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असली टकसाल


 

गुरु जी मिलते हैं तो दो प्रकार के लाभ होते हैं- एक लघु लाभ और दूसरा गुरु लाभ। तंदुरुस्ती, यश, धन, आरोग्य – ये लघु लाभ हैं तथा भगवान की भक्ति, प्रीति, भगवान में शांति और ‘भगवान मेरे से दूर नहीं, मेरा आत्मा ही ब्रह्म है ‘ यह ज्ञान – ये गुरु लाभ हैं।

संत कबीर जी मथुरा की यात्रा के लिए निकले। बाँके बिहारी के मंदिर के पास कबीर जी को एक आदमी दिखा। कबीर जी ने उसको गौर से देखा। कबीर जी की आँखों में इतनी गहराई, कबीर जी की आत्मा में भगवान का इतना अनुभव कि वह आदमी उनको देखकर मानो ठगा-सा रह गया !

कबीर जी ने पूछाः ‘क्या नाम है तुम्हारा ? कहाँ से आये हो ?”
उसने कहाः “मेरा नाम धर्मदास है। मैं माधोगढ़, जिला रीवा (मध्य प्रदेश) का रहने वाला हूँ।”
“तुम इधर कैसे आये ?”
“मैं यहाँ भगवान के दर्शन करने आया हूँ।” कबीर जी ने पूछाः “कितनी बार आये हो यहाँ ?”
“हर साल आता हूँ।”
“क्या तुमको सचमुच भगवान के दर्शन हो गये ? तुमको भगवान नहीं मिले हैं, केवल मूर्ति मिली हैं। मेरा नाम कबीर है। कभी मौका मिले तो काशी आना।” ऐसा कह के कबीर जी तो चले गये।

कबीर जी की अनुभवयुक्त वाणी ने गैबी (विलक्षण) असर किया। धर्मदास गया तो था बाँके बिहारी जी के दर्शन करने लेकिन मंदिर में जाने अब मन नहीं कर रहा था, घर वापस लौट आया। लग गये कबीर जी के वचन ! अब घर में ठाकुर जी कीक पूजा करता तो देखता कि ‘अंतर्यामी ठाकुर जी के बिना ये बाहर के ठाकुर जी की पूजा भी तो नहीं होगी और बाहर के ठाकुर जी की पूजा करके शांत होना है अंतरात्मारूपी ठाकुर में। मुझे निर्दुःख नारायण के दर्शन करने हैं और वह सदगुरु की कृपा के बिना नहीं होते। वे दिन कब आयेंगे कि मैं सदगुरु कबीर जी के पास पहुँचूँगा ?’ दिन बीता, सप्ताह, एक महीना, 6 महीने बीत गये। एक दिन धर्मदास सब छोड़-छाड़कर कबीर जी के पास पहुँच गये काशी। कबीर जी के पास जाते ही

धरमदास हर्षित मन कीन्हा,
बहुर पुरुष मोहि दर्शन दीन्हा।

धर्मदास का मन हर्षित हो गया। जिनको मथुरा में देखा था, काशी में फिर उन्हीं पुरुष के दर्शन हो गये।

मन अपने तब कीन्ह विचारा, इनकर ज्ञान महा टकसारा।

यह कबीर जी का ज्ञान महा टकसाल है। यहाँ तो सत्य की अशरफियाँ ढलती हैं, आनंद की गिन्नियाँ बनती हैं। मैं कहाँ अपनी तिजोरी में कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर रहा था ! आपका जीवन और आपका दर्शन सच्चा सुखदायी है। ये संत अपने सत्संग से, दर्शन से सुख, शांति और आनंदरूपी गिन्नियाँ हृदय-तिजोरियों में भर देते हैं।

इतना कह मन कीन्ह विचारा,
तब कबीर उन ओर निहारा।

तब कबीर जी ने धर्मदास की ओर गहराई से देखा। ऐसा लगा मानो बिछुड़ा हुआ सत्शिष्य गुरु जी को मिला हो। हर्षित मन से कबीर जी ने कहाः आओ धर्मदास पगु धारो..… आओ धर्मदास ! अब काशी में पैर जमाओ। मेरे सामने बैठो। चिहुंक चिहुंक तुम काहे निहारो.… टुकुर –टुकुर क्या मेरे को देख रहे हो ? धर्मदास हम तुमको चीन्हा।…. धर्मदास हमने तुमको पहचान लिया। तुम सत्पात्र हो, सत्शिष्य हो इसलिए मैंने तुमको असली बात कह दी थी। बहुत दिन में दरसन दीन्हा। फिर भी तुमने बहुत दिन के बाद मेरे को दर्शन दिया, 6 महीने हो गये।

कबीर जी ने थोड़ी धर्मदास पर कृपादृष्टि डाली, सत्संग सुनाया। धर्मदास गदगद हो गये, धन्य-धन्य हो गये। सोचा कि ‘मैंने आज तक तो रूपये पैसों के नाम पर नश्वर चीजें इकट्ठी की हैं। मैं उन्हें खर्च करने के लिए जाऊँगा तो मेरे को समय देना पड़ेगा।’ व्यवस्थापकों को संदेशा भेज दियाः ‘जो भी मेरी माल-सम्पत्ति, खेत मकान हैं, गरीबों में बाँट दो। भंडारा कर दो, शुभ कार्यों में लगा दो। मैं फकीरी ले रहा हूँ। संत कबीर जी की टकसाल में मेरा प्रवेश हो गया है। ब्रह्मज्ञानी संत मिल गये हैं। हृदय में आत्मतीर्थ का साक्षात्कार करूँगा। इस सम्पत्ति को सँभालने या बाँटने का मेरे पास समय नहीं है।’

मुनीमों ने तो रीवा जिले में डंका बजा दिया कि जिनको भी जो आवश्यकता है ऐसे गरीब गुरबे और सात्त्विक लोग जो समाज की सेवा करते हैं आश्रम-मंदिरवाले, वे आकर ले जायें। जुटाने के लिए तो जीवनभर लगा दिया लेकिन छोड़ने के लिए मृत्यु का एक झटका काफी है अथवा छोड़ना है तो ‘भाई ! ले जाओ।’ बस, इतना ही बोलना है। कबीर जी के चरणों में धर्मदास लग गये तो लग गये और अपने आत्मा-परमात्मा के परम सुख को पाया।

धर्मदास सन् 1423 में जन्मे थे और करीब 120 वर्ष तक धरती पर रहे। कबीर जी का कृपा प्रसाद पाकर लोगों को महसूस करा दिया कि बाहर का धन कंकड़-पत्थर से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। यह राख बन जाने वाले शरीर के लिए है, बाहर का है। असली धन तो सत्संग है, भगवान का नाम है, भगवान की शांति-प्रीति है। असली धन तो परमात्म-प्रसाद है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 273
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गुणों व खनिजों का खजानाः चौलाई


हरी सब्जियों में उच्च स्थान प्राप्त करने वाली चौलाई एक श्रेष्ठ पथ्यकर तथा अनेक खनिजों का खजाना है। आयुर्वेद के ‘भावप्रकाश निघंटु’ के अनुसार यह हलकी, शीतल, रूक्ष, रूचिकारक, अग्निदीपक एवं मूत्र व मल को निकालने वाली तथा पित्त, कफ, रक्तविकार व विष को दूर करने वाली होती है।

चौलाई की मुख्य दो किस्में होती हैं – लाल और हरी। लाल चौलाई ज्यादा गुणकारी होती है।

चौलाई में कैल्शियम, फॉस्फोरस, लौह, विटामिन ‘ए’ व ‘सी’ प्रचुर मात्रा में होते हैं। गर्भिणी तथा स्तनपान कराने वाली माताओं को इसका सेवन अवश्य करनी चाहिए। इसमें रेशे होने के कारण यह आँतों में चिपके हुए मल को अलग करती है। पुराने कब्ज में लाभदायी है। चौलाई रक्त शुद्ध करने वाली, अरूचि को दूर कर पाचनशक्ति को बढ़ाने वाली, त्वचा के विकार व गर्मी के रोगों में बहुत गुणकारी है।

यह नेत्रों के लिए हितकारी, मातृदुग्धवर्धक एवं रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर आदि स्त्रीरोगों में लाभकारी है। चौलाई की सब्जी खून की कमी, शीतपित्त, रक्तपित्त, बवासीर, पुराना बुखार, संग्रहणी, गठिया, उच्च रक्तचाप, हृदयरोगों तथा बाल गिरने आदि बीमारियों में भी लाभदायक है।

चौलाई की भाजी को केवल उबालकर या घी का बघार दे के तैयार करें।

औषधीय प्रयोग

शरीर की गर्मी व जलनः चौलाई के 50 मि.ली. रस में मिश्री मिलाकर पीने से खुजली और गर्मी दूर होती है। हाथ पैर के तलवों व पेशाब की जलन में लाभ होता है।

रक्तपित्तः चौलाई का रस शहद के साथ सुबह-शाम पीने से रक्तपित्त में लाभ होता है तथा नाक, गुदा आदि स्थानों से निकलने वाला खून बंद हो जाता है।

नेत्ररोगः आँखों से कम दिखना, आँखें लाल हो जाना, जलन, रात्रि को न दिखना आदि तकलीफों में चौलाई का रस 50-60 मि.ली. प्रतिदिन दें अथवा चौलाई को सब्जी के रूप में उपयोग करें।

पित्त-विकृतिः पित्त-विकृति में चौलाई की सब्जी खाते रहने से बहुत लाभ होता है।

स्वास्थ्यप्रद सरल घरेलू नुस्खे

उष्णता व पित्त का शमन आदिः कच्चे नारियल की गिरी 2-3 टुकड़ों के साथ 1-2 बताशे कुछ दिनों तक रोज खाने से चेहरे एवं त्वचा का रंग निखरता है, उष्णता एवं पित्त का शमन होता है और बाल घने व लम्बे होते हैं।

शरीर का भीतरी दाहः भिगोयी हुई द्राक्ष और मिश्री प्रातःकाल खाने से लाभ होता है।

आँखों के आसपास का कालापनः 1-1 चम्मच मुलतानी मिट्टी, खीरे का रस और आलू का रस मिलाकर आँखों के पास लेप करें।

स्वप्नदोषः 10 ग्राम ग्वारपाठे का गूदा, 1 ग्राम काली मिर्च का चूर्ण व सेंधा नमक मिला के शुद्ध देशी घी के साथ सेवन करने से लाभ होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 31, अंक 285

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बालक तीर्थराम का अगाध सत्संग प्रेम


बालक तीर्थराम जब एक वर्ष के थे तभी उनकी माँ का देहान्त हो गया था। उनका पालन-पोषण उनकी बुआ ने किया था, जो एक धर्मपरायण महिला थीं। वे प्रतिदिन बालक को मंदिर ले जातीं। बालक के मन पर वहाँ के सात्त्विक वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। शंख-ध्वनि से तीर्थराम को इतना प्रेम था कि उसको सुनकर वह रोना भूल जाता और एकदम शांत हो जाता।

तीर्थराम के पिता कहते थे कि “जब राम (तीर्थराम) तीन वर्ष का था तब एक दिन संध्या के समय में उसे लेकर सत्संग में गया। उसके लिए सत्संग समझना एक प्रकार से असम्भव था परंतु वह अत्यंत शांत मुद्रा में बैठकर संत की ओर अपलक नेत्रों से देख रहा था। दूसरे दिन जब सत्संग प्रारम्भ हेतु शंख की ध्वनि हुई राम फूट-फूट के रोने लगा। घरवाले उसके रोने का कारण समझ नहीं सके। उसे चुप कराने के लिए मिठाइयाँ और खिलौने दिये परंतु उसने सारी वस्तुएँ फेंक दीं और उसका रोना चिल्लाना चालू ही रहा। अंत में उसे गोद मैं सत्संग स्थल की ओर चला। ज्यों-ज्यों उस स्थान की ओर बढ़ता, त्यों-त्यों वह शांत होता गया। ज्यों ही मैं रुकता, उसका रोना चीखना शुरु हो जाता। वहाँ पहुँचने पर वह अत्यधिक आह्लादित और शांत हो गया। इतना ही नहीं, वह टकटकी लगाकर संत की तरफ देखने लगा।”

उम्र के साथ तीर्थराम का सत्संग के प्रति प्रेम भी बढ़ता गया। चाल साल में तो वे अकेले ही सत्संग सुनने जाने लगे। एकांत से उन्हें खूब अनुराग था तथा वृत्ति बचपन से ही अंतर्मुखी थी। वे प्रायः एकांत में चिंतन में मग्न रहने लगे।

6 वर्ष की उम्र में उन्हें प्रारम्भिक पाठशाला में भर्ती कराया गया। तीर्थराम को स्वाध्याय के प्रति असीम अनुराग था। प्रातःकाल का समय वे अध्ययन, चिंतन, ध्यान में व्यतीत करते। विद्यार्थी जीवन में भी उनका सत्संग के प्रति अनुराग बना रहा। पाठशाला के पास की धर्मशाला में प्रतिदिन दो बजे सत्संग होता था। एक बार उन्होंने अपने अध्यापक से सत्संग में जाने की अनुमति माँगी परंतु उन्होंने इन्कार कर दिया। इससे तीर्थराम की आँखों में आँसू आ गये। उन्होंने करूण भाव से प्रार्थना कीः “साहब ! मुझे सत्संग में जाने दीजिए। मैं एक घंटे वाले अवकाश में पाठशाला का सारा काम पूरा कर लूँगा।” उनकी इस निष्ठा से अध्यापक महोदय भी पिघल गये और उन्हें सहर्ष आज्ञा दे दी। बचपन के आध्यात्मिक संस्कारों तथा सत्संग-प्रेम ने बालक तीर्थराम को आगे चलकर ब्रह्मानुभूति की यात्रा करने में सहायता की और वे स्वामी रामतीर्थ के नाम से विश्वविख्यात हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 25, अंक 285

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