बात उन दिनों की है जब श्री गोपालस्वरूप पाठक इलाहाबाद में वकालत करते थे। उन्होंने अपने मार्गदर्शक महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी से प्रेरणा ली थी कि वे कभी झूठ नहीं बोलेंगे और न किसी को धोखा देंगे।
एक बार पाठक जी के पास सम्पत्ति के विवाद का मुकद्दमा आया। उन्होंने अपने मुवक्किल से दस्तावेज माँगे। उसने कह दिया कि कागजात कुछ दिन बाद देगा। श्री पाठक ने न्यायाधीश के समक्ष जोरदार पैरवी की। उनके तर्कों से सहमत होकर न्यायाधीश ने उनके पक्ष में निर्णय लिख दिया किंतु निर्णय अगले दिन सुनाने वाले थे।
मुवक्किल मिठाई का डिब्बा तथा उपहार लेकर पाठक जी की कोठी पर पहुँचा। बातचीत में उसके मुख से निकल गया कि दस्तावेज फर्जी थे। यह सुनते ही पाठकजी न्यायाधीश के पास जा पहुँचे, बोलेः “महोदय, मैंने भ्रमवश न्यायालय को गुमराह किया है। मैं झूठ की जीत स्वीकार नहीं करूँगा। आप निर्णय बदलने की कृपा करें।”
न्यायाधीश इस अनूठे वकील के सत्याचरण को देखकर हतप्रभ रह गये।
कैसे सत्यप्रेमी वकील ! किसी निरपराध को झूठे तर्कों के आधार पर दंड दिलाना वे अनैतिकता और अधर्म मानते थे। धन के लालच में अन्याय का पक्ष लेने को वे कभी तैयार नहीं हुए। भारत का यह सौभाग्य ही रहा कि ऐसे सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने आगे चलकर इस देश के उपराष्ट्रपति पद को गौरवान्वित किया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 10 अंक 287
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