संत चरनदास जी

संत चरनदास जी


 

अलवर शहर (राजस्थान) से 8 कि.मी. दूर डेहेरा नामक गाँव में सन् 1703 ई. के भादों शुक्ल तृतिया, मंगलवार के दिन पिता मुरलीधर व माता कुंजीदेवी के घर संत चरनदास जी का अवतरण हुआ। नामकरण संस्कार के समय उनका नाम रणजीत रखा गया। उनके पिताश्री साधु स्वभाव के, त्यागी वृत्तिवाले, प्रभुभक्त और एकांत प्रेमी थे। वे घंटों तक ध्यान में लीन रहते थे। उनकी माता कुंजीदेवी संतसेवी और विदुषी थीं।

संत चरनदास जी को 5 वर्ष की अल्पायु से ही रामनाम के जप का स्वाद लग गया था। वे स्वयं तो प्रेम से रामनाम जपते थे, साथ में अपने साथियों को भी प्रभु के नाम-सुमिरन की प्रेरणा देते थे। एक दिन वे जब, रामनाम कीर्तन में मस्त थे, तब वैरागी तपस्वी वेदव्यासनंदन, शुकदेव जी उन्हें अपनी गोद में लेकर प्यार किया, इससे उनके हृदय में प्रभुप्रेम की प्रबल धारा प्रवाहित हो गयी। तत्कालीन रीति के अनुसार छठे वर्ष में उन्हें पाठशाला पढ़ने के लिए भेजा गया, परंतु अध्यापकों के लाख प्रयत्नों के बावजूद भी उन्होंने लौकिक विद्या पढ़ना अस्वीकार कर दिया। उन्होंने एक दिन अध्यापकों का हठ देखकर कहाः

आल जाल तू क्या पढ़ावे।

कृष्ण नाम लिख क्यों न सिखावे।।

जो तुम हरि की भक्ति पढ़ाओ।

तो मोकू तुम फेर बुलाओ।।

इस पंक्ति से उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उनकी रुचि प्रभुनाम-जप में अधिक और लौकिक विद्या में कम है।

जब रणजीत 8 वर्ष की आयु अवस्था के हुए, तब एक दिन उनके पिता जी जंगल में एकांत साधना करते हुए अचानक लोप हो गये। इस घटना के कुछ महीने बाद उनके दादा प्रागदास जी व दादी यशोदा का भी अचानक निधन हो गया। पति के बाद सास-ससुर की छाया भी सिर से उठ जाने से कुंजीदेवी के दिल पर गहरा आघात लगा। रणजीत अपनी माता के दुःखी हृदय पर प्रेम के फाहे रखने में सफल हो गये। माता कुंजीदेवी का मन दुःख और चुप्पी से अब ऊब चुका था। उनके लिए अब डेहरा गाँव में रहना असहनीय हो गया था, इस कारण वे पुत्र के साथ दिल्ली में स्थित अपने मायके चली गयीं।

दिल्ली में कुंजीदेवी के चाचा भिखारीदास शाही दरबार में उच्च पदाधिकारी थे। उन्होंने कुंजीदेवी को हर प्रकार से मदद देने का आश्वासन दिया। उन्होंने रणजीत को अरबी व फारसी भाषा सिखाने के लिए कादिरबख्श नामक एक मौलवी को नियुक्त किया। उस मौलवी ने भी रणजीत को पढ़ाने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी।

उन दिनों छोटी उम्र में ही विवाह हो जाते थे। रणजीत के लिए भी कई रिश्ते आये, परंतु वे विवाह के लिए राज़ी न हुए। माता ने उनके सामने वंश को आगे बढ़ाने की इच्छा प्रकट की तथा नाना ने धर्मग्रंथो के उदाहरणों से गृहस्थ आश्रम की विशेषता सिद्ध करके और शास्त्रों में से वंश को आगे बढ़ाने के धर्म का विवरण देकर उन्हें विवाह की प्रेरणा देनी चाही, परंतु रणजीत ने संसार की नश्वरता, मनुष्य-जन्म के मूल उद्देश्य आदि का उल्लेख करके बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ‘मेरा मन प्रभुभक्ति में इतना लीन हो चुका है कि मेरे लिए गृहस्थ धर्म निभा पाना असम्भव है।

10 वर्ष की अल्पायु में ही रणजीत के हृदय सागर में प्रभुप्रेम की लहरें पूरे जोर से उठने थीं। वे सदा साधु-संतों की संगति और भजन मंडलियों में सम्मिलित होने के लिए उत्सुक रहते थे। भूखे-प्यासे, गरीब, लाचारों की सेवा-सहायता में उनकी विशेष रूचि थी। उनका ध्यान एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित था और वह था परमात्म-प्राप्ति ! प्रभु प्रेम में उनकी आँखों से प्रेमाश्रुओं की झड़ी लगी रहती थी और वे अपने खाने पीने, पहनने, सोने तक की सुध-बुध खो बैठते थे।

16 वर्ष की उम्र तक जब अपने प्रयत्नों से प्रभु के दर्शनों की तड़प शांत न हुई तो उनके हृदय में सदगुरु मिलन की प्यास जाग उठी। वे सदगुरु के विरह में पल-पल, क्षण-क्षण व्याकुल रहने लगे।

चातक मीन पतंग जब, पिया बिन नहीं रह पाये।

साध्य को पाये बिना, साधक क्यों रह जाय।।

वे कभी सदगुरु की खोज में दूर-दूर तक जाते, कभी नागाओं, सिद्धों, योगियों के पास जाते तो कभी संन्यासियों, उदासियों के पास, परंतु उन्हें कहीं भी शांति प्राप्त न हुई। वे 16 से 19 वर्ष त सदगुरु की खोज में दर-दर भटकते रहे। आखिर मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के पास गंगा-यमुना के दोआबे पर स्थित मोरनातीस नामक स्थल पर उन्हें एक महात्मा के दर्शन हुए, जिन्हें देखते ही उनके मन में प्रेम, श्रद्धा और शांति की ऐसी प्रबल तरंग उठीं कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी वर्षों की खोज आज पूरी हो गयी है। वे महात्मा और कोई नहीं बल्कि वही शुकदेव जी महाराज थे, जिन्होंने बालक रणजीत को गोदी में बिठाकर प्यार किया था। जिन सदगुरु की खोज थी वे मिल गये। उस वक्त रणजीत की उम्र 19 वर्ष थी। उन्होंने प्रेममय हृदय और आँसुओं से भरे नेत्रों से सदगुरु के चरणकमलों में माथा टेकते हुए स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। महात्मा शुकदेव जी ने उन्हें विधिवत दीक्षा दी और उनका परमार्थी नाम श्यामचरनदास रख दिया। शुकदेव जी ने उन्हें दिल्ली वापस जाकर दीक्षा के अनुसार अभ्यास करने की आज्ञा दी। आगे चलकर वे संत चरनदास जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे टूटे हृदय से दिल्ली प्रस्थान कर गये। सदगुरु से बिछुड़ने के कारण वे बड़े व्याकुल हो गये। दिन भूखे-प्यासे विरह में व्यतीत हो गया, रात्रि को सदगुरु ने ध्यान में आकर ढाढस बँधाया और कहाः

जब-जब ध्यान करे हो।

ऐसे ही तुम दर्शन पै हो।

अरु हम तुम कभू जुदे जू नाहीं।

तुम मो में मैं तुम्हारे माँही।।

सदगुरु शिष्य के अंतःकरण में ज्योतिर्मय स्वरूप में सदैव विद्यमान रहते हैं। यह स्वरूप कभी भी शिष्य का साथ नहीं छोड़ता। सदगुरु-प्रदत्त युक्तियों के अभ्यास से यही ज्योतिर्मय स्वरूप शिष्य को आत्मा-परमात्मा की अभिन्नता का ज्ञान करा देता है। दिल्ली लौटकर चरनदास जी ने बरिम नाले के पास आरामदायक स्थान पर पक्की गुफा बनवा कर उसमें गुरु आज्ञानुसार तन, मन से अभ्यास शुरु कर दिया। वहाँ उन्होंने 12 वर्ष तक अभ्यास किया। वे कई-कई दिनों तक समाधि में लीन रहते थे। एक बार आस-पास फैली हुई आग गुफा में भी पहुँच गयी, पर ध्यानमग्न चरनदास जी उसी प्रकार गुफा में बैठे रहे। लोगों ने यही समझा के वे जलकर राख हो गये होंगे, पर जब वे ध्यान से उठकर बाहर आये तो उन्हें सही-सलामत देखकर सभी दंग रह गये।

वे सदगुरु की आंतरिक प्रेरणा के अनुसार फतेहपुरी में एक आश्रम बनाकर रहने लगे। समाज के हर वर्ग और धर्म के लोग उनके सत्संग में आने लगे। एक बार संत चरनदास जी ने एक गरीब के लड़के की शादी के लिए सोने की 40 मोहरें और बहुत से सेवकों को उसकी सहायता के लिए भेजा। रात में आश्रम को सुनसान देखकर चोर आ गये, उन्होंने बहुत से सामान की कई गठरियाँ बाँध लीं, परंतु उन्हें आश्रम से बाहर जाने का मार्ग ही नहीं दिखाई दिया। चोरों को परेशान देखकर  चरनदास जी ने स्वयं उठकर उन्हें रास्ता दिखाया और सामान ले जाने को कहा। चोर लज्जित होकर क्षमा माँगते हुए कहने लगेः ‘अब हम सुई तक नहीं ले जायेंगे।’ पर संत चरनदास जी ने उनसे जबरदस्ती गठरियाँ उठवायीं और उनके साथ जाकर आश्रम के बाहर छोड़ आये। उन्होंने न कभी किसी का बुरा सोचा और न ही किसी को कुछ बुरा कहा। यदि कोई उनकी निंदा भी करता तो वे कहते कि निंदक शत्रु नहीं अपितु सच्चा मित्र है, जो निंदा के साबुन से हमारे दुर्गुणरूपी मैल को धोता है। उनके परम शिष्य रामरूप जी ने लिखा हैः ‘संत चरनदास कभी भी वाद-विवाद में नहीं उलझते थे। वे एकांत-प्रेमी थे और बार-बार कहते थे कि मैं बुरे-से-बुरा था पर मेरे सदगुरु शुकदेव जी ने मुझ पर कृपा करके मेरा बेड़ा पार कर दिया।’

किसू काम के थे नहीं कोई न कौड़ी देय।

गुरु शुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।

संत चरनदास जी ने दिल्ली में कई आश्रम बनवाये तथा फतेहपुरी आश्रम में 5 वर्ष बिताये। फतेहपुर निवास के समय वे एक बार वृंदावन गये थे। मार्ग में 7 ठगों ने उन्हें घेर लिया, परंतु उनकी अमीदृष्टि से वे स्वयं को ठगाकर उनके अनन्य भक्त बन गये। उनके 108 प्रमुख शिष्यों में इन सातों के नाम भी आते हैं। इसी यात्रा के दौरान उन्हें पुनः सदगुरु जी के दर्शन प्राप्त हुए। गुरुदेव ने उन्हें भक्तिमार्ग का प्रचार करने की आज्ञा दी। यहाँ से लौटकर उन्होंने घासमंडी में आश्रम बनवाया। यहाँ एक वर्ष व्यतीत कर वे परीक्षितपुर आ गये। वहाँ नंददास जी उनसे विधिवत दीक्षा लेने वाले प्रथम शिष्य बने। नंददास जी के बाबा हरि दास जी ने अपनी पत्नी, चारों पुत्रों और एकमात्र पुत्री सहजोबाई, दयाबाई और नूपीबाई संत चरनदास जी की तीन प्रमुख शिष्याएँ थीं।

बाद में वे परीक्षितपुर से गद्दनपुर चले गये। वहाँ पर एक मुसलमान फकीर मुहम्मद बाकर ने उनकी शरण ग्रहण की और वहाँ से वे पानीपत आ पहुँचे, यहाँ का नवाब शाकर खाँ और एक खतरनाक डाकू उनके शिष्य बन गये। उन्होंने उस डाकू का नाम रामधड़ल्लामल रखा। इसी यात्रा के दौरान सन् 1757-58 ई. में चरनदास जी की माता का देहांत हो गया। माता के परलोक गमन के पश्चात सुखदेवपुर आ गये। यह स्थान चाँदनी चौक के पास मुहल्ला बन्नीमारां और हौजकाजी के मध्य स्थित है। चरनदासजी अनेक स्थानों की यात्रा की, परंतु उनका कार्यक्षेत्र दिल्ली व उसके आस-पास का क्षेत्र ही रहा।

उन्होंने नादिरशाह के भारत पर आक्रमण के छः महीने पूर्व ही उसके आक्रमण की तिथि मुहम्मदशाह की हार, नादिरशाह द्वारा राज्य वापस देकर लौट जाने की तिथि आदि कई महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी अपने सेवकों को दी थी। उनकी इस भविष्यवाणी को सुनकर नादिरशाह ने उन्हें जेल में डाल दिया, परंतु उस समय उसके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही, जब उसी रात को चरनदास जी नादिरशाह के सिर पर पदाघात कर उसे जगा दिया। आश्चर्यचकित व भयभीत नादिरशाह उनके चरणों में गिर क्षमायाचना करने लगा तथा कई गाँवों की जागीरें व धन-सम्पत्ति उनके नाम कर दी। वे न तो किसी सेवक के घर भोजन करते थे और न ही किसी से धन, वस्त्रादि की भेंट लेते थे, परंतु जरूरतमंदों की भरपूर सहायता करते थे। उनका यह क्रम 60 वर्ष की अवस्था तक चला, तत्पश्चात उन्होंने शिष्यों की अत्यधिक संख्या और उनकी व्यवस्था हेतु सेवा-भेंट लेना स्वीकार किया, परंतु उसमें से अपने लिए एक पाई का भी उपयोग नहीं किया। उन्होंने ब्रह्मलीन होने के एक वर्ष, तीन महीने व दो दिन पहले ही अपने परम धाम जाने के संकेत दे दिये थे। वे उन दिनों फतेहपुरी स्थित सुखदेवपुरा आश्रम में निवास करते थे। संवत् 1839 विक्रमी, मार्गशीर्ष सप्तमी को बुधवार के दिन वे 79 वर्ष की आयु पूरी कर स्वधाम पधार गये। उन्होंने स्वधाम जाने की इच्छा पहले ही प्रकट कर दी थी, फिर भी उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया। बाद में उनके 108 शिष्यों ने अलग-अलग गद्दियाँ चलाईं जिनमें रामरूप, सहजोबाई, जुगतानंद आदि की गद्दियाँ प्रमुख थीं। चरनदास जी के शिष्यों ने अपनी रचनाओं में उनकी अलौकिक प्रतिभा व जीवन के विषय में विस्तार से गाया है। सहजोबाई ने तो यहाँ तक कहा किः

साँईं चरनदास पर तन मन वारूँ।

गुरु न तजूँ, पर हरि को तजि डारूँ। (सहजोवाणीः पृष्ठ 3)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 14-17 अंक 118

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