एक कोई गृहस्थ वेदांती थे। उन्हें ‘संत’ कह देंगे क्योंकि उनके मन की वासनाएँ शाँत हो गयी थीं अथवा ‘चाचा’ भी कह दो। वे चाचा सब्जी लेने गये थे। पीछे से कोई जिज्ञासु एक प्रश्न पूछने उनके घर पहुँचा। ‘ज्ञानी और अज्ञानी में क्या फर्क होता है ?’ – यह पूछना था उसको। वह जिज्ञासु पलंग पर टाँग-पर-टाँग चढ़ाकर सेठ हो के बैठा था।
जब वे चाचा घर आये तो उनसे पूछता हैः “टोपनदास ! आप मुझे बताओ कि ईश्वर में और जीव में क्या फर्क है ? ज्ञानी में और अज्ञानी में क्या फासला है ? ब्रह्मवेत्ता और जगत वेत्ता में क्या फासला है ?”
उस ज्ञानी ने सीधा जवाब न देते हुए देखा कि यह भाषा ऐसी बोलता है कि बड़ा विद्वान है ! अब इससे विद्वता से काम नहीं चलेगा, प्रयोग करके दिखाने में काम चलेगा।’ उन्होंने सीधा जवाब न देते हुए अपने नौकर को खूब डाँटा। महाराज…. जब नौकर को डाँटा तो उसकी पैंट गीली हो गयी। जीव का स्वभाव होता है भय। जो पलंग पर बैठा था न, वह आदमी उतरकर नीचे हाथ जोड़ के बैठ गया और सिकुड़ गया। टोपनदास सिंहासन पर बैठ के बोलते हैं- “(अपनी और इशारा करके) इसका नाम है ‘ब्रह्म’ और (उस आदमी की ओर इशारा करते हुए) उसका नाम है ‘जीव’। इसका नाम है ‘शिव’ और उसका नाम है ‘जीव’।”
उस आदमी ने घबराकर पूछाः ”यह कैसे ? जैसे आपके हाथ पैर हैं, ऐसे हमारे हैं…”
बोलेः “यह ठीक है लेकिन परिस्थितियों से जो भयभीत हो जाय वह जीव है और परिस्थितियों में जो अडिग रहे उसका नाम शिव है।”
धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति।।
‘स्थितप्रज्ञ (धीर पुरुष) न संसार के प्रति द्वेष करता है और न आत्मा को देखने की इच्छा करता है। हर्ष और शोक से मुक्त वह न तो मृत है, न जीवित।’ (अष्टावक्र गीताः 18.83)
तुम्हारे मारने से वह मरता नहीं और तुम्हारे जिलाने से वह जीता नहीं, तुम्हारी प्रशंसा करने से वह बढ़ता नहीं और तुम्हारे द्वारा निंदा से वह उतरता नहीं। उसका नाम है ‘ब्रह्मवेत्ता।’
न दिल में द्वेष धारे थो, न कंहिं सां रीस आ उन जी.
( न दिल में द्वेष धरते हैं, न किसी से बराबरी करते हैं)
न कंहिं दुनिया जी हालत जी,
करे फरियाद थो ज्ञानी.
( न किसी दुनिया की हालत की फरियाद करते हैं।)
छो गूंगो आहे ? न न. बोड़ो आहे ? न.
चरियो आहे ? ज़रा बि न. पोइ छो ?
(क्यों गूँगे हैं ? ना। बहरे हैं ? ना। पागल हैं ? ज़रा भी नहीं। फिर क्यों ?)
बहारी बाग़ जे वांगुर रहे दिलशाद थो ज्ञानी.
रही लोदनि में लोदनी खां रहे आज़ाद थो ज्ञानी.
(बहारों के बाग़ की तरह ज्ञानी दिलशाद रहते हैं, झंझावात में रहते हुए भी उनसे आजाद रहते हैं अर्थात् उतार-चढ़ाव में दोलायमान नहीं होते।)
झूलों में रहते हुए, संसार के आघात और प्रत्याघातों में रहते हुए भी उनके चित्त में कभी भी क्षोभ नहीं होता क्योंकि वे समझते हैं-
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।
‘इस जगत में जो कुछ मन से सोचा, वाणी से कहा, आँखों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान है, सपने की तरह मन का विलास है। इसलिए मायामात्र है, मिथ्या है, ऐसा समझ लो।’
(श्रीमद्भागवतः 11.7.7)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 11, अंक 273
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इनका ऋण नहीं चुका सकते – पूज्य बापू जी
एक ऐसी चीज है जिसका जितना उपकार मानें उतना कम है। वह बड़े-में-बड़ी चीज है दुःख, विघ्न और बाधा। इनका बड़ा उपकार है। हम इन विघ्न-बाधाओं का ऋण नहीं चुका सकते। भगवान की और दुःख की बड़ी कृपा है। माँ बाप की कृपा है तो माँ-बाप का हम श्राद्ध करते हैं, तर्पण करते हैं लेकिन इस बेचारे दुःख देवता का तो हम श्राद्ध भी नहीं करते, तर्पण भी नहीं करते क्योंकि यह बेचारा आता है, मर जाता है, रहता नहीं है। माँ-बाप का तो आत्मा मरने के बाद भी रहता है। यह बेचारा मरता है तो फिर रहता ही नहीं। इसका तो श्राद्ध भी नहीं करते।
ये दुःख आ-आकर मिटते हैं बेचारे ! हमें सीख दे जाते हैं, संयम दे जाते हैं। दुःख, विघ्न, बाधाएँ हमारा इतना भला करते हैं, जितना माँ-बाप भी नहीं कर सकते। जो लोग दुःखों से डरते हैं, वे जीना नहीं जानते। दुःख डराने के लिए नहीं आते हैं, आपके विकास के लिए आते हैं और सुख विकारी बनाने के लिए नहीं आते, आपको उदार बनाने के लिए आते हैं।
ऐसा कोई महापुरुष या प्रसिद्ध व्यक्ति दिखा दो, जिसके जीवन में दुःख या विघ्न-बाधा न आये हों और महान बन गया हो। इनका तो बहुत उपकार मानना चाहिए लेकिन हम क्या करते हैं, विघ्न-बाधाओं को ही कोसते हैं। जो हमारे हितैषी हैं उनको कोसते हैं इसलिए हम कोसे जाते हैं। क्रांतिकारी वचन हैं, बात माननी पड़ेगी।
दुःख का उपकार मानना चाहिए क्योंकि यह नई सूझबूझ देता है। मौत आयी तो नया चोला देगी। हम क्या करते हैं, दुःख से भी डरते हैं, मौत से भी डरते हैं तो दुःख और मौत बरकरार रहते हैं। अगर हम इनका उपयोग करें तो दुःख और मौत सदा के लिए भाग जायेंगे। मेरे पास कई दुःख भेजे जाते हैं, कई आते हैं लेकिन टिकते ही नहीं बेचारे। जो दुःख और मौत से प्रभावित होते हैं उनके पास ये बार-बार आते हैं। सुख का सदुपयोग करें तो सुख भाग जायेगा और परमानंद प्रकट हो जायेगा। जिसके ऊपर लाख-लाख सुख न्योछावर कर दें ऐसा आत्मा-परमात्मा का आनंद प्रकट होगा। जो सुख का लालच करता है वह दुःख को बुलाता है और जो दुःख से डरता है वह दुःख को स्थायी करता है। दुःख से डरो नहीं, सुख का लालच न करो। सुख और दुःख का उपयोग करने वाले हो जाओ तो आपको परमात्मप्राप्ति सुलभ हो जायेगी।
सुख भी एक पायदान है, दुःख भी पायदान है, वे तो पसार होते हैं। हवाई अड्डे पर जो सीढ़ियाँ होती हैं वे अपने-आप चलती हैं, उन पर आप भी चलो और सीढ़ियाँ भी चलें तो आपको जल्दी पहुँचा देती हैं। ऐसे ही ये सुख-दुःख आकर आपको यात्रा कराते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं-
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।
‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’ (गीताः 6.32)
सुखद अवस्था आये तो चिपके नहीं। आयी है तो चली जायेगी। दुःखद अवस्था आयी है, उसे सच्चा न मानें, सावधानीपूर्वक उसका फायदा लें।
सुख बाँटने की चीज है। मान और सुख को भोगने की चीज बना देती है बेवकूफी। मान का भोगी बनेगा तो अपमान उसे दुःख देगा। सुख का भोगी बनेगा तो दुःख बिना बुलाये आयेगा। सुख को भोगो मत, उपयोग करो। जो एक दूसरे के शरीर को भोगते हैं वे मित्र के रूप में एक दूसरे के गहरे शत्रु हैं।
हमको तो दुःख का आदर करना चाहिए। दुःख का उपकार मानना चाहिए। बचपन में जब माँ-बाप जबरदस्ती विद्यालय ले जाते हैं, तब बालक दुःखी होता है लेकिन वह दुःख नहीं सहे तो बाद में वह विद्वान भी नहीं हो सकता। ऐसा कोई मनुष्य धरती पर नहीं जिसका दुःख के बिना विकास हुआ हो। दुःख का तो खूब-खूब धन्यवाद करना चाहिए और यह दुःख दिखता दुःख है लेकिन अंदर से सावधानी, सुख और विवेक से भरा है।
मन की कल्पना है परेशानी
भगवान ने कितने अनुदान दिये, आ हा !… जरा सोचते हैं तो मन विश्रांति में चला जाता है। जरा सा कुछ होता है तो लोग बोलते हैं, ‘मैं तो दुःखी हूँ, मैं तो परेशान हूँ।’ वह मूर्ख है, निगुरा है, अभागा है। गुरु को मानते हुए भी गुरु का अपमान कर रहा है। तेरा गुरु है और तू बोलता है, ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ तो तू गुरु का अपमान करता है, मानवता का अपमान करता है। जो भी बोलता है, ‘मैं परेशान हूँ, मैं तो बहुत दुःखी हूँ’ समझ लेना उसके भाग्य का वह शत्रु है। यह अभागे लोग सोचते हैं, समझदार लोग ऐसा कभी नहीं सोचते हैं। जो ऐसा सोचता है उसका मन परेशानी बनाता रहेगा और परेशानी में गहरा उतरता जायेगा। जैसे हाथी दलदल में फँसता है और ज्यों ही निकलना चाहता है त्यों और गहरा उतरता जाता है। ऐसे ही दुःख या परेशानी आयी और ‘मैं दुःखी हूँ, परेशान हूँ’ ऐसा सोचा तो समझो दुःख और परेशानी की दलदल में गहरा जा रहा है। वह अभागा है जो अपने भाग्य को कोसता है। ‘मैं दुःखी नहीं, मैं परेशान नहीं हूँ। दुःखी है तो मन है, परेशानी है तो मन को है। वास्तव में मन की कल्पना है परेशानी।’ – ऐसा सोचो, यह तो विकास का मूल है, वाह प्रभु ! वाह !! मेरे दाता !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 25, अंक 273
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पूज्य बापू जी के सदगुरु साँईं श्री लीलाशाहजी द्वारा पूज्य श्री को लिखा हुआ पत्र
दिनांकः 10 मार्च, 1969
प्रिय, प्रिय आशाराम !
विश्वरूप परिवार में खुश-प्रसन्न हो। तुम्हारा पत्र मिला। समाचार जाना।
जब तक शरीर है तब तक सुख-दुःख, ठंडी-गर्मी, लाभ-हानि, मान-अपमान होते रहते हैं। सत्य वस्तु परमात्मा में जो संसार प्रतीत होता है वह आभास है। कठिनाइयाँ तो आती जाती रहती हैं।
अपने सत्संग-प्रवचन में अत्यधिक सदाचार और वैराग्य की बातें बताना। सांसारिक वस्तुएँ शरीर इत्यादि हकीकत में विचार-दृष्टि से देखें तो सुंदर नहीं हैं, आनंदमय नहीं हैं, प्रेम करने योग्य नहीं हैं वे सत्य भी नहीं हैं – ऐसा दृष्टांत देकर साबित करें। जैसे शरीर को देखें तो यह गन्दगी और दुःख का थैला है। नाक से रेंट, मुँह से लार, त्वचा से पसीना, गुदा से मल, शिश्नेन्द्रिय से मूत्र बहते रहते हैं। उसी प्रकार कान, आँख से भी गंदगी निकलती रहती है। वायु शरीर में जाते ही दूषित हो जाती है। अन्न-जल सब कफ-पित्त और दूसरी गंदगी में परिणत हो जाते हैं। बीमारी व बुढ़ापे में शरीर को देखें। उसी मृत शरीर को कोई कमरे में चार दिन रखकर बाहर निकाले तो कोई वहाँ खड़ा भी नहीं रह सकता। विचार करके देखने से शरीर की पोल खुल जायेगी। दूसरी वस्तुओं की भी ऐसी ही हालत समझनी चाहिए। आम कितना भी अच्छा हो, 3-4 हफ्ते उसे रखोगे तो सड़ जायेगा, बिगड़ जायेगा। इतनी बदबू आयेगी कि हाथ लगाने में भी घृणा होगी। इस प्रकार के विचार लोगों को अधिक बताना ताकि उनके दिमाग में पड़ी मोह की पर्तें खुल जायें।
नर्मदा तट जाकर 10-15 दिन रहकर आना। दो बार स्नान करना। अपने आत्मविचार में, वेदांत ग्रंथ के विचारों में निमग्न रहना। विशेष जब रू-बरू मुलाकात होगी तब बताएँगे।
बस, अब बंद करता हूँ। शिव !
हे भगवान ! सबको सदबुद्धि दो, शक्ति दो, निरोगता दो। सब अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें और सुखी रहें।
हरि ॐ शांति, शांति।
लीलाशाह
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 5, अंक 273
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