भगवत्प्राप्ति का मूल

भगवत्प्राप्ति का मूल


संत एकनाथ जी

हे ॐकारस्वरूप, सहज आत्मस्वरूप देव ! तुम्हें नमस्कार है ! तुम विश्वात्मा होते हुए चतुर्भुज हो। अष्टभुज भी तुम्हीं हो और विश्वभुज अर्थात् अनंतभुज भी तुम्हीं हो। तुम्हारा मैं गुरुत्व से ही गौरव (आदर-सम्मान) करता हूँ। अपने शिष्यों के भाव-अर्थ गुरु के नाम से अभय देने वाले तुम्हीं हो। अभय देकर संसार-दुःख का निवारण करने वाले तुम्हीं हो। जन्म-मरण का निवारण करने वाले तुम्हीं हो। जन्म-मरण का निवारण कर तुम स्वयं, स्वयं से ही मिलन करते हो। अतः गुरु और शिष्य इन नामों से तुम्हारा ऐक्य (एकता) मालूम होने लगता है। यह एकता दृष्टि को दिखाई पड़ते ही एकनाथ और जनार्दन (संत एकनाथ जी के सदगुरु) – ये एकरूप ही हो जाते हैं। सारी सृष्टि गुरुत्व से भरकर सारा संसार ‘स्व’ आनंद से विचरने लगता है। ऐसा वह स्वानंद-ऐक्य चिद्घनस्वरूप जगदगुरु जनार्दन है। उन जनार्दन की शरण जाकर एकनाथ ने अपनी एकता दृढ़ की। यह दृढ़ हुआ ऐक्य भी सदगुरु ही बन गया। तब एकनाथ और जनार्दन एक हो जाने के कारण ‘मैं’ पन – ‘तू’ पन समाप्त हो गया। इस प्रकार अकेले एक होते हुए भी एकनाथ को जनार्दन ने कवि  बना दिया। तब उसे एकादश (श्रीमद्भागवत के 11वें स्कंध) के गहरे एकत्व का सहज ही बोध हो गया। उसी एकता की सच्ची राजा पुरुरवा को भी प्राप्त हो गयी थी और सत्संग से उसका यह अनुताप (भगवद्-विरह से तपन), विरक्ति और भगवद्भक्ति दृढ़ हो गयी। यह बात 26वें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अपने ही मुख से बतायी।

श्रीकृष्ण ने कहाः ‘सत्संग से भगवद्भक्ति होती है और उससे साधकों को पूर्ण वैराग्य प्राप्त होता है (सत्संग से भगवत्स्वरूप महापुरुष एवं भगवद्भक्तों की संगति तथा साधन-भजन सेवा में रूचि प्राप्त होती है। और भगवद्-रस के प्रभाव से संसार रस फीका होकर सहज में पूर्ण वैराग्य प्राप्त होता है।) भगवद्भक्ति किये बिना विरक्ति कभी उत्पन्न नहीं होगी और विरक्ति के बिना भगवद्भक्ति कल्पांत ( कल्प का अंत। 1 कल्प=ब्रह्मा जी का 1 दिन = 4 अरब 32 करोड़ मानवीय वर्ष) में भी नहीं होगी।’ श्रीमद् एकनाथी भागवत, अध्याय 27 से

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 15 अंक 292

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