जीवन की सार्थकता

जीवन की सार्थकता


राजा विक्रमादित्य अत्यंत पराक्रमी, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी, ईमानदार एवं दयालु शासक थे। उनकी प्रजा उनके द्वारा किये गये कार्यों की सराहना करते नहीं थकती थी। एक बार वे अपने गुरु के दर्शन करने उनके आश्रम पहुँचे। आश्रम में उन्होंने गुरुजी से अपनी कई जिज्ञासाओं का समाधान पाया। जब गुरु जी वहाँ से चलने लगे तो राजा ने उनसे कहाः “गुरुदेव ! मुझे कोई ऐसा प्रेरक वाक्य बताइये जो महामंत्र बनकर न केवल मेरा बल्कि मेरे उत्तराधिकारियों का भी मार्गदर्शन करता रहे।”

गुरुजी ने उन्हें एक श्लोक लिखकर दियाः

प्रत्यर्ह प्रत्यवेक्षत नरच्चरितमात्मनः।

किन्नु म पशुभितुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिव।।

‘मेरे इस बहुमूल्य जीवन का जो दिन व्यतीत हो रहा है, वह पुनः लौटकर कभी नहीं आयेगा। अतः प्रतिदिन हमें यह चिंतन करना चाहिए कि आज का जो दिन व्यतीत हुआ वह पशुवत गुजरा अथवा सत्पुरुष की तरह ?’

इस श्लोक का राजा विक्रमादित्य पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने इसे अपने सिंहासन पर अंकित करवा दिया। वे रोज रात को यह विचार करते कि ‘आज का मेरा दिन पशुवत गुजरा या सत्पुरुष की तरह ?’ और प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में उठकर ध्यानस्थ हो जाते, आत्मचिंतन करते फिर दिन में क्या-क्या सत्कार्य करने हैं उनका चिंतन करते।

एक दिन अति  व्यस्तता के कारण वे किसी की मदद अथवा परोपकार का कार्य नहीं कर पाये। रात को सोते समय दिन के कार्यों का स्मरण करने पर उन्हें याद आया कि उस दिन उनके द्वारा कोई धर्मकार्य नहीं हो पाया। वे बेचैन हो उठे। उन्होंने सोने की कोशिश की पर उन्हें नींद नहीं आयी।

आखिरकार वे उठकर बाहर निकल गये। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक गरीब आदमी ठंड से सिकुड़ता हुआ सर्दी से बचने की कोशिश कर रहा है। उन्होंने उसे अपना दुशाला ओढ़ाया और वापस राजमहल आ गये। वह दिन निरर्थक नहीं रहा और ग्लानि दूर होकर उन्हें अच्छी, आत्मसंतुष्टिवाली नींद आ गयी।

शरीर की सार्थकता सेवा, धन की सार्थकता सात्तविक दान में, वाणी की भगवन्नाम-गुणगान में, मन की भगवच्चिंतन में और मनुष्य-जन्म की सार्थकता आत्मसाक्षात्कार में है।

धन्य हैं गुरु-उपदेश के सारग्राही, आज्ञापालक, कुशल शासक एवं सत्शिष्य राजा विक्रमादित्य ! और धन्य होंगे वे पवित्रात्मा जो उनके इस सुंदर सद्गुण एवं कुंजी को अपने जीवन में ला पायेंगे !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 7, अंक 296

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