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कैसे बिठायें प्रवृत्ति व निवृत्ति में तालमेल ?


शंकाः शास्त्र में एक और सर्व-कर्म-संन्यास की बात आती है तो दूसरी ओर कर्म करने का बड़ा भारी विधान भी दिया है। तो हमें क्या करना चाहिए ? और फिर  भगवान ने इन्द्रियाँ दी हैं तो कर्म और भोग के लिए ही तो दी हैं ?

समाधानः ठीक है, कर्म का  विधान शास्त्रों में है पर उसका प्रयोजन भी समझना चाहिए। और कहो कि भगवान ने पैर दिये हैं तो फिर चलते ही क्यों न रहें, विश्राम क्यों करें ? अरे भाई, भगवान ने पैरे दिये हैं तो नींद भी उसी ने दी है ! भगवान ने इन्द्रियाँ दी हैं, ठीक है परंतु बुद्धि में प्रवृत्ति-निवृत्ति का विवेक भी तो उसी भगवान ने दिया है। प्रयोजनवश सभी प्रवृत्तियों और निवृत्तियों की संगति लग जाती (तालमेल बैठ जाता) है।

शास्त्र में कर्म का विधान है परंतु उसका एक प्रयोजन है और वह प्रयोजन है चित्त की शुद्धि।

पापकर्मों के द्वारा, वासनापूर्ति (भोग) के द्वारा, अहंकार और नासमझी से किये गये व्यवहार द्वारा हमारा चित्त दूषित हो गया है। वह असत् और जड़ की ओर झुकता है और भविष्य में बाँधने व दुःख देने वाले कर्मों में उसे स्वतंत्रता व सुख का भ्रम होता है। वह विलासिता में ही अमृतत्व के सपने देखता है। वह मोह के कारण देह-केन्द्रित हो गया है, अहं-केन्द्रित हो गया है। छोटी-छोटी वस्तुओं और सिद्धान्तों में ही उसकी अलं-बुद्धि (तृप्ति) हो गयी है। संक्षेप में, वह कर्म-मल और वासना-विक्षे से ग्रस्त हो गया है। अतः मोक्ष-सम्पादन की प्रक्रिया में शास्त्रीय कर्म-संविधान का प्रयोजन चित्त को उक्त दोषों से मुक्त करना है, जिससे चित्त का सहज झुकाव आत्मज्ञान की ओर हो सके।

बंदूक से निशाना लगता है यह ठीक है परंतु पहले बंदूक को साफ करना पड़ता है। इसी प्रकार चित्त (सम्पूर्ण अंतःकरण – मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) एक यंत्र है जिससे पूर्णतारूप मोक्ष पर निशाना लगाता है पर पहले उस चित्त की सफाई, शुद्धि आवश्यक होती है।

शास्त्रीय कर्म मनुष्य को अधर्म, वासना और अहंकार से मुक्त करने के लिए हैं किंतु चित्त शुद्ध होने के अनंतर उन कर्मों का न्यास (त्याग) भी आवश्यक हो जाता है, जिससे कर्मासक्ति और कर्तृत्वासक्ति का विनाश हो जाता है।

मनमाने कर्म अहंकार को बढ़ाते हैं और सदगुरु-सत्शास्त्र की आज्ञा से किया कर्म अभिमान को मिटाता है और अपनी प्रेरणा के मूल स्रोत को खोल देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 13 अंक 299

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केवल तभी तुम वास्तव में हिन्दू कहलाने योग्य हो…. स्वामी विवेकानंद जी


यदि कोई हिन्दू धार्मिक नहीं है तो मैं उसे हिन्दू ही नहीं कहूँगा। दूसरे देशों में भले ही मनुष्य पहले राजनैतिक हो और फिर धर्म से थोड़ा सा लगाव रखे पर यहाँ भारत में तो हमारे जीवन का सबसे बड़ा एवं प्रथम कर्तव्य धर्म का अनुष्ठान है और फिर उसके बाद यदि अवकाश मिले तो दूसरे विषय भले ही आ जायें। इस तथ्य को ध्यान में रखने से हम यह बात अधिक अच्छी तरह समझ सकेंगे कि अपने जातीय हित के लिए हमें आज क्यों सबसे पहले अपनी जाति की समस्त आध्यात्मिक शक्तियों को ढूँढ निकालना होगा, जैसा की अतीत काल में किया गया था और चिरकाल तक किया जायेगा। अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में हिन्दुत्व की एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। जिनके हृदय एक ही आध्यात्मिक स्वर में बँधे हैं, उन सबके सम्मिलन से ही भारत में हिन्दुओं का संगठन होगा।

मेरी बात पर ध्यान दो, केवल तभी तुम वास्तव में हिन्दू कहलाने योग्य होगे जब ‘हिन्दू’ शब्द सुनते ही तुम्हारे अंदर बिजली दौड़ने लग जायेगी। केवल तभी तुम सच्चा हिन्दू कहला सकोगे, जब तुम किसी भी प्रान्त के, कोई भी भाषा बोलने वाले प्रत्येक हिंदू-संज्ञक व्यक्ति को एकदम अपना सगा समझने लगोगे। केवल तभी तुम सच्चे हिन्दू माने जाओगे, जब किसी भी हिन्दू कहलाने वाले का दुःख तुम्हारे हृदय में तीर की तरह आकर चुभेगा, मानो तुम्हारा अपना लड़का ही विपत्ति में पड़ गया हो।

तब तक भारत का उद्धार असम्भव है…

लोग भारतोद्धार के लिए जो जी में आये कहें, मैं जीवनभर काम करता रहा हूँ, कम से कम, काम करने का प्रयत्न करता रहा हूँ। मैं अपने अनुभव के बल पर तुमसे कहता हूँ कि जब तक तुम सच्चे अर्थों में धार्मिक नहीं होते तब तक भारत का उद्धार होना असम्भव है। केवल भारत ही क्यों, सारे संसार का कल्याण इसी पर निर्भर है। कारण, मैं तुम्हें स्पष्टतया बताये देता हूँ कि इस समय पाश्चात्य सभ्यता अपनी नींव तक हिल चुकी है। भौतिकवाद की कच्ची रेतीली नींव पर खड़ी होने वाली बड़ी-से-बड़ी इमारतें भी एक-न-एक दिन अवश्य ढह जायेंगी। इस विषय में संसार का इतिहास ही सबसे बड़ा साक्षी है। जाति पर जातियाँ उठी हैं और भौतिकवाद की नींव पर उन्होंने अपने गौरव का प्रसाद (महल) खड़ा किया है। उन्होंने एक दूसरे की अपेक्षा अपना सिर ऊपर उठाया है तथा संसार के समक्ष यह घोषणा की है कि जड़ के सिवाय मनुष्य और कुछ नहीं है। ध्यान दो, पाश्चात्य भाषा में मृत्यु के लिए कहते हैं- “मनुष्य आत्मा छोड़ता है। (A man gives up the ghost.)” पर हमारी भाषा में- “मनुष्य शरीर छोड़ता है।” पाश्चात्य देशवासी अपने संबंध में कहते समय पहले देह को ही लक्ष्य करता है, उसके बाद उसका एक आत्मा है इस प्रकार वह उल्लेख करता है। पर हम लोग सबसे पहले अपने को आत्मा समझते हैं, उसके बाद हमारी एक देह है ऐसा कहा करते हैं। इन दो विभिन्न वाक्यों की छान-बीन करने पर तुम देखोगे कि प्राच्य (पूर्व) और पाश्चात्य विचार प्रणाली में कितना अन्तर है। इसीलिए जितनी सभ्यताएँ भौतिक सुख-सुविधा की रेतीली नींव पर कायम हुई थीं, वे सभी थोड़े ही समय के लिए जीवित रहकर एकर-एक करके लुप्त हो गयीं परंतु भारत की सभ्यता, यही क्यों, भारत के चरणों के पास बैठकर शिक्षा ग्रहण करने वाले चीन और जापान की सभ्यता आज भी जीवित है, और इतना ही नहीं बल्कि उनमें पुनरुत्थान के लक्षण भी दिखाई दे रहे हैं। फिनिक्स (ग्रीक दंतकथाओं के अनुसार फिनिक्य एक ऐसी चिड़िया है जो 500  वर्ष तक जीकर एक चिता पर स्वयं को जला देती है और पुनः अपने भस्म से जी उठती है) के समान हजारों बार नष्ट होने पर भी वे पुनः अधिक तेजस्वी होकर प्रस्फुरित होने को तैयार है। पर भौतिकवाद के आधार पर जो सभ्यताएँ स्थापित हैं, वे यदि एक बार नष्ट हो गयीं तो फिर उठ नहीं सकतीं। एक बार यदि महल ढह गया तो बस, सदा के लिए धूल में मिल गया। अतएव धैर्य के साथ राह देखते रहो, हम लोगों का भविष्य उज्जवल है।

‘अपने को हिन्दू बताते हुए मुझे गर्व होता है’

उतावले मत बनो, किसी दूसरे का अनुकरण करने की चेष्टा मत करो। दूसरे का अनुकरण करना सभ्यता की निशानी नहीं है। यह एक बड़ा पाठ है, जो हमें याद रखना है। मैं यदि आप ही राजा की सी पोशाक पहन लूँ तो क्या इतने से ही मैं राजा बन जाऊँगा ? शेर की खाल ओढ़कर गधा कभी शेर नहीं बन सकता। अनुकरण करना – हीन और डरपोक की तरह अनुकरण करना कभी उन्नति के पथ पर आगे नहीं बढ़ा सकता। वह तो मनुष्य के अधःपतन का लक्षण है। जब मनुष्य अपने-आपसे घृणा करने लग जाता है, तब समझना चाहिए कि उस पर अंतिम चोट बैठ चुकी है।  जब वह अपने पूर्वजों को मानने में लज्जित होता है तो समझ लो कि उसका विनाश निकट है। यद्यपि मैं हिन्दू जाति में एक नगण्य व्यक्ति हूँ तथा अपनी जाति और अपने पूर्वजों के गौरव से मैं अपना गौरव मानता हूँ। अपने को हिन्दू बताते और हिन्दू कहकर अपना परिचय देते हुए मुझे एक प्रकार का गर्व होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 299

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किसको प्रसन्न करें तो पूरण हों सब काम ?


परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा

प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलितम्।

प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगणो

विविक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते।।

‘हे हृदय ! तू खूब क्लेश से युक्त होकर दूसरों के चित्त की प्रतिदिन अनेक प्रकार से आराधना करके उनकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए क्यों प्रवृत्त होता है ? स्वयं तेरा अंतःकरण प्रसन्न होते ही, उसका समाधान होते ही अपने आप उदय होने वाला चिंतामणियों की खानरूपी निष्कलंक, पवित्र सत्यसंकल्प क्या तेरी अभिलाषाओं को पोषित (पूर्ण) नहीं करेगा ?’ (वैराग्य शतकः 61)

‘श्री रामचरितमानस’ के प्रारम्भ में संत तुलसीदास जी लिखते हैं- ‘स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा…..’ अर्थात् श्री रघुनाथ जी की कथा का तुलसीदासजी अपने अंतःकरण के सुख के लिए विस्तृत रूप से वर्णन करते हैं।

यह एक विलक्षण सिद्धान्त है कि जो ‘स्वान्तःसुखाय’ होता है वह अपने आप ‘सर्वान्तःसुखाय’ भी हो जाता है। यानी जो कार्य ईमानदारी से अपने आत्मा के संतोष के लिए किया जाता है, वह स्वाभाविक ही सबके अंतरात्मा को भी संतोष देने वाला हो जाता है। आज विश्व में ऐसा कौन सज्जन होगा जिसे तुलसीदास जी की रामायण पढ़कर आत्मतृप्ति, आत्मसंतुष्टि का अनुभव नहीं हुआ होगा ? सभी पुण्यात्माओं को तृप्ति का एहसास होता है।

जो मनुष्य आत्मसंतोष के अनुभव का मूल्य जानकर हर कार्य ‘स्वान्तःसुखाय’ अर्थात् अंतरात्मा के संतोष या आत्मसुख के लिए करने का अभ्यास करता है, वह जीवन के परम सुख के अमृत का आस्वादन करते-करते एक दिन अपने शाश्वत सुखसिंधुस्वरूप को जान लेता है।

पूज्य बापू जी के अमृतवचनों में आता हैः “दूसरों को प्रसन्न करने के उद्देश्य से कभी कुछ मत करो। जिस काम से तुम्हारा चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने अंतर्यामी परमात्मा को राज़ी करने का प्रयत्न करो। व्यर्थ की खुशामदखोरी से बचकर जो अपने ईश्वरत्व में टिकते हैं वे ही वीर हैं।

धन, सत्ता व प्रतिष्ठा प्राप्त करके भी तुम चाहते क्या हो ? तुम दूसरों की खुशामद करते हो किसलिए ? संबंधियों को खुश रखते हो, समाज को अच्छा लगे ऐसा ही व्यवहार करते हो, किसलिए ? सुख के लिए ही न ! फिर भी सुख टिका ? तुम्हारा सुख टिकता नहीं और आत्मज्ञानी महापुरुष का सुख जाता नहीं।

लोग जल्दी से उन्नति क्यों नहीं करते ? क्योंकि बाहर के अभिप्राय एवं विचारधारों का हिमालय की तरह बहुत बड़ा बोझ उनकी पीठ पर लदा हुआ है। जनता एवं बहुमति को आप किसी प्रकार से संतुष्ट नहीं कर सकते। जब आपके आत्मदेवता प्रसन्न होंगे तब जनता आपसे अवश्य संतुष्ट होगी।”

शास्त्र कहते हैं-

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने।

भगवान, गुरु और अपना अंतर्यामी आत्मा तीनों एक ही हैं।

हृदय जितना शुद्ध होता है उतनी ही अंतरात्मा की आवाज या प्रेरणा ठीक से पता चलती है, नहीं तो अशुद्ध हृदय अपनी वासनाओं को ही अंतर्यामी की आवाज या प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत कर भटकाता रहता है। अतः भगवान के साकार, प्रकट स्वरूप सद्गुरुदेव की आज्ञाएँ, उनके वचन, उनके सत्संग ही अंतर्यामी की नित्य प्रेरणा या आवाज है, यह रहस्य जानकर फिर उन एक अद्वैत अंतर्यामी, ईश्वर या सद्गुरुदेव की प्रसन्नता के लिए व्यक्ति जो कुछ करेगा वह उसे पूर्णकाम, सत्यंसंकल्प महापुरुष बनाने के राजमार्ग पर यात्रा करायेगा। जो ऐसे महापुरुष हुए हैं वे अभिलाषाओं के गुलाम नहीं होते अपितु उनके स्वामी होते हैं। उनमें कोई अभिलाषा नहीं रहती बल्कि उनकी मन्नत मानने वालों की अभिलाषाएँ पूरी हो जाती हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 299

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