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Rishi Prasad 267 Mar 2015

ईश्वरप्राप्ति में बाधक और तारक ग्यारह बातें – पूज्य बापू जी


ईश्वरप्राप्ति में बाधक क्या है ? मान की चाह, अति भाषण, यश की लोलुपता, अधिक निद्रा, अधिक खान-पान, धन की लोलुपता – धन की माँग या दान की माँग। सातवी है कि अत्यन्त छोटी-छोटी बातों में, छोटे-छोटे लोगों में या छोटी-मोटी, हलकी पुस्तकों में उलझना और आठवीं बात है क्रोध और द्वेष। गुस्से-गुस्से में निर्णय लेना, ‘यह ऐसा है, वह ऐसा है….’ अपने अंदर गंदगी नहीं होगी तो दूसरे की गंदगी का महत्तव नहीं लगेगा। नौवीं है कामासक्ति। कामासक्ति भी आदमी को बेईमान और ईश्वर से दूर कर देती है। दसवीं है आलस्य और ग्यारहवीं है शौकीनी। ये ग्यारह बातें नाश का साधन हैं। इनसे बचें और हितकारी ग्यारह बातें अपने जीवन में लायें। गंदी आदत और गंदे स्वभाव का त्याग करें।
हितकारी ग्यारह बातें हैं – सत्संग में रुचि, दया, सबसे मैत्री, नम्रताभरा और शास्त्रोचित व्यवहार, व्रत-नियम, तपस्या, पवित्रता और सहनशीलता। सहनशीलता की कमीवाला भगेड़ू होता है। दसवीं बात है मितभाषण और ग्यारहवीं है स्वाध्यायशीलता।
एक दिन भी मेरे गुरुदेव स्वाध्याय के बिना नहीं रहे 93 साल की उम्र तक ! जब महाप्रयाण कर रहे थे उस समय भी सत्संग की बात सुनायी कि “शरीर में पीड़ा हो रही है, इसका प्रारब्ध है। मैं इस पीड़ा का साक्षी चैतन्य आत्मा हूँ।”
स्वाध्यायान्मा प्रमदः। तैत्तिरीयोपनषिद् 1.11
सत्संग व सत्शास्त्र का विचार करने में आलस्य नहीं करो, लापरवाही न करो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 19 अंक 267
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Rishi Prasad 267 Mar 2015

आरोग्य व सुख-समृद्धि प्रदायिनी गौमाता – पूज्य बापू जी


सूर्यकिरण हजार प्रकार के हैं। उनमें तीन विभाग हैं – एक तापकर्ता (ज्योति), दूसरे पोषक (आयु) और तीसरे गो किरण। तापकर्ता और पोषक किरण तो हम झेलते हैं लेकिन गो किरण कोई प्राणी नहीं झेल सकता है। सूर्यकेतु नाड़ी जिस प्राणी में है, वही गो किरण पर्याप्त मात्रा में झेल सकता है और सूर्यकेतु नाड़ी देशी गाय में है। वह गो किरण पीती है इसलिए उसका नाम ‘गौ’ है। अभी विज्ञानी चकित हो गये कि देशी गाय के दूध में, घी में, मूत्र में और गोबर में सुवर्णक्षार पाये गये। मैं खुली चुनौती देता हैं कि दुनिया का ऐसा कोई देश हो या ऐसा कोई व्यक्ति हो जो मुझे सच्चाई से कह दे कि ‘फलाने व्यक्ति का, फलाने जीव का मल और मूत्र पवित्र माना जाता है।’ नहीं बोल सकता है। केवल हिन्दुस्तान की देशी गाय का मल और मूत्र पवित्र माना जाता है। मरते समय भी गौमूत्र व गोबर से लीपन करके मृतक व्यक्ति को सुलाया जाता है। और खास बात, कोई मर गया हो या मरने की तैयारी में हो तो वहाँ गोझरण छिड़क दो अथवा गोबर व गोमूत्र से लीपन कर दो, उसकी दुर्गति नहीं होगी।
गौ सेवा से बढ़ती है आभा व रोगप्रतिकारक शक्ति
देशी गाय के शरीर से जो आभा (ओरा) निकलती है, उसके प्रभाव से गाय की प्रदक्षिणा करने वाले की आभा में बहुत वृद्धि होती है। आम आदमी की आभा 3 फीट की होती है, जो ध्यान भजन करता है उसकी आभा और बढ़ती है। साथ ही गाय की प्रदक्षिणा करे तो आभा और सात्त्विक होगी। डॉक्टरों, वैद्यों, हकीमों ने कहा हो कि ‘यह आदमी बच नहीं सकता है, यह रोग असाध्य है।’ तो देशी गाय को पालो और अपने हाथ से उसको खिलाओ, थोड़ा प्रसन्न करो और उसकी पीठ पर हाथ घुमाओ। उसकी प्रसन्नता के स्पंदन आपकी उँगलियों के अग्रभाग से शरीर में आयेंगे और आपकी रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ेगी। 6 से 12 महीने लगेंगे लेकिन आप चंगे (स्वस्थ) हो जाओगे। गाय पालने के और भी बहुत सारे फायदे है। श्रीकृष्ण गाय चराने जाते थे, राजा दिलीप गाय चराने जाते थे, मेरे गुरुदेव गौशालाएँ चलवाते थे और अपने यहाँ कत्लखाने ले जायी जा रही गायों को रोक-रोक के निवाई (राज.) में 5 हजार गायें रखी गयीं थी। अभी वहाँ चारा बहुत महँगा मिलता है तो अलग-अलग जगह पर गौशालाएँ खोल दी हैं और वहाँ सेवा होती रहती है।
आप भी फायदे में, गाय भी बनेगी स्वनिर्भर
भैंस का दूध मिले 25 रूपये लीटर और देशी गाय का दूघ मिले 27 रूपये का तो गाय का ही लेना चाहिए क्योंकि यह बहुत सात्त्विक एवं मेधाशक्तिवर्धक है। गाय के गोबर से धूपबत्तियाँ और कई चीजें बनती हैं, उसके साथ-साथ फिनाईल बनता है। रसायनों से बना फिनायल जीवाणुओं को तो नष्ट करता है लेकिन हवामान भी गंदा करता है। इससे ऋणात्मक आभा बनती है। लेकिन गोझरण से बने हुए फिनायल से घर में सात्त्विक आभा पैदा होगी और गायों की सेवा भी होगी, साथ ही यह गाय को स्वनिर्भर कर देगा। एक गाय से 6 से 7 लीटर गोमूत्र रोज मिलता है और गोमूत्र इकट्ठा करने वाले मजदूरों को रोजी मिलेगी। अतः सभी लोग गोझरण वाले फिनायल की माँग करो। तो यह सब दिखती है गाय की सेवा लेकिन इसके द्वारा आप अपनी ही सेवा कर रहे हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 14 अंक 267
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Rishi Prasad 267 Mar 2015

आप भी यह कला सीख लो – पूज्य बापू जी


श्री हनुमान जयंती

हनुमानजी के पास अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ थीं लेकिन हनुमान जी को तड़प थी पूर्णता की, परमेश्वर-तत्त्व के साक्षात्कार की। जो सृष्टि के आदि में था, अभी हैं और महाप्रलय के बाद में भी रहेगा, उस परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए हनुमान जी राम की सेवा में लग गये… बिनशर्ती शरणागति ! हनुमानजी साधारण नहीं थे, बालब्रह्मचारी थे। राम जी और लखनजी को कंधे पर उठाकर उड़ान भरते थे। रूप बदलकर राम जी की परीक्षा ले रहे थे और ‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।’ ऐसे कर्मनिष्ठ भी थे। हनुमानजी निःस्वार्थ कर्मयोगी भी थे, भक्त भी थे, ज्ञानिनामग्रगण्यम्….. ज्ञानियों में अग्रगण्य माने जाते थे लेकिन उऩ्होंने भी इस तत्त्वज्ञान को पाने के लिए रामजी की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार की।
हनुमानजी के जीवन में मैनाक-सुवर्ण के पर्वत का लोभ नहीं, संग्रह नहीं और त्याग का अहंकार नहीं है। जो सुवर्ण के पर्वत को त्याग सकता है, वही सोने की लंका से सकुशल बाहर भी आ सकता है।
हनुमान जी की शीघ्र प्रसन्नता के लिए
ऐसे हनुमानजी शीघ्र प्रसन्न हो इसके लिए आप उऩकी बाह्य आकृति की वांछा (इच्छा) छोड़कर वे जिस अंतर्यामी राम में शांत होते थे, विश्रांति पाते थे, उस अपने आत्मदेव में विश्रांति पाने की कला सीख लो। सूर्यदेव को प्रसन्न करना हो तो भी, देवी-देवताओं को प्रसन्न करना है तो भी और आपको देखकर लोग प्रसन्न हो जायें ऐसा चाहते हों तो भी यही कुंजी है, ‘गुरुचाबी’ है जो सारे ताले खोल देती है। रात को सोते समय अपने आत्मा में विश्रान्ति पाओ, सुबह उठते समय अपने आत्मदेव में….. और बाहर व्यवहार करते-कराते भी आत्मविश्रांति….. ॐ आनन्द….. ॐ शांति…. ॐॐ
ऊठत बैठत आई उटाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने।
सूझबूझ उधर बनी रहे, महत्त्व उसका बना रहे।
अपने भक्त को बतायी थी यह साधना
गुजरात के जूनागढ़ निकटवर्ती धंधुसर गाँव में एक संत रहते थे। उनका नाम था उगमशी। उनको हनुमान जी के प्रति आस्था थी। हनुमानजी का ध्यानादि धरते थे। उस आस्था ने हनुमानजी को प्रकट कर दिया।
हनुमानजी पधारे तो उगमशी महाराज ने उनकी स्तुति की और कहाः “आप ही मेरे गुरुजी है….” तो हनुमानजी ने उनको मंत्र दिया। मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य होता है कि हनुमानजी रामभक्त हैं।
‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।’ हमने सुना है कि हनुमानजी ‘राम-राम’ जपते हैं लेकिन हनुमान जी ने उगमशी को यह ‘सोऽहम्’ की साधना बतायी। वे ऊँचे पात्र रहे होंगे। हनुमानजी ने कहा कि “श्वास अंदर जाय तो ‘सोऽ’ और बाहर आये तो ‘हम्’।” हालाँकि यह हनुमानजी ने बतायी इसलिए साधना महत्त्वपूर्ण है – ऐसा नहीं, यह साधना तो अनादिकाल की है। यह तो बड़े-बड़े योगी लोग जानते हैं, करते हैं। लेकिन हनुमानजी जैसे रामभक्त भी अपने प्रिय भक्त को ‘सोऽहम्’ की साधना बताते हैं तो मुझे लगा कि आशारामभी यह साधना जानते हैं तो अब अपने भक्तों को बताने में देर क्या करना ?
‘सोऽहम्’ की साधना से वे उगमशी बड़े उच्च कोटि के संत हो गये, तो मैं भी चाहता हूँ कि मेरे साधक भी उच्च कोटि के हो जायें, श्वासोच्छ्वास में इस साधना का आरम्भ कर दो आज से। इस साधना के प्रभाव से संत उगमशी ने अपने आत्मवैभव को पाया। उनकी वाणी हैः
सोऽहम् मंत्र दियो सदगुरु ने, मेरे सदगुरु पवनकुमार।
कहे उगमशी जति परतापे, ये भवसागर तारणहार।।
जपो मन अजपा समरणसार (सुमिरनसार)…….
उगमशी कहते हैं कि उनको ‘सोऽहम्’ मंत्र सदगुरु पवनकुमार अर्थात् हनुमान जी ने दिया। जति परतापे…. वे जति अर्थात् ब्रह्मचारी हैं। ये भवसागर तारणहार अर्थात् जन्म मरण से मुक्त करने वाली साधना है, आम आदमी के लिए नहीं है।
तुम्हारे जीवन में जो बदल रहा है, उसमें विशेषता प्रकृति की है। जैसे मन, बुद्धि, अहंकार, पंचभौतिक शरीर बदलता है तो ये प्रकृति के हैं लेकिन जो अबदल है, वह परमात्मा है। मन बदला, बुद्धि बदली, शरीर बदला… उन सबको तुम जान रहे हो। तो जो जान रहा है वह मेरा आत्मा-परमात्मा है। श्वास अंदर जाय तो ‘सोऽ’ बाहर आये तो ‘हम्’। बहुत ऊँची, जल्दी ईश्वरप्राप्ति कराने वाली साधना है। हनुमान जयंती पर इन बातों को ध्यान में रखना।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 267
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