Monthly Archives: September 2016

विकसित जीवन जीने की पद्धति देती गुरुकुल की शिक्षा


गुरुकुल परम्परा से पढ़ाई हो यह देश का सौभाग्य होगा

जन्म से 7 साल तक मूलाधार केन्द्र जो शरीर की नींव है, वह विकसित होता है। 7 से 14 साल की उम्र तक स्वाधिष्ठान केन्द्र विकसित होता है तथा 14 से 21 साल तक मणिपुर केन्द्र का विकास होता है, यह बुद्धि को विकसित करने के लिए स्वर्णकाल है। यह भावनाओं को दिव्य व सफल बनाने के लिए सटीक समय है।

गुरुकुल शिक्षा पद्धति से जो विद्यार्थी पढ़ते लिखते थे उनमें ओजस्विता-तेजस्विता आती थी। क्योंकि हमारे शरीर में सात केन्द्र (चक्र) हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा और सहस्रार, इन केन्द्रों के विकास करने की पद्धति गुरु लोग जानते थे। गुरु का मतलब है जो हमको लघु सुखों, लघु वासनाओं, लघु मान्यताओं से ऊपर उठा दें। इसलिए पहले दीक्षा दी जाती थी। जीवन को सही दिशा देने के लिए दीक्षा बहुत आवश्यक है। दीक्षा का मतलब यह नहीं कि केवल काऩ फूँक दिया अथवा किसी को माला पकड़ा दी, नहीं, ऊँची दिशा दी जाती थी कि ‘खाना-पीना और इन्द्रिय-लोलुपता का सुख तो पशु-पक्षी, घोड़े-गधे, कुत्ते-बिल्ले भी पा लेते हैं, आपको ऊँचे-में-ऊँचा आत्म-परमात्मसुख लेना है। ऊँचा जीवन जीने के लिए बाहर का आडम्बर नहीं, आंतरिक विकास करो। दिखावटी जीवन की अपेक्षा सात्त्विक और दिव्य जीवन जियो। दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने बल का सदुपयोग करना।’ जो दूसरों के अधिकार की रक्षा करता है और अपने बल का सदुपयोग करता है, वह निर्बलों की सहायता करेगा और अपने अधिकार व लोलुपता में आकर समाज की हानि नहीं करेगा, अपना भविष्य बरबाद नहीं करेगा।

गुरुकुलों से इस प्रकार के उत्तम संस्कारों से युक्त होकर विद्यार्थी जब समाज में आता था तो अच्छी व्यवस्था होती थी। गुरुकुल में जो शिक्षण मिलता था अथवा ज्ञान मिलता था वह आत्मशक्ति का विकास करता था। अभी मैकाले शिक्षा पद्धति में क्या चल रहा है कि ‘व्यक्तित्व का श्रृंगार करने के लिए हृदय अशुद्ध हो तो हो, वसूली के, घूस के, मिलावट के, हेराफेरी के पैसे आयें, दूसरा भूखा मरे, निर्धनों के बच्चे पढ़ें – न पढ़ें, गरीबों का शोषण होता हो तो हो लेकिन मेरे बेटे, मैं और मेरा परिवार सुविधा-सम्पन्न रहे।’ इस छोटे से दायरे में आदमी आ गया।

विदेशी और भारतीय पद्धति में यह अंतर है कि विदेश में अधिक से अधिक सत्ता, धन के ढेर जिसको मिल जायें, वह बड़ा आदमी माना जाता है जबकि भारत में जो अधिक से अधिक समाज को दे एवं अपनी जरूरतों हेतु कम से कम ले और अपने असली सुख में, आत्मसुख में आगे बढ़े, उसको बड़ा माना जाता है। जो कम वस्तु, कम सत्ता, कम व्यक्तियों के उपयोग से अधिक से अधिक शांति, सुख पा सके और दूसरों को दे सके ऐसे शुकदेव जी महाराज ऊँचे सिंहासन पर बैठे हैं और राजा परीक्षित उनके चरणों में ! अष्टावक्र जी ऊँचे सिंहासन पर बिठाते और स्वयं उनके चरण धोते हैं। श्रीकृष्ण गुरु के चरण धोते हैं।

तो गुरुकुल पद्धति में गुरु सुख अर्थात् ऊँचा सुख, ऊँचा ज्ञान पाने और ऊँची समझ, शाश्वत सुख की मौलिक शिक्षा मिलती थी और अंदर के केन्द्रों का विकास होता था। अभी सूचनाएँ इकट्ठी करके हम लोग प्रमाणपत्र ले लेते हैं। मैकाले शिक्षा-पद्धति से पढ़े हुए मानवीय संवेदनाओं से वंचित विद्यार्थी बेचारे कई लाख रूपये रिश्वत दे के नौकरी लेते हैं और करोड़ों रूपये शोषित करके सुखी होने में लगते हैं। न वे सुखी, न जिनको शोषित किया वे सुखी, न जिनको रिश्वत देते हैं वे सुखी, न उनके सम्पर्क में आने वाले सुखी ! तो चारों तरफ शोषण-ही-शोषण और दुःख-ही-दुःख बढ़ गया।

बल का सदुपयोग यह नहीं कि आपके पास सत्ता का, साधुताई का बल है अथवा अन्य कोई बल है और उसके द्वारा आप दूसरों का शोषण करके बड़े बन जाओ। यह बल का दुरुपयोग है। दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार का सदुपयोग। गुरुकुल पद्धति उसी पर आधारित थी।

आत्मा परमात्मा का सुख लेने की पद्धति, इन्द्रियों को संयमित करने की और मन व इन्द्रियों को दिव्य ज्ञान में, दिव्य आत्मसुख में ले जाने की व्यवस्था गुरुकुलों में थी। इसमें जप, ध्यान और वैदिक ज्ञान बड़ी सहायता करता है।

गुरुकुल शिक्षा पद्धति व्यक्ति को विकसित जीवन जीने की पद्धति देती है। गुरुकुल परम्परा से पढ़ाई लिखाई हो देश का, मानवता का यह सौभाग्य होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 285

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जग्गा जी से बने संत सुदंरदासजी – पूज्य बापू जी


दौसा जिले के वैश्य की पुत्री सती ने दादू दयाल महाराज के शिष्य जग्गा जी महाराज को प्रणाम किया तो जग्गा जी ने दोनों हाथ उठाकर कहाः “पुत्रवती भव।”

दादू जी को पता चला तो उन्होंने कहाः “कैसा चेला है रे ! उसके भाग्य में तो पुत्र था ही नहीं और तूने पुत्रवती भव बोल दिया। अब क्या करेगा ? संत आदमी ने वचन दिया है तो झूठा तो नहीं पड़ना चाहिए।”

जग्गा जी बोलेः “गुरु महाराज ! उपाय क्या है ?”

दादू जी बोलेः “यह शरीर छोड़ के उसके गर्भ से जन्म लेगा तभी तेरा वचन सच्चा होगा।”

उसने अनुसंधान किया और शरीर त्यागा, फिर वैश्य की पुत्री के गर्भ से बालक का जन्म हुआ। अब पिछले जन्म का तो वह दादू दयाल जी का चेला था। जन्म हुआ तो बच्चा सुंदर और अंदर से सूझबूझवाला था। थोड़ा बोलने लायक हुआ तो कविता बोलने लगा। संयमी भी इतना, सत्संगी भी इतना, सुंदर भी इतना की नाम पड़ा सुंदरदास। और उन सुंदरदास का रहना, कहना तो सुंदर लेकिन सत्संग भी बड़ा सुंदर !

सुंदरदास जी लिखते हैं-

गुरु बिन ज्ञान नहिं, गुरु बिन ध्यान नहिं,

ईंट, चूने, हाड़-मांस का ज्ञान तो इंजीनियर, डॉक्टर कोई भी दे देगा लेकिन आत्मा-परमात्मा का ज्ञान तो गुरु के द्वारा ही मिलेगा। ‘तेरा-मेरा’ ध्यान तो ठीक है लेकिन जिससे सारे ध्यान हो के मिट जाते हैं फिर भी ज्यों-का-त्यों रहता है उस आत्मदेव का ध्यान तो गुरु के ज्ञान के बिना नहीं होता।

गुरु बिन आतम विचार न लहतु है।

गुरु के बिना आत्मा-परमात्मा का प्रकाश भी नहीं होता है। मरने वाले शरीर को मैं मानकर मरे जा रहे हैं। अरे, यह तो पाँच भूतों का है, तुम तो अमर आत्मा हो – यह ज्ञान गुरु के बिना नहीं मिलेगा। मूर्ख लोग कैसे हैं कि शरीर बीमार होता है तो बोलते हैं, ‘मैं बीमार हूँ।’ मन में दुःख आता है तो बोले, ‘मैं दुःखी हूँ।’ चित्त में चिंता आती है तो बोले तो ‘मुझे चिंता है।’ चमड़ा काला हो गया तो बोले, ‘मैं काला हो गया।’ चमड़ा अगर गोरा हो गया तो बोले, ‘मैं गोरा हो गया।’ अरे, तू तो वही का वही है। यह तो शरीर बदलता है, तू नहीं बदलता ! लेकिन गुरु के बिना ज्ञान नहीं न ! सुंदरदास जी महाराज आगे लिखते हैं-

गुरु बिन प्रेम नहिं, गुरु बिन नेम नहिं,

गुरु के बिना भगवत्प्रेम भी नहीं जगता और भगवन्नाम, मंत्र जप कि माला करने का नेम (नियम) भी नहीं मिलता। गुरु जी नेम देते हैं तभी चले काम।

गुरु बिन सीलहु संतोष न गहतु है।

गुरु के सम्पर्क में आने से आत्मशांति होती है, संतोष होता है, मन पवित्र होता है। गुरु की दृष्टि पड़तीहै तो पाप नाश होते हैं। गुरु की वाणी सुनते हैं तो अभिमान मिटता है। गुरु का सत्संग और सान्निध्य व्यक्ति से सत्कर्म कराता है।

गुरु बिन प्यास नहिं, बुद्धि को प्रकास नहिं,

जब तक गुरु नहीं मिलते हैं तब तक भगवान को पाने की प्यास भी तो पैदा नहीं होती और गुरु के बिना बुद्धि को ज्ञान-प्रकाश भी नहीं मिलता।

भ्रमहू को नास नहिं, संसेई रहतु है।

मरने वाले शरीर को मैं मानते हो और वास्तविक जो तुम हो अमर आत्मा, उसका पता ही नहीं, यह स्थिति भ्रम कहलाती है। गुरु के ज्ञान के बिना भ्रम का नाश नहीं होगा। गुरु बताते हैं, ‘बेटा ! यह हाड़-मांस का शरीर तुम नहीं हो। दुःखी-सुखी होने वाला मन तुम नहीं हो। बीमार पड़ने वाला और ठीक होने वाला तन तुम नहीं हो। तुम इन सबको जानने वाले हो, चैतन्य हो, अमर हो, विभु हो, व्यापक हो। यह शरीर मरने वाला है। दुःख भी मरता है, सुख भी मरता है, मान-अपमान भी मरता है। बचपन मर गया, जवानी भी मर गयी।’

गुरु बिन बाट1 नहीं, कौड़ी2 बिन हाट3 नहिं,

‘सुंदर’ प्रकट लो, वेद यों कहतु है।।

1 मार्ग 2 धन 3 बाजार

वेद भगवान प्रकट होकर यह बात कहते हैं। दादू जी महाराज बोल गये तो बाद में अपना वचन निभाकर सुंदर जीवन जिये और 93 साल की उम्र में सांगानेर (राज.) में शरीर छोड़ा। सांगानेर में अभी भी उनकी समाधि है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 285

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महाशत्रु कौन और जीवन में विजय कैसे पायें ?


विजयदशमी को रावण को मारकर श्रीराम विजेता हुए थे। महिषासुर आदि राक्षसों को मारकर माता जी ने धरती का बोझ हलका किया था। विजयदशमी से हमें यह संदेशा मिलता है कि भौतिकवाद चले कितना भी बढ़ा-चढ़ा हो, अधार्मिक अथवा बहिर्मुख आदमी के पास कितनी भी सत्ताएँ हों, कितना भी बल हो फिर भी अंतर्मुख व्यक्ति डरे नहीं, उसकी विजय जरूर होगी।

10 आदमियों जितने मस्तक और भुजाएँ थीं ऐसे रावण के समस्त सैन्य बल को भी छोटे-छोटे बंदर-भालुओं ने ठिकाने लगा दिया।

यह दशहरा तुम्हें संदेश देता है कि जो प्रसन्नचित्त है, पुरुषार्थी है उसे ही विजय मिलती है। जो उत्साहित है, कार्यरत है, जो हजार विघ्नों पर भी चिंतित नहीं होता, हजार दुश्मनों से भी भयभीत नहीं होता वह महादुश्मन जन्म-मरण के चक्कर को भी तोड़कर फेंक देता है। छोटे-छोटे दुश्मन को मारना कोई बड़ी बात नहीं है, अपने और ईश्वर के बीच में जो अविद्या का पर्दा है, उसको जब तक नहीं हटाया तब तक दुनिया के सब शत्रुओं को हटा दो, कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया के शत्रु ज्यों-के-त्यों मौजूद रहें, उनकी चिंता मत करो। महाशत्रु जो अज्ञान है उसको तुम हटा दो, फिर पता चलेगा कि शत्रुओं के रूप में भी उस परमात्मा की आभा है।

विजयादशमी के दिन रावण को परास्त कर श्रीरामचन्द्र जी विजयी हुए। रावण की नाईं वासनाओं के वेग में हम खिंच न जायें इस याद में रावण को हर बारह महीने में दे दीयासलाई ! रावण के पुतले को तो दीयासलाई देते हैं लेकिन हमारे भीतर भी राम और रावण दोनों बैठे हैं। सद्विचार है, शांति की माँग है – यह राम का स्वभाव और ‘मेरा तो मेरे बाप का, इसका भी मेरा ही है’ – ये रावण की वृत्तियाँ भी हैं।

आप किसको महत्त्व देते हैं ?

आप देख सकते हो कि भीतर राम और रावण का भाव कैसा छुपा है। रामायण या महाभारत हमारे भीतर कैसा छुपा है। कोई भोजन की थाली परोस दे जिसमें कुछ भोजन सात्त्विक व स्वास्थ्यप्रद है और कुछ ऐसी चीज है जो चरपरी है, स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है लेकिन मुँह में पानी लाये ऐसी है तो बस, राम-रावण युद्ध चालू हो जाता है। राममयी वृत्ति कहती है कि ‘नहीं, यह सात्त्विक खायें, इतना ही खायें’ लेकिन रावण वृत्ति, आसुरी वृत्ति कहेगी, ‘क्या है ! इतना थोड़ा सा तो खा लो।’

‘खायें-न खायें, खायें न खायें…’ के द्वन्द्व में अगर रसमयी वृत्ति का समर्थन करते हो तो संयम से उतना ही खाकर उठोगे जितना खाना चाहिए। अगर रावण-वृत्ति का समर्थन करते हो तो उतना सारा खा लोगे जो नहीं खाना चाहिए। आसुरी, राजसी वृत्ति का समर्थन करते हो कि सात्त्विक वृत्ति का करते हो ? राम रस का महत्त्व जानते हो कि कामवासना को महत्त्व देते हो ?

जो दसों इन्द्रियों से सांसारिक विषयों में रमण करते हुए उनसे मजा लेने के पीछे पड़ता है वह रावण की नाईं जीवन-संग्राम में हार जाता है और  जो इन्हें सुनियंत्रित करके अपने अंतरात्मा में आराम पा लेता है तथा दूसरों को भी आत्मा के सुख की तरफ ले जाता है वह राम की नाईं जीवन-संग्राम में विजय पाता है और अमर पद को भी पा लेता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 10, अंक 285

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