बलि प्रतिपदा – 20 अक्तूबर 2017
भगवान से कुछ माँगो मत। माँगने से देने वाले की अपेक्षा तुम्हारी माँगने की वस्तु का महत्त्व बढ़ जाता है। ईश्वर और गुरु माँगी हुई चीजें दे भी देते हैं किंतु फिर अपना आपा नहीं दे पाते।
बलि ने भगवान वामन से कह दियाः “प्रभु ! आप जो चाहें ले सकते हैं।”
तब भगवान ने तीन पाद पृथ्वी माँगी और दो पाद में ही इहलोक तथा परलोक दोनों ले लिए। फिर कहाः “बलि ! अब तीसरा पाद कहाँ रखूँ ?”
बलिः “प्रभु ! मुझ पर ही रखो।”
भगवान वामन ने तीसरा पाद बलि के सिर पर रखा और उसको भी ले लिया। बलि बाँध दिये गये वरूणपाश में। उस समय ब्रह्मा जी वहाँ आये और भगवान से बोलेः
यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
दूर्वाङ्कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्।
अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं
दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत्।। (श्रीमद्भागवतः 8.22.23)
“प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्घ्य देता है और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है, फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से, धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है ?”
तब भगवान ने जो बात कही वह बड़ी ऊँची है क्योंकि श्रोता बहुत ऊँचा है। ग्वाल-गोपियों के आगे श्रीकृष्ण वही बात करेंगे जो उन्हें समझ में आये। अर्जुन जैसे बुद्धिमान के आगे श्री कृष्ण गीता की बात करते हैं। जितना ऊँचा श्रोता, उतनी ही वक्ता की ऊँचाई प्रकट होती है। भगवान को तो ब्रह्मा जी जैसे श्रोता मिल गये थे अतः वे बोलेः “हे ब्रह्मन् ! कर्ता कर्म का विषय नहीं बन सकता। जीव कर्म का कर्ता तो हो सकता है लेकिन कर्म का विषय नहीं बन सकता है। आप कर्म के कर्ता तो बन सकते हैं लेकिन स्वयं कर्म के विषय नहीं बन सकते।
कर्ता सब कुछ दे सकता है लेकिन आपने आपको कैसे देगा ? जब लेने वाला मैं उसे स्वीकार करूँगा, तब ही कर्ता मुझे पूर्णरूप से अर्पित होगा। मैं कर्ता को ही स्वीकार कर रहा हूँ क्योंकि मैं कर्ता को अपना आपा अर्पण करना चाहता हूँ। बलि कुछ माँग नहीं रहा है, वह दे ही रहा है। जब वह सब दे रहा है तो मैं चुप कैसे रहूँ ? मैं अपना आपा बलि को देना चाहता हूँ इसीलिए मैंने बलि को ले लिया”
कर्ता कर्म का विषय नहीं हो सकता और कर्ता कितना भी लेगा-देगा तो वह माया में होगा। उसको प्रतीति होगी कि ‘मुझे यह मिला… मैंने यह दिया… ‘ लेकिन देते-देते ऐसा दे दे कि देने वाला ही न बचे। देने वाला जब नहीं बचेगा तो लेने वाला कैसे बचेगा ! हम न तुम, दफ्तर गुम !
अपना सीमित ‘मैं’ ब्रह्म और ब्रह्मवेता के ‘मैं’ में मिला दो…. घटाकाश महाकाश में मिला दो…. वास्तव में महाकाश ही है, ऐसे वास्तव में जीव ब्रह्म ही है। अपनी देह में उलझे हुए ‘मैं’ को देहातीत, व्यापक स्वरूप में समर्पित करना…..
पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।
आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम।।
वह दशा है घटाकाश-महाकाश का एकत्व जीव-ब्रह्म का एकत्व।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 27 अंक 298
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ