस्था के लिए बाधक मानती हैं। एक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरीयन जोसेफ ने कहा हैः “दंड विधान संहिता की धारा 161 और 164 के तहत दर्ज आरोपी के बयान भी मीडिया को जारी कर दिये जाते हैं। अदालत में मुकद्दमा चलता है, उधर समानांतर मीडिया ट्रायल भी चलता रहता है।” सर्वोच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया का रोल अहम है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह इस तरह अपना काम करे कि किसी भी केस की छानबीन प्रभावित न हो। कानून की नजर में कोई शख्स तब तक अपराधी नहीं है, जब तक उस पर जुर्म साबित न हो जाय। ऐसे में जब मामला अदालत में हो, तब मीडिया को संयम रखना चाहिए। उसे न्यायिक प्रक्रिया में दखल देने से बचना चाहिए।”
उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर कहते हैं- “मीडिया ट्रायल काफी चिन्ता का विषय है। यह नहीं होना चाहिए। इससे अभियुक्त के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की धारणा बनती है। फैसला अदालत में ही होना चाहिए।”
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन् का मानना हैः “मीडिया ट्रायल अच्छा नहीं है क्योंकि कई बार इससे दृढ़ सार्वजनिक राय कायम हो जाती है जो न्यायपालिका को प्रभावित करती है। मीडिया ट्रायल के कारण की बार आरोपी की निष्पक्ष सुनवाई नहीं हो पाती।”
पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता रविशंकर सिंह बताते हैं- “कई देशों में मीडिया ट्रायल के खिलाफ बड़े सख्त कानून बनाये गये हैं। इंगलैण्ड में कंटेम्प्ट हो कोर्ट एक्ट 1981 की धारा 1 से 7 में मीडिया ट्रायल के बारे में सख्त निर्देश दिये गये हैं। कई बार इस कानून के तहत बड़े अखबारों पर मुकद्दमे भी चलाये गये हैं। धारा 2(2) के तहत प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया ऐसा कोई समाचार प्रकाशित नहीं कर सकता जिसके कारण ट्रायल की निष्पक्षता पर गम्भीर खतरा उत्पन्न होता हो। जिस तरह भारत में मीडिया ट्रायल के द्वारा केस को गलत दिशा में मोड़ने का प्रचलन हो रहा है, ऐसे में अन्य देशों की तरह भारत में भी मीडिया ट्रायल पर सख्त कानून बनाना बहुत ही आवश्यक हो गया है।”
विश्व हिन्दू परिषद के मुख्य संरक्षक व पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल जी कहते हैं- “मीडिया ट्रायल के पीछे कौन है ? हिन्दू धर्म व संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया ट्रायल पश्चिम का बड़ा भारी षड्यंत्र है हमारे देश के भीतर ! मीडिया का उपयोग कर रहे हैं विदेश के लोग! उसके लिए भारी मात्रा में फंड्स देते हैं, जिससे हिन्दू धर्म के खिलाफ देश के भीतर वातावरण पैदा हो।”
मीडिया विश्लेषक उत्पल कलाल कहते हैं- “यह बात सच है कि संतों, राष्ट्रहित में लगी हस्तियों पर झूठे आरोप लगाकर मीडिया ट्रायल द्वारा देशवासियों की आस्था के साथ खिलवाड़ करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जनता पर अपनी बात को थोपना, सही को गलत, गलत को सही दिखाना – क्या इससे प्रजातंत्र को मजबूती मिलेगी ? मीडिया की ऐसी रिपोर्टिंग पर सरकार न्यायपालिका और जनता द्वारा लगाम कसी जानी चाहिए।
संकलकः श्री रवीश राय
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 6,7, अंक 268
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Rishi Prasad 268 Apr 2015

निष्पक्ष न्याय और मीडिया


(‘मीडिया ट्रायल एंड इट्स इम्पैक्ट ऑन सोसायटी एंड ज्यूडिशियल सिस्टम विषय पर राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सुनील अम्बवानी के व्याख्यान के सम्पादित अंश, संदर्भः राजस्थान पत्रिका’)
‘व्हॉट इज़ ए फेयर ट्रायल ?’ (निष्पक्ष ट्रायल क्या है ?) हर आरोपित को फेयर (निष्पक्ष) ट्रायल का अधिकार है। निष्पक्ष ट्रायल से मतलब है किसी भी अपराध की पुलिस या अन्य किसी एजेंसी जैसे सीबीआई, सीआईडी द्वारा निष्पक्ष जाँच-पड़ताल, आरोप-पत्र बनाने का पारदर्शी और स्वच्छ तरीका, रिपोर्ट में विश्वसनीय और मानने योग्य सबूत, आरोपित का बचाव करने का अधिकार, सबूतों को जानने और क्रॉस एग्जामिन करने का अधिकार, अपना पक्ष रखने का अधिकार। ये सभी निष्पक्ष ट्रायल के मुख्य बिंदु हैं। अगर कोई इन चीजों में दखलंदाजी करता है तो वह न्याय-प्रक्रिया में दखलंदाजी मानी जाती है। यहाँ न्याय-प्रक्रिया का अर्थ ही स्वतंत्र और निष्पक्ष ट्रायल है।
अगर कोई आरोपी सम्माननीय है तो उसके सम्मान का क्या ? आप जानते हैं कि न्याय-सिद्धान्त है कि चाहे हजार दोषी छूट जायें पर एक निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए। यह भी सिद्धान्त है कि संदेह के आधार पर सज़ा हो। मीडिया के कारण न्यायाधीश सुपरविजन के प्रभाव में आ जाता है। अगर कोई विश्वसनीय सबूत न हो और वह केस खारिज कर देता है तो मानो फँस गया क्योंकि वह अपने मित्रों और साथियों की नजर में दोषी है। सुनने को मिलता है, ‘अरे, तुमने उसको छोड़ दिया !’ आप बिना विश्वसनीय, प्रामाणिक और उचित सबूतों के आधार पर किसी को दोषी तो नहीं ठहरा सकते, जो आपके सिद्धान्तों में है। जब तक लोगों की मान्यता नहीं बनी है तब तक वह न्यायाधीश किसी से नहीं डरता है। लेकिन मीडिया कई मामलों में पहले ही सही-गलत की राय बना चुका होता है। इससे न्यायाधीश पर दबाव बन जाता है कि एक व्यक्ति जो जनता की नजर में दोषी है, उसको अब दोषी ठहराने की जरूरत है। न्यायाधीश भी मानव है। वह भी इनसे प्रभावित होता है। (संकलकः श्री इन्द्र सिंह राजपूत)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 7, अंक 268
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