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सफलता पाने की सरल कुंजी – पूज्य बापू जी


कोई भी काम प्रारम्भ करो तो 12 बार ॐकार का जप कर लो। यह सारे मंत्रों का, सब सिद्धियों का सारी सफलताओं का प्राण है और सारी शक्तियों का दाता है। सबकी जिगरी जान, अधिष्ठान, आधार ॐकार है इसलिए इसको ‘प्रणव’ भी कहते हैं। महर्षि पतंजलि प्रणीत ‘योगदर्शन’ (समाधिपाद, सूत्रः 27-28) में कहा गया है-
तस्य वाचकः प्रणवः।। तज्जपस्तदर्थभावनम्।।
‘ईश्वर का वाचक (नाम) प्रणव (ॐकार) है। उस ॐकार का जप, उसके अर्थस्वरूप परमेश्वर का पुनः-पुनः स्मरण-चिंतन करना चाहिए (यह ईश्वर-प्रणिधान अर्थात् ईश्वर-उपासना है)।’
उपनिषदों में इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा है। कोई भी मांगलिक कार्य करना हो, मृत्यु होती है उस समय भी जो मांगलिक कार्य किये जाते हैं, जन्म के समय, दीक्षा के समय, ध्यान के समय – सभी में ॐकार का जप किया जाता है।
ॐकार मूल अक्षर है। इसकी चेतना सारी सृष्टि में व्याप्त है। इसमें ‘अ’ कार, ‘उ’ कार, ‘म’ कार और अर्धमात्रा ‘ँ’ है।
सुबह उठकर ॐकार का थोड़ा जप करके ध्यान करोगे तो (ईश्वरप्राप्ति की) यात्रा जल्दी हो जायेगी। रात को सोते समय ॐकार का थोड़ा ध्यान व ज करके फिर सो गये। दिन में चलते-फिरते थोड़ा जप किया तो लौकिक सफलता और सिद्धियाँ भी मिलती हैं। प्रणव (ॐ) का जप परमात्मप्राप्ति में बहुत मदद करता है। संत कबीर जी कहते हैं-
कबीरा इह जग आयके बहुत से कीन्हे मीत।
जिन दिल बाँधा एक से वे सोये निश्चिंत।।
संसार की दीवाली मनाने वाले लोगो ! तुमने संसार में आकर बहुत सारे मित्र किये लेकिन परम मित्र से जब तक नहीं मिले, तब तक तुम्हारे जीवन में परम निश्चिंतता नहीं आयेगी। कोई बड़ा मित्र मिल गया तो आपको लगेगा कि कोई मुसीबत आयेगी तो इसकी सहायता लेंगे अथवा फलाने उद्योगपति की, मंत्री की सहायता ले लेंगे। लेकिन भीतर का मित्र एक बार मिल जाय तो फिर अलग-अलग मित्रों की, उद्योगपतियों की या मंत्रियों की अथवा अधिकारियों की गुलामी या कृपा की जरूरत न रहेगी क्योंकि वह परब्रह्म-परमात्मा परम अधिकारी, परम उद्योगपति है। मरते समय बाहर के उद्योगपति न छुड़ायेंगे लेकिन उस अंतर्यामी परमात्मा से यदि एक बार मैत्री हो गयी और मरते समय भी उसका चिंतन हो जाय तो बस, ऐसी जगह पर पहुँच जाते हो कि जहाँ फिर पुनर्जन्म, मृत्यु, जरा-व्याधि नहीं होती।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 17, अंक 275
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आप किसको महत्त्व देते हैं ? – पूज्य बापू जी


वे लोग झगड़ते रहते हैं, अशांत रहते हैं जो सुख को महत्त्व देते हैं, सेवा को महत्त्व नहीं देते हैं, प्रभुप्रेम को, जप-तप को, अंतरात्मा के रस को महत्त्व नहीं देते हैं। जो बाहर से सुखी होना चाहते हैं, वे बाहर भी परेशान, अंदर भी परेशान !
सेवा के बिना कोई भौतिक उन्नति टिक नहीं सकती तथा वास्तविक विकास नहीं होता और प्रभु प्रेम के बिना वास्तविक रस नहीं मिलता। दुःखी (दरिद्र) आदमी में त्याग का बल जब त नहीं आयेगा, तब तक उसका दुःख नहीं मिटेगा और सुखी आदमी में सेवा का बल जब तक नहीं आयेगा, तब तक उसका सुख आनंद में नहीं बदलेगा, सुख स्थिर नहीं होगा। जो दूसरे को दुःखी करके सुखी होना चाहता है, उसको बड़े भारी दुःख में कुदरत घसीट लेती है। यह ब्रह्माजी भी करें तो भी… चक्रवर्ती राजा करे या कोई भी करे।
जो अपने सुख के लिए किसी को तकलीफ में डाल देते हैं वे खबरदार ! जब तकलीफ में डाल देते हैं वे खबरदार ! जब तकलीफ आये तब मत रोना। अभी किसी को तकलीफ में डालकर सुखी होना चाहते हो तो अभी रोओ कि ‘मैं बड़े भारी दुःख को बुला रहा हूँ।’ चाहे पत्नी को, पति को, पड़ोसी को, नौकर को – किसी को भी आप तकलीफ में डालकर सुखी होना चाहते हैं, उसी समय सिर पीटो कि ‘मैं बड़े भारी दुःख में, खाई में गिरने का रास्ता बना रहा हूँ।’ अगर आप अपने को कष्ट देकर भी किसी का दुःख मिटा रहे तो नाचो कि ‘मेरा भविष्य उज्जवल है। दुःखहारी भगवान की कृपा है, मुझे सेवा मिल गयी !’ स्वयं सेवक जो लगते हैं सेवा में – ऋषि प्रसाद के, लोक कल्याण सेतु के, आश्रम के सेवाधारी, उनको मैं तो शाबाशी भी नहीं दे पाता हूँ, कितने सारे सेवाधारियों को दूँगा ! लेकिन जो ईमानदारी से सेवा करते हैं, उनमें गुरु-तत्त्व का बल, बुद्धि, प्रसन्नता आ जाती है। सेवा में सफल होते हैं तो उसकी खुशी, धन्यवाद अंतरात्मारूप से गुरु जी दे देते हैं।
जो कष्ट सहकर दूसरे का दुःख मिटाता है, भगवान के रास्ते आता है, धर्म में अडिग रहता है, उसको उसी समय खुशी मनानी चाहिए कि ‘भगवान उज्ज्वल भविष्य की तरफ ले जा रहे हैं।’
ॐऽऽऽऽऽ….. ऐसा गुंजन करके हलके संकल्प काटना, कीर्तन से ऊँचे संकल्प उभारना फिर ऊँचे संकल्प में दृढ़ होना और आखिरी है ईश्वरप्राप्ति। ऊँचे संकल्प में शांत हो जाना बस, ईश्वरप्राप्ति हो जायेगी, सामर्थ्य की प्राप्ति हो जायेगी। दुष्ट संकल्पों को काटना, ऊँचे संकल्पों को स्वीकारना, फिर उनको दृढ़ करना, फिर निःसंकल्प….! इससे सामर्थ्य की प्राप्ति होगी। जैसे सेवा से सूझबूझ बढ़ती है, पुण्य बढ़ता है और सफलता कदम-कदम पर आती है, वैसे ही स्वार्थ से सूझबूझ मारी जाती है और सफलता दूर भागती है। जितना स्वार्थी आदमी होगा उतना उससे ज्यादा बात करने की रूचि नहीं होगी। बच्चा निःस्वार्थी है तो प्यारा लगता है, संत निःस्वार्थी हैं तो प्यारे लगते हैं, भक्त निःस्वार्थी हैं तो प्यारे लगते हैं और स्वार्थी लोगों को तो देखकर जान छुड़ाने की रूचि होती है। अतः जीवन में निःस्वार्थ सेवा, निःस्वार्थ भगवान के नाम का जप ले आओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 13, अंक 275
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हर बच्चा बन सकता है महान


(श्री रंग अवधूत महाराज जयंतीः 20 नवम्बर 2015)
कहते हैं-
होनहार विरवान के होत चिकने पात।
होनहार बालक की कुशलता, तेजस्विता एवं स्वर्णिम भविष्य के लक्षण बचपन से ही दिखने लगते हैं। पांडुरंग नाम का बालक 9 महीने की अल्प आयु में ही सुस्पष्ट और शुद्ध उच्चारण से बातचीत करने लगा। डेढ़ वर्ष की उम्र में तो वह बालक अपने पिता जी के साथ गूढ़ प्रश्नोत्तरी करके अपने और पिता जी के ज्ञान-भंडार को टटोलने लगा।
एक बार अरथी ले जाते लोगों और उसके पीछे रोती-बिलखती स्त्रियों को देख बालक पांडुरंग ने पिता जी से पूछाः “ये सब क्यों रोते हैं ? और ये लोग किसी को इस तरह क्यों ले जाते हैं ?”
पिताः “बेटा ! आदमी मर गया है और उसको जलाने के लिए ले जा रहे हैं। इसलिए उसके संबंधी रो रहे हैं।”
“तो क्या आप भी मर जायेंगे ? मेरी माता भी मर जायेगी क्या ?”
पिता ने बात टालते हुए कहाः “हाँ।”
“आपको भी जला देंगे क्या ?”
“हाँ।” पिता ने संक्षिप्त जवाब और अन्य प्रकार से प्रश्नों को रोकने के प्रयास किये मगर बालक की विचारधारा इन उपायों से रुकी नहीं। उसे तो समाधानकारक उत्तर चाहिए था। दूसरे दिन जब वैसी ही यात्रा की पुनरावृत्ति हुई तो बालक ने फिर शुरु कियाः “पिता जी ! उसको जला क्यों देते हैं ? उसको जलन नहीं होगी क्या ?”
“मर जाने के बाद जलन नहीं होती और दुर्गंध न हो इसलिए उसको जला देते हैं।”
बालक ने और भी ज्यादा गूढ़ प्रश्न पूछाः “मगर वह मर गया माने क्या ?”
“किसी का शरीर जब चलना-फिरना बंद हो जाय, जब वह किसी काम का न रह जाय और जब उसमें से जीव चला जाय, तब ‘वह मर गया’ ऐसा कहा जाता है।”
“वह जीव कहाँ जाता है पिता जी ?”
“अवकाश में कहीं इधर-उधर घूम के फिर से जन्म लेता है।”
“वह जन्म लेता है, मर जाता है, फिर जन्म लेता और फिर मर जाता है…. ऐसा चक्र चलता ही रहता है क्या ?”
“हाँ।”
बालक के पिता अब परेशान होने लगे थे। परंतु उसकी जिज्ञासा रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसने फिर पूछाः “इन सब झंझटों से दूर होने का कुछ उपाय नहीं क्या ? जिससे जन्म मरण छूट जाय ऐसी तरकीब नहीं क्या ?”
पिता ने भी इन सबसे छूटने के लिए उत्तर दियाः “है, क्यों नहीं ! राम का नाम लेने से इन सब मुसीबतों से हम पार हो जाते हैं। भगवन्नाम जपने से जन्म-मरण का चक्र छूट जाता है।”
बालक ने इस बात की गाँठ बाँध ली। उसके अंतर-बाह्य सभी अंग पुलकित हो उठे। उसको आज भव-भयनाशक भगवन्नाम मिल गया था। उसको मानो वह कुंजी मिल गयी जिससे अंतर के सभी द्वार खुलने लगते हैं। जिस बालक के मन में डेढ़ वर्ष की उम्र से ही इस प्रकार के गूढ़ आध्यात्मिक प्रश्न उठे हों, ऐसी सत्य की जिज्ञासा जगी हो, वह आगे चलकर महानता के चरम को छू ले, इसमें क्या आश्चर्य ! और हुआ भी ऐसा ही। यही पांडुरंग सदगुरु वासुदेवानंद सरस्वती की कृपा से आत्मज्ञान पाकर संत रंग अवधूत महाराज के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। स्वयं तो भवसागर से पार हुए, और के भी पथप्रदर्शक बने।
बचपन की निर्दोष जिज्ञासा को यदि भारतीय संस्कृति के शास्त्रों का ज्ञान, सुसंस्कारों की सही दिशा मिल जाय तो सभी ऐसे महान बन सकते हैं क्योंकि मनुष्य-जन्म मिला ही ईश्वरप्राप्ति के लिए है। सभी में परमात्मा का अपार सामर्थ्य छुपा हुआ है। धन्य है वे माता-पिता, जो अपने बालकों को संस्कार सिंचन के लिए ब्रह्मज्ञानी संतों के सत्संग में ले जाते हैं, बाल संस्कार केन्द्र में भेजते हैं, भगवान के नाम की महिमा बताते हैं ! वास्तव में वे उन्हें सच्ची विरासत देते हैं, सच्ची वसीयत देते हैं। ये ही सुसंस्कार उनके जीवन की पूँजी बन जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 275
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