Monthly Archives: October 2017

एक बार भीतर की ज्योत जग जाय फिर सदा दीवाली- पूज्य बापू जी


दीपावली पर्वः 17 से 21 अक्तूबर 2017

दीवाली की रात्रि में बाहर के लाखों-करोड़ों दीये जलते होंगे और वे एक रात्रि के लिए जगमगाहट पैदा कर देते होंगे लेकिन भीतर का दीया एक हृदय में जग जाय तो वह लाखों के हृदय में जगमगाहट कर देगा। बाहर से न दिखेगा लेकिन भीतर से बड़ी स्वच्छता, निर्भयता, परम शांति का स्वाद वह जागृत पुरुष लेता है। वह प्रज्ञा का दीया होता है। प्रज्ञा माने ऋतम्भरा प्रज्ञा। जिसकी बुद्धि से मल-विक्षेप चला गया, पाप-संस्कार और चंचलता चली गयी, उसका अंतःकरण शुद्ध और एकाग्र हो जाता है। फिर किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का सान्निध्य-लाभ, उनकी सम्प्रेषण शक्ति की अनुकम्पा होती है तो वह भीतर का द्रष्टाभाव का दीया, जो साक्षी, चैतन्य, शांत सच्चिदानंद स्वरूप अपने हृदय में छुपा हुआ है वह अखूट आत्मज्योति जगमगाती है।

संत भोले बाबा कहते हैं- “बाह्य दिवालियाँ मनाओ, कोई हर्ज नहीं, हम मना नहीं करते लेकिन लक्ष्य यह रखो कि तुम्हारे भीतर भी कोई ज्योति है जो केवल एक बार जग जाय…. भीतर भी एक परम मित्र है, एक खुशखबरी है जो केवल एक बार मिल जाय तो फिर उसको छोड़ना या उससे बिछुड़ना मुश्किल हो जायेगा।”

फिर वह भीतर से जागा हुआ सौभाग्यशाली दूसरों को जगाये बिना नहीं रहता। तुम्हारा भीतर का दीया एक बार जग जाये तो दूसरों के दीये जगाने में तुमको ऐसा रस आयेगा जो तुम्हें अपना दीया जगने के समय भी नहीं आया होगा।

तुम आजमाकर देखना। तुम्हारे घर में अँधेरा हो, तुम दीया जलाओ, प्रकाश हो तो हृदय में बोलोगे, ‘हाश !’ लेकिन कोई पड़ोसी है, नम्र है, उसके घर में अँधेरा है, उसकी आर्थिक परिस्थिति कुछ कमजोर है और उन दिनों में आपने कुछ उसको जरा सा आर्थिक सहयोग दे दिया, जरा सी मिठाई उसके बच्चों को दे दी, 2-4 बाह्य दीपक उसके घर में जाकर तुम जला के आये तो तुम्हारे घर के दीये और मिठाई तुम्हें जो आनंद देंगे, उससे सवाया आनंद पड़ोसी के घर जलाये दीये व दी गयी मिठाई तुम्हें देगी। वहाँ के दीये जलाने में तुम्हें होगा कि ‘हाश ! आज कुछ पुण्यकर्म किया है।’ शत्रुओं के बच्चों को या पड़ोसी के बच्चों को जो प्यार दोगे निःस्वार्थ भाव से, उसमें तुम्हारा हृदय कुछ और साक्षी देगा। जब किसी को ये लौकिक-मानसिक प्यार, हर्ष देने से, मानसिक दीये, लौकिक दीये किसी के यहाँ जलाने से तुम्हें तुम्हारे घर के दीये जलाने से ज्यादा आनंद आता है तो वह असली दीया और किसी के हृदय में जचमगा उठे तो कितना आनंद आता होगा जगाने वालों को !

आधिभौतिक, आधिदैविक दीवाली तो मिलती रहती है लेकिन जिसको आध्यात्मिक दीवाली मिलती है, जिसका अध्यात्म एक बार जग जाता है तो बस, उसने सब कुछ कर लिया। अपनी 21 पीढ़ियों को तार लिया, पितरों का तर्पण कर लिया, सारी पृथ्वी का दान उसने  दे दिया, सब यज्ञ उसने कर लिये।

नूतन वर्ष का आशीर्वाद

वर्ष प्रतिपदा वर्ष का प्रथम दिन है। हम तो चाहते हैं कि जीवन में भी ऐसा तुम्हारा प्रथम दिन आ जाय। परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय, अंदर का दीया जल जाय। मैं तुम्हें यह थोथा आशीर्वाद नहीं देना चाहता हूँ कि ‘भगवान करे तुम धन-धान्य से सुखी रहो, ऐसे रहो….’ न, यह आशीर्वाद दूँगा तब भी प्रारब्ध-खेल जो होने वाला है, होगा। तरतीव्र प्रारब्ध से जो होने वाला है, होगा। मैं तो यह आशीर्वाद देता हूँ कि ‘कितने भी विघ्न आ जायें, कितनी भी सम्पदाएँ आ जायें, कितनी भी आपदायें आ जायें, थोड़ी आती हों तो तुम उन्हें और भी बुलाओ लेकिन साथ-साथ तुम अपने सच्चिदानंद परमात्मा को भी बुलाओ।’ ‘तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे साथ हो, भीतर का दीया जला हुआ हो, तुम्हारा भीतर का मित्र तुम्हारे साथ हो’ – यह आशीर्वाद जरूर दूँगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 298

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अहंदान से बढ़कर कोई दान नहीं – पूज्य बापू जी


बलि प्रतिपदा – 20 अक्तूबर 2017

भगवान से कुछ माँगो मत। माँगने से देने वाले की अपेक्षा तुम्हारी माँगने की वस्तु का महत्त्व बढ़ जाता है। ईश्वर और गुरु माँगी हुई चीजें दे भी देते हैं किंतु फिर अपना आपा नहीं दे पाते।

बलि ने भगवान वामन से कह दियाः “प्रभु ! आप जो चाहें ले सकते हैं।”

तब भगवान ने तीन पाद पृथ्वी माँगी और दो पाद में ही इहलोक तथा परलोक दोनों ले लिए। फिर कहाः “बलि ! अब तीसरा पाद कहाँ रखूँ ?”

बलिः “प्रभु ! मुझ पर ही रखो।”

भगवान वामन ने तीसरा पाद बलि के सिर पर रखा और उसको भी ले लिया। बलि बाँध दिये गये वरूणपाश में। उस समय ब्रह्मा जी वहाँ आये और भगवान से बोलेः

यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय

दूर्वाङ्कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्।

अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं

दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत्।। (श्रीमद्भागवतः 8.22.23)

“प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्घ्य देता है और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है, फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से, धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है ?”

तब भगवान ने जो बात कही वह बड़ी ऊँची है क्योंकि श्रोता बहुत ऊँचा है। ग्वाल-गोपियों के आगे श्रीकृष्ण वही बात करेंगे जो उन्हें समझ में आये। अर्जुन जैसे बुद्धिमान के आगे श्री कृष्ण गीता की बात करते हैं। जितना ऊँचा श्रोता, उतनी ही वक्ता की ऊँचाई प्रकट होती है। भगवान को तो ब्रह्मा जी जैसे श्रोता मिल गये थे अतः वे बोलेः “हे ब्रह्मन् ! कर्ता कर्म का विषय नहीं बन सकता। जीव कर्म का कर्ता तो हो सकता है लेकिन कर्म का विषय नहीं बन सकता है। आप कर्म के कर्ता तो बन सकते हैं लेकिन स्वयं कर्म के विषय नहीं बन सकते।

कर्ता सब कुछ दे सकता है लेकिन आपने आपको कैसे देगा ? जब लेने वाला मैं उसे स्वीकार करूँगा, तब ही कर्ता मुझे पूर्णरूप से अर्पित होगा। मैं कर्ता को ही स्वीकार कर रहा हूँ क्योंकि मैं कर्ता को अपना आपा अर्पण करना चाहता हूँ। बलि कुछ माँग नहीं रहा है, वह दे ही रहा है। जब वह सब दे रहा है तो मैं चुप कैसे रहूँ ? मैं अपना आपा बलि को देना चाहता हूँ इसीलिए मैंने बलि को ले लिया”

कर्ता कर्म का विषय नहीं हो सकता और कर्ता कितना भी लेगा-देगा तो वह माया में होगा। उसको प्रतीति होगी कि ‘मुझे यह मिला… मैंने यह दिया… ‘ लेकिन देते-देते ऐसा दे दे कि देने वाला ही न बचे। देने वाला जब नहीं बचेगा तो लेने वाला कैसे बचेगा ! हम न तुम, दफ्तर गुम !

अपना सीमित ‘मैं’ ब्रह्म और ब्रह्मवेता के ‘मैं’ में मिला दो…. घटाकाश महाकाश में मिला दो…. वास्तव में महाकाश ही है, ऐसे वास्तव में जीव ब्रह्म ही है। अपनी देह में उलझे हुए ‘मैं’ को देहातीत, व्यापक स्वरूप में समर्पित करना…..

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम।।

वह दशा है घटाकाश-महाकाश का एकत्व जीव-ब्रह्म का एकत्व।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 27 अंक 298

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अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा


आपके लिए दूसरा कोई साधन नहीं कर सकता। त्याग आपके स्वयं का धर्म है और सच्चिदानंद ब्रह्म आपके स्वयं का स्वरूप है। साधन, भजन, त्याग खुद को करना पड़ता है। आलसी, प्रमादी लोगों का यह रास्ता नहीं है। वेदांत का अध्ययन दूसरी वस्तु है और श्रवण दूसरी वस्तु है।

प्रमाणगत संशय ( वेदांत शास्त्र का तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म की एकता में ही है और वही मोक्ष है, ऐसे निश्चय का न होना ‘प्रमाणगत संशय’ है। वेदांत शास्त्र ‘प्रमाण’ है और आत्मा-ब्रह्म की एकता प्रमेय है।) और प्रमेयगत संशय ( आत्मा और ब्रह्म की एकता में ही वेदांत का तात्पर्य है यह तो जान लिया लेकिन उसके प्रति बुद्धि में जो अनिश्चय है अर्थात् वह एकता बुद्धि से सम्भव नहीं लग रही है तो यह ‘प्रमेयगत संशय’ कहा जाता है।) को निवृत्त करके जो नैसर्गिक विपर्यय ( निश्चय होने पर भी व्यवहार का जो मूल आधार है उस आत्मा का देह के साथ जो सहज अध्यास है, उसमें सत्यत्व-भ्रांति ‘नैसर्गिक विपर्यय’ है।) है उसे दूर करने के लिए निदिध्यासन स्वयं करना पड़ता है।

इस संसार समुद्र में आप डूब रहे हो तो इससे अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा। यह पंच भूतों में जो आपकी आकृति बनी हुई है और इसको चलाने वाले जो पंचभूतों के कार्य प्राणादि हैं, उनको ‘मैं-मेरा’ मानना, बस यही भवसागर में डूबना है।

‘उद्धार’ शब्द का अर्थ है – कोई नीचे गिर रहा हो या गिरा हो उसे ऊपर उठाना और फिर उसे पुनः गिरने न देना। अब आत्मा तो नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त ही है, उसका क्या पतन और क्या उद्धार ? तब जो पतित मन से तादात्म्यापन्न (एकरूप) हो गया है वही पतितात्मा है और जो उत्थित मन (उठे हुए मन) से एक हो गया है वह उत्थितात्मा है। अतः ‘अपना उद्धार स्वयं करे’ – इस वाक्य का अर्थ है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप की बुद्धि से युक्त होकर देहात्म-भ्रम में पड़े हुए अपने-आपको स्वरूप-स्थित करे। अपने-आपको बिखेरे नहीं, उजाड़े नहीं।

आपने अपना ज्ञान बिखेर रखा है – थोड़ा प्रयोगशाला में, थोड़ा किताबों में, थोड़ा बैंक में, थोड़ा दुकान में, थोड़ा घर में। इस बिखराव को रोकिये।

कैसे रोकें इस बिखराव को ? इसके लिए पहले एकनिष्ठा जीवन में लानी चाहिए कि ‘जो सत्य है उसी को मैं जीवन में स्वीकार करूँगा।’ और सत्य वह है जिसमें कोई पारमार्थिक भेद नहीं है। इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण जीवन को गुरु द्वारा उपदिष्ट परमार्थ-सत्य के अनुभव की दिशा में प्रवाहित किया जाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 16, अंक 298

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