Monthly Archives: May 2018

आँधी तूफान सह के भी पुण्यात्मा सेवा करते हैं – पूज्य बापू जी


तुम्हारे साथ यह संसार कुछ अन्याय करता है, तुमको बदनाम करता है, निंदा करता है तो यह संसार की पुरानी रीत है। हीनवृत्ति, कुप्रचार, निंदाखोरी यह आजकल की ही बात नहीं है लेकिन कुप्रचार के युग में सुप्रचार करने का साहस लल्लू-पंजू का नहीं होता है। महात्मा बुद्ध के सेवकों का नाम सुनकर लोग उन्हें पत्थर मारते थे फिर भी बुद्ध के सेवकों ने बुद्ध के विचारों का प्रचार किया।

महात्मा बुद्ध से एक भिक्षुक ने प्रार्थना कीः “भंते ! मुझे आज्ञा दें, मैं सभाएँ करूँगा। आपके विचारों का प्रचार करूँगा।”

“मेरे विचारों का प्रचार ?”

“हाँ भगवन् !”

“लोग तेरी निंदा करेंगे, गालियाँ देंगे।”

“कोई हर्ज नहीं। मैं भगवान को धन्यवाद दूँगा कि ये लोग कितने अच्छे हैं ! ये केवल शब्द-प्रहार करते है, मुझे पीटते तो नहीं !”

“लोग तुझे पीटेंगे भी, तो क्या करेगा ?”

“प्रभो ! मैं शुक्र गुजारूँगा कि ये लोग हाथों से पीटते हैं, पत्थर तो नहीं मारते !”

“लोग पत्थर भी मारेंगे और सिर भी फोड़ देंगे तो क्या करेगा ?”

“फिर भी आश्वस्त रहूँगा और आपका दिव्य कार्य करता रहूँगा क्योंकि वे लोग मेरा सिर फोड़ेंगे लेकिन प्राण तो नहीं लेंगे !”

“लोग जुनून में आकर तुम्हें मार देंगे तो क्या करेगा ?”

“भंते ! आपके दिव्य विचारों का प्रचार करते-करते मर भी गया तो समझूँगा कि मेरा जीवन सफल हो गया।”

उस कृतनिश्चयी भिक्षुक की दृढ़ निष्ठा देखकर महात्मा बुद्ध प्रसन्न हो उठे। उस पर उनकी करूणा बरस पड़ी। ऐसे शिष्य जब बुद्ध का प्रचार करने निकल पड़े तब कुप्रचार करने वाले धीरे-धीरे शांत हो गये।

ऐसे ही मेरे लाड़ले-लाड़लियाँ, शिष्य-शिष्याएँ हैं कि घर-घर जाकर ‘ऋषि प्रसाद’, ‘ऋषि-दर्शन’ के सदस्य बनाते हैं। आपको भी सदस्य बनाने का कोई अवसर मिले तो चूकना नहीं। लोगों को भगवान और संत वाणी से जोड़ना यह अपने-आपमें बड़ी भारी सेवा है।

संत और संत के सेवकों को सताने वालों के प्रकृति अपने ढंग से यातना देती है और संत की सेवा, समाज की सेवा करने वालों को गुरु और भगवान अपने ढंग से प्रसादी देते हैं।

वाहवाही व चाटुकारी के लिए तो कोई भी सेवा कर लेता है लेकिन मान-अपमान, गर्मी-ठंडी, आँधी तूफान सह के तो सदगुरु के पुण्यात्मा शिष्य ही सेवा कर पाते हैं।

ऋषि प्रसाद, ऋषि दर्शन के सदस्य बनाने वाले और दूसरी सेवाएँ करने वाले मेरे साधक-साधिकाएँ दृढ़ संकल्पवान, दृढ़ निष्ठावान हैं। जैसे बापू अपने गुरुकार्य में दृढ़ रहे ऐसे ही बापू के बच्चे, नहीं रहते कच्चे !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 15 अंक 305

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भगवान या गुरु अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ?


भगवान कहते हैं-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

‘यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।’ (गीताः 7.14)

हे अर्जुन ! मुझ अंतर्यामी आत्मदेव की माया दुस्तर है पर जो मेरे को प्रपन्न (शरणागत) होते हैं उनके लिए मेरी माया को लाँघना गोपद अर्थात् गाय के पग के खुर का निशान लाँघने जैसा सरल कार्य है। जिनको जगत सच्चा लगता है उनके लिए मेरी माया दुस्तर है।

जय-विजय ने सनकादि ऋषियों का अपमान किया। उन सेवकों को सनकादि ऋषियों का श्राप मिला। वे रावण और कुम्भकर्ण हुए। कोई कहे, ‘भगवान अंतर्यामी हैं तो यह क्यों होने दिया ?’ या किसी बात को लेकर सोचे कि ‘गुरु अंतर्यामी हैं तो यह क्यों होने दिया ?’ अरे, तेरी बुद्धि में खबर नहीं पड़ती भाई ! ‘अंतर्यामी-अंतर्यामी मतलब क्या ? जगत के व्यवहार के जगत की रीति से नहीं चलने देना, इसका नाम अंतर्यामी है क्या ? ‘गुरु अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ? भगवान अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ?…..’ ऐसा कुतर्क से पुण्याई और शांति सब खो जाती है।

कबिरा निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।

एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।

निंदक अपने दिमाग में कुतर्क भर के रखता है इसलिए उसकी शांति चली जाती है, उसका कर्मयोग भाग जाता है, भक्तियोग भाग जाता है और फिर अशांति के कुंड में खदबदाता रहता है।

कुतर्क करने वाले यह भी सोच सकते हैं, ‘भगवान अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों हुआ ? भगवान सर्वसमर्थ हैं और जिनके घर आने वाले हैं ऐसे वसुदेव-देवकी को जेल भोगना पड़े, ऐसा क्यों ? पैरों में जंजीरें, हाथों में जंजीरें-ऐसा क्यों ? रामजी अंतर्यामी हैं तो मंथरा के भड़काने को तो जानते थे, मंथरा को पहले ही निकाल देते नौकरी से….. कैकेयी को मंथरा के प्रभाव से बाहर कर देते….!’ विधि की लीलाओं को समझने के लिए गहरी नज़र चाहिए। तर्क-कुतर्क करना है तो कदम-कदम पर होगा लेकिन श्रद्धा की नज़र से देखो तो यह भगवान की माया है। जो भगवान की शरण जाता है उसके लिए माया विशाल, गम्भीर संसार-सागर हो जाती है। कई डूब जाते हैं उसमें।

गुरु अंतर्यामी हैं तो हमारे से कभी-कभी गुरु जी ऐसा कुछ पूछते थे कि सामने वाला सूझबूझवाला न हो तो उसे लगे कि ‘हमारे गुरु अंतर्यामी हैं, कैसे ?’ लेकिन हमारे मन में ऐसा कभी नहीं आया। अंतर्यामी माने क्या ? जिन्होंने अंतरात्मा में विश्राम पाया है। जब मौज आयी तो अंतर्यामीपने की लीला कर देते हैं, नहीं आयी तो साधारण मनुष्य की नाईं जीने में उनको क्या घाटा है ! भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी देवर्षि नारद जी से पूछते हैं, भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी सीता जी के लिए दर-दर पूछते हैं तो उनकी ऐसी लीला है ! उनके अंतर्यामीपने की व्याख्या तुम्हें क्या पता चले ! पूरे ब्रह्माण्ड में चाहे उथल-पुथल हो जाय लेकिन व्यक्ति का मन न हिले ऐसी श्रद्धा हो, फिर साधक को कुछ नहीं करना पड़ता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 305

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संस्कृतिप्रेमी व साधक क्या करें ?


अपने अनुभव का आदर करें। आपके अंदर सत्यस्वरूप अंतर्यामी चैतन्य जगमगा रहा है। अपने उस सद्ज्ञानस्वरूप के अनुभव की निर्मल आँख से सच्चाई को जानें। धर्म, संस्कृति व समाज के हित में पूरा जीवन लगाने वाले करूणासिंधु संतों-महापुरुषों के प्रति किसी अन्य की मान्यता या दृष्टि के आधार पर कोई धारणा न बनायें। अपना जीवन कीमती है, उसे मात्र किसी की मान्यता के आधार पर व्यर्थ करना बुद्धिमानी नहीं है।

अफवाहों में न उलझें। भ्रामक खबरों व उनको फैलाने वाले माध्यमों से बचें। आश्रम से संबंधित किसी भई तथ्य की जानकारी हेतु अहमदाबाद आश्रम से सम्पर्क करें।

आसपास के साधकों, संस्कृतिप्रेमियों से मिल के एकता बढ़ायें। आपस में चर्चा करें व समूह बनायें। साधकों के लिए हर सप्ताह सामूहिक संध्या, बैठक करना, सेवा-साधना हेतु उत्साहवर्धक सत्संग चलाना, सुप्रचार सेवा-संबंधी विचार-विमर्श करना विशेष हितकारी है।

संस्कृतिरक्षक प्राणायाम करें। (पढ़ें ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ 4 या देखें https://goo.gl/V65PEi )

साधक पूज्य बापू जी की शीघ्र रिहाई हेतु प्रतिदिन ‘पवन तनय बल पवन समाना। बुधि विवेक विग्यान निधाना।।’ मंत्र की 2 माला व ‘ॐॐॐ बापू जल्दी बाहर आयें’ मंत्र की एक माला अवश्य करें।

जप, त्राटक, ध्यान आदि जो भी साधना तथा सेवा करें, पूज्य गुरुदेव की शीघ्र ससम्मान रिहाई के संकल्प के साथ करें।

घर-घर तक ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु, ऋषि दर्शन आदि पहुँचाने, बाल संस्कार केन्द्र चलाने, युवा सेवा संघ एवं महिला उत्थान मंडल की संस्कार सभाएँ चलाने आदि की सेवा में तत्परता से लगे रहें। याद रखें वे हमारे प्यारे गुरुदेव द्वारा हमें दी गयी मंगलमय धरोहरें हैं, जिन्हें हमें भली प्रकार सँजोये रखना है एवं और भी बढ़ाना है।

साधक अकेले, 2-2 या 4-4 का समूह बनाकर ‘साधक सम्पर्क अभियान’ चलायें। अपने आस-पास पड़ोस एवं क्षेत्र के साधकों से मिलने जायें और बापू जी का संदेश उन्हें सुनायें। उनकी साधना में प्रीति एवं गुरुदेव के दैवी सेवाकार्य में सहभागिता का उत्साह बढ़े ऐसी चर्चा, ऐसा वार्तालाप उनके साथ करें। पूज्य बापू जी के विश्व-मांगल्य के कार्यों को सुसम्पन करने के लिए सुसंवादिता अत्यंत आवश्यक है।

सप्ताह में 1-2 दिन जैसे – गुरुवार, रविवार को तथा पर्व त्यौहारों पर अपने नजदीकी आश्रम में जाने का निश्चय करें व उसका दृढ़ता से पालन करें। आश्रम के नजदीक रहने वाले साधक अगर प्रतिदिन आश्रम जा सकें तो प्रयत्नपूर्वक जायें, वहाँ के पवित्र वातावरण में साधन-भजन करें तथा गौ-सेवा व आश्रम द्वारा संचालित अन्य दैवी सेवाकार्यों का लाभ लें।

समाज के जिन लोगों को अपने महापुरुषों व धर्मबंधुओं के सर्वहितकारी कार्यों में सहभागी होना सम्भव नहीं हो, वे लोग उन्हें अपने शुभ संकल्पों से पोषित कर मानसिक सेवा का लाभ अवश्य ले सकते हैं, यह उन्हें बतायें। यह उन्हें कुछ-न-कुछ पुण्य प्रदान कर ही देगा।

इतना भी न कर सकें तो महापुरुषों एवं उनके सेवाभावी शिष्यों की निंदा करके अपने स्वास्थ्य, आयु, आनंद, शांति व सौभाग्य का तो नाश न करें। अपने पूर्वकृत पुण्यों की रक्षा करना यह भी एक प्रकार की सेवा ही मानी जा सकती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 14 अंक 305

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