जिसके मन-बुद्धि जितने अंश में उस परब्रह्म-परमात्मा के करीब पहुँचते हैं, उसके द्वारा उतनी ही कुछ कल्पनातीत घटनायें घट जाया करती हैं, जिन्हें लोग चमत्कार कहते हैं। चमत्कार भी इसलिए कहते हैं क्योंकि वे सामान्य मानव की समझ में नहीं आतीं, अन्यथा वह पूर्ण तत्त्व सबके पास उतने-का-उतना, पूरे-का-पूरा है।
संतों की महत्ता व उनके दर्शन और सत्संग से क्या लाभ होते हैं इसको खोजने वाले तैलंग स्वामी गंगा-किनारे घाट पर बैठे थे। अचानक बरसात होने लगी। सारे लोग तितर-बितर हो गये पर बाबा जी भीगते रहे। वे तो परमहंस अवस्था में रहते थे, लँगोटी भी धारण नहीं करते थे। ऐसे फक्कड़ थे कि ‘दिशाएँ मेरे वस्त्र हैं, सारी सृष्टि मेरा वस्त्र है’ ऐसे निर्विकार भाव से बैठे थे। गर्मी सर्दी को उन्होंने अच्छी तरह से पचा लिया था।
किसी ब्राह्मण को सद्भाव जगा कि ‘संत पानी में भीग रहे हैं !’ तो बाबा को हाथ जोड़कर बोलाः “बाबा ! बारिश में यहाँ भीगते हो, चलो मेरे घर पर।”
“मुझे इन चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता।” बाबा ने ऐसा कहा तो ब्राह्मण देखता रहा।
बाबा ने कहाः “यहाँ मैं विशेष कार्य के बैठा हूँ। सामने जो नाव आ रही है वह अभी डूब जायेगी, बेचारे यात्रियों को बचाना है। तुम आग्रह नहीं करो, मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूँगा।”
देखा तो नाव आ रही थी। बीच भँवर में नाव हिली-डुली और देखते-देखते सचमुच डूब गयी। नाव डूबी तो ब्राह्मण हक्का-बक्का रह गया। तैलंग स्वामी देखते-देखते अंतर्धान हो गये। फिर थोड़ी देर में देखा तो नाव बाहर आ रही है। बाबा उन यात्रियों के बीच बैठे दिखे। नाव किनारे लगी। ब्राह्मण ने तैलंग स्वामी को प्रणाम किया। उसने आश्चर्य व्यक्त किया तो तैलंग स्वामी ने कहाः “आश्चर्य मत करो। जीव इन्द्रियों और मन के वश होकर संसारी हो के अपनी महिमा खो देता है, फिर भी जीव ईश्वर का अविभाज्य स्वरूप है। ईश्वर का संकल्प होता है तो सृष्टि बनती है तो मेरे संकल्प से यह नाव बाहर आ जाय और मैं नाव में बैठा दिखूँ तो क्या बड़ी बात है ! सब हो सकता है, आश्चर्य न मानो।”
लेकिन महापुरुषों की महानता चमत्कारों में निहित नहीं है, उनकी महानता तो उनकी ब्रह्मनिष्ठा में निहित है। वास्तविक ज्ञान, इन्द्रियगत ज्ञान, बुद्धिगत ज्ञान और मनोगत ज्ञान – इन सबको जो जानता है वह आत्मदेव है। वह ईश्वरीय ज्ञान है, ईश्वरीय सत्ता है जो सबके अंदर छिपी है। बस, उसको जागृत करने, समझने की देर हैः सद्भाव व आदर सहित साधना से समझने की आवश्यकता है। आप चाहें तो आप भी जागृत कर सकते हैं, समझ सकते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 15 अंक 300
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