विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा
परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः।
जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपण-
स्तृषापात्रं यस्यां भवति मरुतामप्योधिपतिः।।
‘विवेक के प्रकट होने से शम (मन का नियंत्रित होकर शांत होना) होने पर विषयों को भोगने की तृष्णा शांत हो जाती है। नहीं तो विषयों का अत्यधिक प्रसंग होने से वह (भोगतृष्णा) बलवती होकर बढ़ती जाती है। जिससे (इन्द्र) भी जरा (वृद्धावस्था) से क्षीण एवं ऐश्वर्यप्राप्ति के अभिलाषी होने से देवपति होकर तृष्णा के पात्र बने रहते हैं अर्थात् उऩकी भी भोगतृष्णा बनी रहती है।’ (वैराग्य शतकः 9)
पूज्य बापू जी के वचनामृत में आता है- “आशा ही जीव को जन्म-जन्मांतर तक भटकाती रहती है। मरूभूमि में पानी के बिना मृग का छटपटाकर मर जाना भी इतना दुःखद नहीं है जितना तृष्णावान का दुःखी होना है। शरीर की मौत की छटपटाहट 5-10 घंटे या 5-10 दिन रहती है लेकिन जीव तृष्णा के पाश में युगों से छटपटाता आया है, गर्भ से श्मशान तक ऐसी जन्म-मृत्यु की यात्राएँ करता आया है। गंगा जी की बापू के कण तो शायद गिन सकते हैं लेकिन इस आशा-तृष्णा के कारण कितने-कितने जन्म हुए यह नहीं गिन सकते। मानव कितना महान है लेकिन इस अभागी तृष्णा ने ही उसे भटका दिया है।
आज की इच्छा कल का प्रारब्ध बन जाती है इसलिए भोगने की, खाने की, देखने की आशा करके अपने भविष्य को नहीं बिगाड़ना चाहिए। हे मानव ! जीते जी आशा तृष्णारहित होकर परमात्म-साक्षात्कार करने का प्रयत्न करना चाहिए।
संसार की वस्तुओं को पाने की तृष्णा में हम दुःखद परिस्थितियों को मिटाने की मेहनत और सुखद परिस्थितियों को थामने का व्यर्थ यत्न करने ही उलझ गये हैं। अज्ञान से यह भ्रांति मन में घुस गयी है कि ‘कुछ पाकर, कुछ छोड़ के, कुछ थाम के सुखी होंगे।’ हालाँकि सुख के संबंध क्षणिक हैं फिर भी उसी को पाने में अपना पूरा जीवन लगा देते हैं और जो शाश्वत संबंध है आत्मा-परमात्मा का, उसको जानने का समय ही नहीं है। कैसा दुर्भाग्य है ! ऐसी उलटी धारणा हो गयी है, उलटी बुद्धि हो गयी है।
ईश्वर हमसे एक इंच भी दूर नहीं है। जरूरत है तो केवल उसे प्रकट करने की। जैसे लकड़ी में अग्नि में छुपी है किंतु उस छुपी हुई अग्नि से भोजन तब तक नहीं पकता, जब तक दियासिलाई से अग्नि को प्रकट नहीं करते। जैसे विद्युत-तार में विद्युतशक्ति छुपी है किंतु उस छुपी हुई शक्ति से विद्युत तार संचारित होकर बल्ब से तब तक प्रकाश नहीं फैलाता, जब तक स्विच चालू नहीं करते। ऐसे ही परमात्मा अव्यक्तरूप से सबमें छुपा हुआ है किंतु जब तक जीव की वासनाओं का महत्त्व ज्ञानरूपी दियासिलाई से जल नहीं जाता, चित्त वासनारहित नहीं हो जाता, तब तक अंतःकरण में ईश्वरत्व का प्राकट्य नहीं होता।
‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः ‘जिस पुरुष का यथाक्रम और यथाशास्त्र आचार व निश्चय है, उसकी भोग की तृष्णा निवृत्त हो जाती है और उस पुरुष का गुणगान आकाश में विचरण करने वाले सिद्ध देवता और अप्सराएँ भी करते हैं।’
अतः देर न करो, उठो…. अपने-आप में जागे हुए निर्वासनिक महापुरुषों के, सदगुरुओं के चरणों में पहुँच जाओ, अपनी तुच्छ इच्छाओं को जला डालो, अपने ज्ञानस्वरूप में जाग जाओ। ऐसे अजर-अमर पद को पा लो कि फिर तुम्हें दुबारा गर्भवास, जरा-व्याधि व मौतों का दुःख न सहना पड़े। ॐ…..ॐ….ॐ….
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 10 अंक 288
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